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Answer» योजना शिक्षण पद्धति के सोपान (Factors of Project Educational Method) योजना शिक्षण पद्धति के मुख्य सोपान निम्नलिखित हैं 1. समस्या मूलक परिस्थिति उत्पन्न करना-जहाँ तक सम्भव हो सके बालकों को ही योजना या प्रोजेक्ट चुनने के अवसर देने चाहिए। शिक्षक इस कार्य में बालकों की सहायता कर सकता है। शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों के सम्मुख कोई समस्यामूलक परिस्थिति उत्पन्न कर दे, जिसमें कोई समस्या निहित हो और जो बालकों की रुचि और बौद्धिक विकास के अनुरूप हो। रुचि उत्पन्न होने पर बालकों का ध्यान उस . परिस्थिति में निहित समस्या की ओर आकर्षित हो जाएगा। उस समस्या का समाधान करने के लिए बालक स्वयं ही योजनाएँ बनाएँगे। 2. योजना का चुनाव- शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह कोई भी योजना बालकों पर बलपूर्वक न लादे, क्योंकि ऐसा करने से योजना महत्त्वहीन हो जाती है। शिक्षक को चाहिए कि वह योजना का चुनाव करने के लिए बालकों को प्रोत्साहित करे। बालक योजनाओं को प्रस्तावित करेंगे, लेकिन प्रत्येक बालक के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसी योजना के प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहिए, जो कि बालकों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हो। शिक्षक को योजना चुनने के सम्बन्ध में बालकों का पथ-प्रदर्शन करना चाहिए और उसी योजना को स्वीकार करना चाहिए जिसका शैक्षिक मूल्य सबसे अधिक हो। 3. कार्यक्रम का निर्माण योजना का चुनाव होने के बाद उसका कार्यक्रम बनाया जाता है, जिसकी सहायता से बालक उस समस्या अथवा योजना को हल करते हैं। कार्यक्रम-निर्माण के सम्बन्ध में भी सब बालकों को इस प्रकार के अवसर मिलने चाहिए कि वे अपने सुझाव रख सकें। किसी भी कार्यक्रम को पूर्ण वाद-विवाद के बाद ही स्वीकार करना चाहिए। कार्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए जोकि स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जा सके। कार्यक्रम को कई भागों में विभाजित कर देना चाहिए और प्रत्येक बालक को योग्यतानुसार कुछ-न-कुछ कार्य अवश्य देना चाहिए। इस प्रकार सभी बालक मिलकर किसी योजना को पूरा करते हैं। 4. कार्यक्रम का क्रियान्वयन- कार्यक्रम के निर्धारण के पश्चात् प्रत्येक बालक उत्साहपूर्वक अपने-अपने कार्य को ग्रहण करता है और उसे पूरा करने में जुट जाता है। प्रत्येक बालक अपना कार्य स्वयं करता है। इस प्रकार बालक क्रिया द्वारा सीखते हैं। शिक्षकों को योजना का कोई भी कार्य स्वयं नहीं करना चाहिए, बल्कि योजना को पूरा करने में बालकों की सहायता करनी चाहिए। शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों को अपनी गति से कार्य करने दें। इससे समय तो अधिक लगता है, लेकिन इस प्रकार प्राप्त किया गया ज्ञान अधिक स्थायी रहता है। शिक्षक का कार्य बालकों के कार्य का निरीक्षण करना, प्रोत्साहन देना और आवश्यकता पड़ने पर आदेश देना है। आवश्यकता पड़ने पर शिक्षक योजना में परिवर्तन भी कर सकता है। और उस परिवर्तन की ओर बालकों का ध्यान आकर्षित कर सकता है। 5. कार्य का निर्माण करना-योजना या प्रोजेक्ट पूर्ण होने के पश्चात् शिक्षक तथा बालकों द्वारा यह देखा जाता है कि योजना ने कहाँ तक सफलता प्राप्त की है। जिस उद्देश्य को लेकर योजना प्रारम्भ की गई थी, वह पूर्ण हुआ या नहीं। प्रत्येक बालक पूर्णतया स्वतन्त्र होकर अपने विचार प्रकट करता है। इन विचारों पर सामूहिक रूप से विचार करके निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इस प्रकार से बालकों को अपनी गलतियों का ज्ञान हो जाता है और वे अपनी आलोचना स्वयं करते हैं। ‘ 6. कार्य का लेखा- प्रत्येक बालक के पास एक विवरण-पुस्तिका रहती है, जिसमें बालक के कार्यों को लेखबद्ध कर दिया जाता है। बालक प्रारम्भ से अन्त तक जो कुछ भी करते हैं, वह अपनी विवरण-पुस्तिका में लिख देते हैं। शिक्षक को चाहिए कि वह जो कार्य बालकों को दे, उसे लिखा दे, ताकि वह लेखानुसार अपने कार्य में व्यस्त रहें। इस लेखे के द्वारा शिक्षक यह निरीक्षण करता है कि छात्रों ने कितना कार्य समाप्त कर दिया है और कितना शेष है। वे अपने उत्तरदायित्व को पूरी तरह निभा रहे हैं या नहीं, छात्रों ने कितनी प्रगति की है आदि।
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