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किसान को किस प्रकार की आवश्यकताओं के लिए साख की आवश्यकता होती है? भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में साख व्यवस्था पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

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ग्रामीण विकास के लिए वित्त एक अनिवार्य आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याएँ इतनी विशाल हैं कि पर्याप्त वित्तीय सुविधाओं के अभाव में यहाँ विकास नहीं हो सकता। भारत में कृषि कार्य में लिप्त किसान प्राय: एक निर्धन व्यक्ति होता है, इसके पास सम्पत्ति के नाम पर भूमि का छोटा-सा टुकड़ा भी नहीं होता। भूमि, हल, बैल, बीज, खाद तथा सिंचाई सुविधाओं की व्यवस्था के लिए उसे समय पर वित्तीय साधनों की आवश्यकता होती है। ग्रामीण समुदाय की निर्धनता, कृषि उत्पादन की लम्बी प्रक्रिया और उसकी अनिश्चितता आदि तत्त्वों ने वित्त की समस्या को और भी जटिल बना दिया है। कृषि की प्रकृति ऐसी विचित्र है कि कृषक को केवल उत्पादक ऋणों की ही नहीं अपितु अनुत्पादक ऋणों की भी आवश्यकता होती है।

भारतीय कृषकों की साख संबंधी आवश्यकताएँ

सामान्य रूप से किसानों की साख संबंधी आवश्यकताएँ तीन प्रकार की होती हैं-
1. अल्पकालीन ऋण- ये ऋण प्रायः 15 माह की अवधि तक के होते हैं। ये ऋण मुख्यतः बीज, | खाद आदि के खरीदने तथा पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु लिए जाते हैं।
2. मध्यमकालीन ऋण- ये ऋण प्राय: 15 माह से अधिक परंतु 5 वर्ष से कम की अवधि हेतु लिए जाते हैं। इस प्रकार के ऋणों की आवश्यकता प्रायः पशु व कृषि उपकरणों को खरीदने, कुआँ खुदवाने व भूमि-सुधार के लिए पड़ती है।
3. दीर्घकालीन ऋण- इन ऋणों की अवधि प्रायः 6 वर्ष से 20 वर्ष तक की होती है। ये ऋण सामान्यतः पुराने कर्जा को चुकाने, भूमि खरीदने, ट्रैक्टर खरीदने, भूमि पर स्थायी सुधार करने आदि के लिए किसान प्राप्त करता है। जब से कृषि विकास की नई नीति को अपनाया गया है, देश में अल्पकालीन, मध्यमकालीन और दीर्घकालीन सभी प्रकार की साख में पर्याप्त वृद्धि हुई है।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में साख व्यवस्था

ग्रामीण क्षेत्रों में साख के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं
1. महाजन, साहूकार एवं देशी बैंक– महाजन एवं साहूकार कृषि के साथ-साथ लेन-देन का कार्य भी करते हैं। ये लोग कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए भी पैसा उधार देते हैं, किन्तु साख के इस स्रोत के अनेक दोष हैं जैसे—उसकी ब्याज दर ऊँची होती है, वह ब्याज मूलधन देने से पूर्व ही काट लेता है, अनेक प्रकार के खर्चे काट लिए जाते हैं। देशी बैंकर बैंकिंग एवं गैर-बैंकिंग दोनों ही प्रकार के कार्य सम्पन्न करते हैं। ये भी ऋणों पर ऊँची ब्याज दर वसूल करते
2. बहुसंस्था व्यस्था का विकास- ग्रामीण साख आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुसंस्था व्यवस्था का सहारा लिया गया है। इसमें निम्नलिखित संस्थाएँ सम्पिलित हैं

⦁    व्यापारिको बैंक- व्यापारिक बैंक कृषि विस्तार के लिए अल्पकालीन एवं मध्यमकालीन दोनों प्रकार के ऋण प्रदान करते हैं। अब इनकी अधिकांश शाखाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में ही खोली जा रही हैं। राष्ट्रीयकरण के उपरांत कृषि विकास के क्षेत्र में वाणिज्यिक बैंकों की प्रगति संतोषजनक रही है।
⦁    क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक- ग्रामीण क्षेत्रों के छोटे किसानों, सामान्य कारीगरों तथा भूमिहीन श्रमिकों की साख संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गई है।
⦁    सहकारी साख समितियाँ– सहकारी साख समितियों का प्रमुख उद्देश्य किसानों को साख प्रदान करना है। भारत में सहकारी साख व्यवस्था स्तूपाकार है–ग्रामीण स्तर पर सहकारी साख समितियाँ, जिला स्तर पर केन्द्रीय सहकारी समितियाँ तथा राज्य स्तर पर राज्य सहकारी बैंक। ये कृषि विकास के लिए कम ब्याज दर पर पर्याप्त साख सुविधाएँ प्रदान करती हैं।
⦁    भूमि बन्धक अथवा भूमि विकास बैंक—ये बैंक भूमि की जमानत पर किसानों को दीर्घकालीन ऋण देते हैं। भारत में राज्य स्तर पर केन्द्रीय भूमि बन्धक बैंकों की तथा जिला स्तर पर प्राथमिक भूमि बन्धक बैंकों की स्थापना की गई है।
⦁    नाबार्ड– सन् 1982 में सम्पूर्ण ग्रामीण वित्त के समन्वयन के लिए एक शीर्ष संस्थान-राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना की गई। नाबार्ड द्वारा दिए जाने वाले ऋणों के प्रमुख क्षेत्र हैं-लघु सिंचाई, भूमि विकास, कार्य यन्त्रीकरण, बागान, मुर्गीपालन, भेड़-पालन, सूअर पालन, मत्स्य पालन, दुग्धशालाओं का विकास व संग्रहण आदि।

⦁    स्वयं सहायता समूह- होल ही में ग्रामीण साख व्यवस्था में स्वयं सहायता समूहों का प्रादुर्भाव हुआ है। इसके अंतर्गत प्रत्येक सदस्य न्यूनतम अंशदान करता है। एकत्रित राशि में से जरूरतमंद सदस्यों को ऋण दिया जाता है। इस ऋण की राशि छोटी-छोटी किस्तों में लौटायी जाती है। ब्याज की दर भी उचित रखी जाती है। इसे अति लघु साख कार्यक्रम कहते हैं।



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