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Answer» योजना पद्धति के दोष (Defects of Project Method) भले ही शिक्षा की योजना पद्धति के विभिन्न गुणों का उल्लेख किया जाता है, परन्तु अन्य शिक्षा-पद्धतियों के ही समान इस पद्धति में भी कुछ दोष हैं। इस पद्धति में मुख्य दोषों अथवा कमियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है 1. खर्चीली पद्धति- इस पद्धति को कार्यान्वित करने के लिए अनेक पुस्तकों तथा यन्त्रों की आवश्यकता होती है, जिनके प्रबन्ध में काफी धन व्यय करना पड़ता है। इसलिए सामान्य विद्यालयों में इस पद्धति का प्रयोग नहीं किया जा सकता। 2. उचित परीक्षा प्रणाली का अभाव- इस पद्धति में एक योजना पद्धति के दोष निश्चित पाठ्यक्रम का अभाव रहता है, इसलिए परीक्षा के निर्धारण में काफी कठिनाई होती है। वर्तमान परीक्षा प्रणाली में योजना पद्धति को खर्चीली पद्धति कोई स्थान प्राप्त नहीं है। इस पद्धति में कार्य का सही-सही मूल्यांकन भी नहीं हो पाता है। 3. पाठ्य-पुस्तकों का अभाव- इस पद्धति से सम्बन्धित हिन्दी विषयों के क्रमबद्ध अध्ययन का अभाव भाषा में लिखी हुई पाठ्य-पुस्तकों का भी अभाव है। इससे विषयों की । प्रोजेक्ट के चुनाव में कठिनाई निश्चित सीमा निर्धारित नहीं हो पाती, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षण विधि कार्य सुचारु रूप से नहीं चल पाता है। 4. विषयों के क्रमबद्ध अध्ययन का अभाव-इस पद्धति में कठिनाई विषयों का क्रमबद्ध अध्ययन नहीं किया जाता, इसलिए बालकों को किसी भी विषय का क्रमिक ज्ञान नहीं हो पाता। इससे सभी विषयों का ज्ञान अपूर्ण रहता है। गोड के टॉमसन ने इस पद्धति की आलोचना * व्यक्तिगत रुचियों की उपेक्षा करते हुए कहा है, “प्रासंगिक शिक्षा पद्धति बड़ी महत्त्वपूर्ण है, किन्तु प्रौढ़ों की समस्याएँ पर्याप्त नहीं होती।” 5. प्रोजेक्ट के चुनाव में कठिनाई- कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत योग्य शिक्षकों का अभाव है कि इस प्रकार के प्रोजेक्ट का चुनाव करना, जिनका सामाजिक * शिक्षक के प्रभाव का अभाव जीवन में कुछ मूल्य तथा महत्त्व हो और जो कक्षा के विद्यार्थियों की रुचि, बुद्धि तथा क्षमता के अनुकूल हो, अत्यन्त कठिन है। इसके अतिरिक्त विद्यालय के बहुसंख्यक विद्यार्थियों के लिए प्रोजेक्ट का चुनाव करना भी कठिन कार्य है। इस कार्य के लिए समय, सहनशीलता तथा समझदारी की आवश्यकता है। साधारणतया शिक्षक के पास इन बातों के लिए समय का अभाव रहता है, जिसके परिणामस्वरूप बालक ऐसे प्रोजेक्ट चुन लेता है जिनका कोई शैक्षिक मूल्य नहीं होता। 6. अव्यवस्थित शिक्षण विधि- इस पद्धति में शिक्षण विधि अव्यवस्थित तंथा क्रमहीन होती है, जिसके कारण बालकों को पाठ्यक्रम का पूरा ज्ञान नहीं हो पाता। इससे बालक उचित और मनोवैज्ञानिक क्रम से ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है; जैसे—गुणा की आवश्यकता पहले पड़ने पर बिना जोड़-घटाने का ज्ञान प्राप्त किए बालक गुणा सीखने का प्रयत्न करेगा। यहीं पर यह पद्धति अमोवैज्ञानिक हो जाती है। 7.वातावरण से अनुकूलन में कठिनाई- जब विद्यार्थी इस शिक्षा विधि से पढ़ाए जाने वाले विद्यालय से किसी अन्य साधारण विद्यालय में प्रवेश लेता है, तो उसे अपने वातावरण से अनुकूलन करने में अत्यन्त कठिनाई होती है। 8. हस्त कार्यों का बाहुल्य- कुछ शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि इस पद्धति में हस्त कार्यों पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है, जोकि अनुचित है। इसके परिणामस्वरूप बालक दिन भर विभिन्न वस्तुओं के मॉडल बनाता रहता है और उसे किसी विषय का ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार इस पद्धति से बालकों का मानसिक विकास नहीं हो पाता। 9. समय का अपव्यय- यह शिक्षा विधि काफी लम्बी है और इसमें समय का अपव्यय करने के बाद भी बालक को उतना ज्ञान नहीं हो पाता, जितना अपेक्षित होता है। 10. व्यक्तिगत रुचियों की उपेक्षा- सामाजिक प्रोजेक्ट का चुनाव करते समय बालकों की व्यक्तिगत रुचियों और प्रवृत्तियों का ध्यान नहीं रखा जाता। यह मान लिया जाता है कि सभी बालकों के अन्दर वांछित रुचियाँ और प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं, लेकिन सभी बालकों के लिए एक ही प्रोजेक्ट की व्यवस्था करना अनुचित 11. प्रौढों की समस्याएँ- इस पद्धति में बालकों के सम्मुख अधिकतर प्रौढ़ जीवन की समस्याएँ प्रस्तुत की जाती हैं। इससे बालकों को शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होती है। रेमॉण्ट (Raymont) के अनुसार, बालकों की पाठशाला में प्रौढ़ जीवन की समस्याओं को हल करने से पाठशाला की बुराइयाँ नहीं हो सकतीं। बालकों के सम्मुख क्रिया से परे कोई समस्या उपस्थित कर देना अमनोवैज्ञानिक है।” 12. समस्त विषयों के ज्ञान का अभाव- इस पद्धति के द्वारा एक ही प्रोजेक्ट से बालक सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता है। इससे उनमें आपस में सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता है। 13. योग्य शिक्षकों का अभाव- हमारे देश में ऐसे शिक्षकों की कमी है, जोकि इस पद्धति के द्वारा बालकों को शिक्षा दे सकें। इनके प्रशिक्षण के साधन भी इतने सीमित हैं कि कुशल शिक्षक सरलता से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। 14. शिक्षक के प्रभाव का अभाव- इस पद्धति में शिक्षक को कोई प्रमुख स्थान नहीं है। शिक्षक को केवल पथ-प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया गया है, इसलिए शिक्षक के व्यक्तित्व और ज्ञान का प्रभाव बालकों पर नहीं पड़ पाता है। लेकिन यह आलोचना असंगत लगती है, क्योकि इस पद्धति में तो शिक्षक का उत्तरदायित्व और भी अधिक बढ़ जाता है। प्रोजेक्ट का सफलतापूर्वक सम्पन्न होना शिक्षक की योग्यता तथा कार्य-कुशलता पर निर्भर है।
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