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घनानंद के काव्य में विरह की प्रधानता है। स्पष्ट कीजिए।

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पाठ्यपुस्तक में संकलित घनानंद के सभी छंद विरहिणी पीर के करुण गीत हैं। पहले छंद में तो कवि ने विरह को मूर्तिमान ही कर दिया है। विरहिणी के रूप में कवि ने विरह की ही दिनचर्या प्रस्तुत कर दी है। विरही के हृदय का संताप पंक्ति-पंक्ति से झलक रहा है। कहीं विरही ‘गुमानी’ प्रिय के व्यवहार से ग्लानि का पान करते हुए घुटघुट कर जी रहा है। व्याकुलता के विषैले बाणों को छाती पर झेल रहा है। अंगारों की सेज पर सोना अपनी नियति मानकर, अपने भाग्य को कोस रहा है। निर्दयी और विश्वासघाती प्रिय जब पहचानने से भी इंकार कर दे तो प्रेमी की अवस्था बड़ी दयनीय हो जाती है। जिसकी मीठी-मीठी बातों में आकर प्रेमी ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। उसी के द्वारा ऐसी असहनीय उपेक्षा पाकर विरही की क्या दशा होती है। यह कवि घनानंद ने अपने छंद में उजागर कर दिया है।

विरह व्यथा की चरम अवस्था चौथे छंद में सामने आती है। बेचारा विरही, निष्ठुर प्रिय के व्यवहार से व्याकुल होकर, गिड़गिड़ाता हुआ, दया की याचना कर रहा है। ‘मीत सुजान अनीत करो जनि, हा हा न हूजिए मोहि अमोही। परन्तु निर्मोही ‘सुजान’ को उसके ‘प्राण-बटोही’ को प्यासा मारने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है। अंत में यही कह सकते हैं कि जो प्रिय, ‘मन’ लेकर ‘छटाँक’ भी देना नहीं चाहता, उसके आगे कोई वश नहीं चलता। घनानंद का काव्य विरह प्रधान है, इसमें कोई संशय नहीं रह जाता।



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