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Answer» व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्य (Functions of Education in Personal Life) व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के कार्य देश-काल एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित और परिवर्तित होते रहे हैं। हमारे समाज की वर्तमान आवश्यकताओं, मूल्यों, उद्देश्यों तथा संरचना को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा के निम्नलिखित कार्यों का उल्लेख किया जा सकता है| 1. जन्मजात शक्तियों एवं गुणों का विकास- शिक्षा का मुख्य कार्य मनुष्य की जन्मजात शक्तियों तथा गुणों का सम्यक् विकास करके उसके जीवन को सफल बनाना है। बालक प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, कल्पना, जिज्ञासा, आत्म-गौरव तथा आत्म-समर्पण जैसी अनेक विशिष्ट शक्तियों व गुणों के साथ जन्म लेता है, जिनके अभिप्रकाशन में शिक्षा की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। 2. सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास- शिक्षा बालक के व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करती है। शिक्षा के माध्यम से बालक के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों-शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सांवेगिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। शिक्षा के इस कार्य को सभी शिक्षाविदों ने महत्त्वपूर्ण माना है। …। फ्रेडरिक ट्रेसी का कथन है, “समस्त शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है। यह आदर्श सन्तुलित व्यक्तित्व है।” 3. चरित्र-निर्माण तथा नैतिकता का विकास-शिक्षा व्यक्ति को चरित्रवान् तथा नैतिक बनाती है। उत्तम चरित्र एवं नैतिकता के अभाव में कोई भी व्यक्ति प्रेम, त्याग, सेवा और बन्धुत्व सदृश मानवीय गुणों से युक्त नहीं हो सकता। अतः आवश्यक है कि शिक्षा बालक में उत्तम नैतिक-चरित्र का निर्माण करे। नैतिक और चारित्रिक गुणों के विकास से ही उसका सर्वांगीण विकास सम्भव है। हरबर्ट (Herbart) ने ठीक ही लिखा है, “शिक्षा का कार्य उत्तम नैतिक चरित्र का विकास करना है।” 4. वयस्क जीवन की तैयारी-प्रसिद्ध विद्वान विलमॉट ने कहा है, “शिक्षा जीवन की तैयारी है।” इसका अभिप्राय यह है कि शिक्षा का कार्य बालक को वयस्क जीवन के लिए भली प्रकार तैयार करना है। वास्तव में शिक्षित व्यक्ति ही विषम परिस्थितियों तथा कठिनाइयों का धैर्यपूर्वक सामना करते हुए जीवन में आगे बढ़ सकता है। बालक वयस्क होकर एक समाज का जिम्मेदार नागरिक बनता है, तब उसके कुछ अधिकार और कर्तव्य होते हैं। शिक्षा की प्रक्रिया बालक को इन अधिकारों, कर्तव्यों तथा दायित्वों से परिचित कराती हुई भावी जीवन के लिए तैयार करती है। 5. आवश्यकताओं की पूर्ति-हमारे समाज में शिक्षा का प्रमुख कार्य व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करना है। व्यक्ति की अनेक आवश्यकताएँ हैं; जैसे-जैविक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक तथा मनोवैज्ञानिक।, जीवधारी होने के कारण रोटी, कपड़ा और मकान उसकी जैविक आवश्यकताएँ हैं। सामाजिक प्राणी के रूप में वह समाज के दूसरे व्यक्तियों से सामाजिक सम्बन्ध बनाने की आवश्यकता महसूस करता है। व्यक्ति जीवन के पथ-प्रदर्शन हेतु धर्म एवं जीवन-दर्शन की, विशिष्ट योग्यताओं के विकास हेतु उचित अवसर की, मनोरंजन के लिए अवकाश की तथा उन्नति के लिए संघर्ष की आवश्यकता अनुभव करता है। शिक्षा इन सभी आवश्यकताओं के अनुभवों का पुनसँगठन एवं पुनर्रचना को पूर्ण करने का कार्य करती है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों के भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में, “शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार हल किया जाए और आधुनिक सभ्य के मार्गदर्शन समाज का गम्भीर ध्यान इसी बात में लगा हुआ है।” 6. व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति- शिक्षा व्यक्ति को विभिन्न व्यवसायों का ज्ञान देती है और उसे अपने व्यवसाय को सुन्दर व व्यवस्थित ढंग से करने की प्रेरणा देती है। शिक्षित व्यक्ति अपनी योग्यता व पसन्द के अनुसार व्यवसाय चुनकर उसमें कुशलता प्राप्त करता है और इस प्रकार भौतिक सम्पन्नता अर्जित करता है। देश में औद्योगिकीकरण की तेज गति ने बड़ी संख्या में इंजीनियरों, वैज्ञानिकों तथा शिल्पियों की माँग उत्पन्न कर दी है। छात्रों को श्रेष्ठ व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराने का काम शिक्षा ही कर सकती है। यही कारण है कि शिक्षा का मुख्य कार्य छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना होना चाहिए। 7. मूल-प्रवृत्तियों का नियन्त्रण-मूल-प्रवृत्तियाँ मानव के व्यवहार का संचालन करती हैं। जिज्ञासा, काम, पलायन, ह्रास आदि मूल-प्रवृत्तियाँ बालक में जन्म से ही पायी जाती हैं, जबकि आत्म-गौरव, आत्महीनता तथा सामुदायिकता की मूल-प्रवृत्तियाँ अर्जित हैं। शिक्षा इन मूल-प्रवृत्तियों के नियन्त्रण तथा शोधन का कार्य करती है ताकि वे अच्छे उद्देश्य वाली बनकर समाज का अधिकाधिक हित कर सकें। 8. आत्मनिर्भर बनाना-आत्मनिर्भर व्यक्ति का जीवन सुखमय होता है। वह स्वयं अपने कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करते हुए समाज की उन्नति में भी योगदान देता है। वस्तुत: वर्तमान परिस्थितियों में समाज को आत्मनिर्भर लोगों की ही आवश्यकता है। शिक्षा का यह प्रमुख कार्य है कि वह व्यक्ति को अपना भार स्वयं अपने ऊपर लेना सिखाये तथा उसे इस योग्य बनाये कि वह समाज के अन्य लोगों को भी सहारादे सके। 9. अनुभवों का पुनसँगठन एवं पुनर्रचना-जीवन के अनेक कार्य अनुभवों से ही होते हैं। शिक्षा व्यक्ति को सभी आवश्यक अनुभव प्राप्त करने में उसकी सहायता करती है। अतीत के अनुभव मनुष्य के वर्तमान जीवन को सफल बनाने में योगदान तो करते हैं, किन्तु उन्हें किसी विशेष परिस्थिति में मूल्य तथा उपयोगिता की दृष्टि से ही प्रयोग किया जा सकता है। मानव-जीवन की भावी प्रगति के लिए आवश्यक है कि अतीत के अनुभवों का पुनसँगठन और उनकी पुनर्रचना भली प्रकार हो। यह महत्त्वपूर्ण कार्य शिक्षा ही करती है। 10. भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति-आज के आर्थिक युग में धन के विशेष महत्त्व ने व्यक्ति को अधिक-से-अधिक धनोपार्जन की ओर लगा दिया है। सभी अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे शिक्षित होकर उच्च-स्तर का व्यवसाय या नौकरी पा जाएँ तथा खूब धन कमाएँ। अत: आज के भौतिकवादी युग में शिक्षा का कार्य भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति में सहायता प्रदान करना है। जॉन रस्किन (John Ruskin) के अनुसार, “माता-पिता कहते हैं कि शिक्षा का मुख्य कार्य उनके बच्चों को जीवन में अच्छे स्थान प्राप्त करने, बड़े और धनी व्यक्तियों के समाज में महत्त्वपूर्ण बनने और आराम तथा ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार करना है।” 11. वातावरण से अनुकूलन- वातावरण से अनुकूलन अनिवार्य है। जो प्राणी स्वयं को वातावरण के अनुकूल नहीं बना पाते, वे प्रायः नष्ट हो जाते हैं। वातावरण व्यक्ति के सिर्फ उन्हीं कार्यों को प्रोत्साहित करता है जो उसके अनुकूल होते हैं। अतएव शिक्षा का प्रधान कार्य है कि वह व्यक्ति को वातावरण के अनुकूल बनाये। टॉमसन (Tomson) का कथन है, “वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि वह जीवित रह पके और अपनी मूल-प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिए अधिक-से-अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सके।” 12. मार्गदर्शन-मानव-जीवन की वास्तविक प्रगति उचित मार्गदर्शन पर आधारित है। ‘प्रयास एवं भूल’ के सिद्धान्त पर प्रगति का मार्ग खोजने के प्रयास में मनुष्य अपने जीवन का बहुमूल्य समय गवाँ देता है। उचित मार्गदर्शन पाकर व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति से सामंजस्य बनाने में सक्षम होता है तथा प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है। इसी कारण से मार्गदर्शन अति आवश्यक है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्ति को अभीष्ट मार्गदर्शन करने का कार्य शिक्षा ही करती है।
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