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Answer» अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त इसे सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार वे बाह्य साधन तथा दशाएँ हैं, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इस सिद्धान्त का समर्थन थॉमस हिल ग्रीन, बैडले, बोसांके आदि विचारक ने किया है। इस सिद्धान्त की अग्रलिखित मान्यताएँ हैं ⦁ अधिकार व्यक्ति की माँग है। ⦁ यह माँग समाज द्वारा स्वीकृत होती है। ⦁ अधिकारों का स्वरूप नैतिक होता है। ⦁ अधिकारों का उद्देश्य समाज का वास्तविक हित है। ⦁ अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक साधन हैं। आलोचना- इस सिद्धान्त के कतिपय दोष निम्नलिखित हैं ⦁ यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है; क्योंकि व्यक्तित्व का विकासे व्यक्तिगत पहलू है तथा राज्य एवं समाज जैसी संस्थाओं के लिए यह जानना बहुत कठिन है कि किसके विकास के लिए क्या आवश्यक है। ⦁ यह व्यक्ति के हितों पर अधिक बल देता है तथा समाज का स्थान गौण रखता है। अतः व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए समाज के हितों के विरुद्ध कार्य कर सकता है। ⦁ मानव-जीवन के विकास की आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं, इनका निर्णय कौन करेगा तथा ये किस-किस प्रकार उपलब्ध होंगी-इन बातों का स्पष्टीकरण नहीं होता है। अतः इस सिद्धान्त की आधारशिला ही अवैज्ञानिक है। निष्कर्ष- अध्ययनोपरान्त हम कह सकते हैं कि अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ही सर्वोपयुक्त है, क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों की उत्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व | के सर्वांगीण विकास के लिए है। राज्य तथा समाज तो केवल व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यवस्था करने के साधन मात्र हैं। व्यक्ति समाज के कल्याण में ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।
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