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अधिकारों के ऐतिहासिक और समाज कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्तों को संक्षेप में लिखिए।

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अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों की उत्पत्ति प्राचीन रीति-रिवाजों के परिणामस्वरूप होती है। जिन रीति-रिवाजों को समाज स्वीकृति दे देता है, वे अधिकार का रूप धारण कर लेते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार, अधिकार परम्परागत हैं तथा सतत् विकास के परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त इनका आधार ऐतिहासिक है। इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में परम्परागत अधिकारों का बहुत अधिक महत्त्व रहा है।

आलोचना- इस सिद्धान्त के आलोचकों का मत है कि अधिकारों का आधार केवल रीति-रिवाज तथा परम्पराएँ नहीं हो सकतीं, क्योंकि कुछ परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज समाज के कल्याण में बाधक होते हैं। अत: इस दृष्टि से यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है।

अधिकारों का समाज-कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्त

जे०एस० मिल, जेरमी बेन्थम, पाउण्ड तथा लॉस्की आदि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। इस सिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य उपयोगिता या समाज-कल्याण है। प्रो० लॉस्की के अनुसार, “अधिकारों का औचित्य उनकी उपयोगिता के आधार पर आँकना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार वे साधन हैं, जिनसे समाज का कल्याण होता है। लॉस्की का मत है, “लोक-कल्याण के विरुद्ध मेरे अधिकार नहीं हो सकते; क्योंकि ऐसा करना मुझे उस कल्याण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है। जिसमें मेरा कल्याण घनिष्ठ तथा अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।”

इस सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं
⦁     अधिकार समाज की देन हैं, प्रकृति की नहीं।
⦁     अधिकारों का अस्तित्व समाज-कल्याण पर आधारित है।
⦁     व्यक्ति केवल उन्हीं अधिकारों का प्रयोग का सकता है, जो समाज के हित में हों।
⦁     कानून, रीति-रिवाज तथा अधिकार सभी का उद्देश्य समाज-कल्याण है।

आलोचना- यह सिद्धान्त तर्कसंगत और उपयोगी तो है, किन्तु इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि यह सिद्धान्त समाज-कल्याण की ओट में राज्य को व्यक्तियों की स्वतन्त्रता का अपहरण करने का अवसर प्रदान करती है, लेकिन समीक्षात्मक दृष्टि से यह दोष महत्त्वहीन है।



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