InterviewSolution
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‘कर्ण’ खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।या‘कर्ण’ खण्डकाव्य का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।या‘कर्ण’ खण्डकाव्य के कथानक पर प्रकाश डालिए। |
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Answer» श्री केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ द्वारा रचित ‘कर्ण’ नामक खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभक्त है। इसकी कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्ण के जीवन से सम्बद्ध है। प्रथम सर्ग (रंगशाला में कर्ण) में कर्ण के जन्म से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर तक की कथा का संक्षेप में वर्णन है। कुन्ती को; जब वह अविवाहित थी; सूर्य की आराधना के फलस्वरूप एक तेजस्वी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसने लोक-लाज और कुल की मर्यादा के भय से उस शिशु को नदी की धारा में बहा दिया। नि:सन्तान सारथी अधिरथ उस बालक को घर ले आया। उसके द्वारा पाले जाने के कारण वह ‘सूत-पुत्र कहलाया। एक दिन वह बालक राजभवन की रंगशाला में पहुँच गया। सूत-पुत्र होने के कारण वहाँ उसकी वीरता का उपहास किया गया और उसे सूत-पुत्र कहकर अपमानित किया। पाण्डवों से ईष्र्या रखने वाले दुर्योधन ने स्वार्थवश उसे प्रेम और सम्मान प्रदान किया। इससे कर्ण के आहत मन को कुछ धीरज एवं बल मिला।। द्रौपदी के स्वयंवर में जब कर्ण मत्स्य-वेध करने उठा, तब द्रौपदी ने भी हीन जाति का कहकर उसे अपमानित किया। इस प्रकार दूसरी बार एक नारी द्वारा अपमानित होकर भी वह मौन ही रहा, किन्तु क्रोध की चिंगारी उसके नेत्रों से फूटने लगी। द्वितीय सर्ग (द्युतसभा में द्रौपदी) में अर्जुन द्वारा मत्स्य-वेध से लेकर द्रौपदी के चीर-हरण तक का कथानक वर्णित है। द्रौपदी के स्वयंवर में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके द्रौपदी का वरण कर लिया। द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की वधू बनकर आ गयी। विदुर के समझाने-बुझाने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का आधा राज्य मिल गया। युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ में आमन्त्रित दुर्योधन को जल-स्थल का भ्रम हो गया। इस पर द्रौपदी ने व्यंग्य किया, जिस पर दुर्योधन क्षोभ से भर गया। तृतीय सर्ग (कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान) में दुर्योधन द्वारा वैष्णव-यज्ञ करने से लेकर, कर्ण द्वारा कवच-कुण्डल दान करने तक का कथानक है। दुर्योधन ने चक्रवर्ती सम्राट् का पद ग्रहण करने के लिए वैष्णव-यज्ञ किया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं जब तक अर्जुन को नहीं मार दूंगा, तब तक कोई भी याचक मुझसे जो कुछ भी माँगेगा, मैं वही दान दे दूंगा, मांस-मदिरा का सेवन नहीं करूंगा और अपने चरण भी नहीं धुलवाऊँगा। अर्जुन इन्द्र के पुत्र थे; अतः इन्द्र ब्राह्मण का वेश बनाकर कर्ण के पास गये और कवच-कुण्डल का दान माँगा।कर्ण ने इन्द्र की याचना पर जन्म से प्राप्त अपने दिव्य कवच-कुण्डल सहर्ष शरीर से काटकर दे दिये। ये ही कर्ण की जीवन-रक्षा के सुदृढ़ आधार थे। । | चतुर्थ सर्ग (श्रीकृष्ण और कर्ण) में श्रीकृष्ण द्वारा कौरव-पाण्डवों को समझौता कराने, समझौता न होने पर कर्ण को कौरव पक्ष से युद्ध न करने के लिए समझाने के असफल प्रयास का वर्णन है। श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से कौरवों की राजसभा में दूत के रूप में न्याय माँगने गये, किन्तु दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि युद्ध के अतिरिक्त अब और कोई रास्ता नहीं है। श्रीकृष्ण निराश होकर कर्ण को समझाते हैं कि तुम पाण्डवों के भाई हो; अतः अपने भाइयों के पक्ष का समर्थन करो। | कर्ण की आँखों में वेदना के आँसू उमड़ आये। वह बोला कि मुझे आज तक घृणा, अनादर और अपमान ही मिला है। आज अधिरथ मेरे पिता और राधा मेरी माँ हैं। इन्हें छोड़कर मैं कुन्ती को अपनी माँ के रूप में ग्रहण नहीं कर सकता। मैं मित्र दुर्योधन के प्रति कृतघ्न नहीं बन सकता। लेकिन आप यह बात कभी युधिष्ठिर से मत कहिएगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ, अन्यथा वे यह राज-पाट छोड़ देंगे। बहुत दिनों से मुझे एक आत्मग्लानि रही है कि द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई थी और मैंने ही वह दुष्कर्म कराया था। अतः इस शरीर को त्यागकर अपने इस दुष्कर्म का प्रायश्चित्त करूंगा। पञ्चम सर्ग (माँ-बेटा) में कुन्ती द्वारा कर्ण के पास जाने का वर्णन है। पाण्डवों के लिए चिन्तित कुन्ती बहुत सोच-विचारकर कर्ण के आश्रम पहुँचती है। कुन्ती के कुछ कहने से पहले ही कर्ण ने अपने जीवनभर की पीड़ा को साकार करते हुए अपने हृदय की ज्वाला माँ के सम्मुख स्पष्ट कर दी। षष्ठ सर्ग (कर्ण-वध) में महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से लेकर कर्ण की मृत्यु तक की कथा का वर्णन है। महाभारत का युद्ध आरम्भ हुआ। भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति बनाये गये। वे इस शर्त पर सेनापति बने कि वे कर्ण का सहयोग नहीं लेंगे। युद्ध के दसवें दिन घायल होकर शर-शय्या पर पड़ने के बाद कर्ण के भीष्म पितामह के पास पहुँचने पर उन्होंने उसको भर आँख निहारने की इच्छा प्रकट की तथा उसे दानवीर, धर्मवीर और महावीर बतलाया। भीष्म पितामह ने कहा कि तुम भी अर्जुन आदि की तरह कुन्ती के ही पुत्र हो। हमारी इच्छा यही है कि तुम पाण्डवों से मिल जाओ। कर्ण ने अपने को प्रतिज्ञाबद्ध बताते हुए ऐसा करने से मना कर दिया। उसने पितामह से कहा कि भले ही उस ओर कृष्ण हों, किन्तु अर्जुन को मारने हेतु मैं हर प्रयास करूंगा। यह सुनकर पितामह ने उसे अपने शस्त्रास्त्र उठाकर दुर्योधन का स्वप्न पूर्ण करने के लिए कहा। भीष्म के बाद द्रोणाचार्य को सेनापति नियुक्त किया गया। पन्द्रहवें दिन वे भी वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध के सोलहवें दिन कर्ण कौरव दल के सेनापति बने। उनकी भयंकर बाण-वर्षा से पाण्डव विचलित होने लगे, तभी भीम का पुत्र घटोत्कच भयंकर मायापूर्ण आकाश युद्ध करता हुआ कौरव सेना पर टूट पड़ा। कर्ण ने अमोघ-शक्ति का प्रहार कर घटोत्कच को मार डाला। इस अमोघ-शक्ति का प्रयोग वह केवल अर्जुन पर करना चाहता था। अचानक कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया। कर्ण रथ से उतरकर स्वयं पहिया निकालने लगा। तभी श्रीकृष्ण का आदेश पाते ही अर्जुन ने नि:शस्त्र कर्ण का बाण-प्रहार से वध कर दिया। सप्तम सर्ग (जलांजलि) में युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर द्वारा कर्ण को जलांजलि देने की कथा का वर्णन है। कर्ण के वीरगति प्राप्त करते ही कौरव सेना का मानो प्रदीप बुझ गया। वे शक्तिहीन हो गये। सेना अस्त-व्यस्त हो गयी। कर्ण के बाद शल्य और दुर्योधन भी मारे गये। युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को जलदान किया। तभी कुन्ती की ममता उमड़ पड़ी और उसने युधिष्ठिर से कर्ण को भाई के रूप में जलदान करने का आग्रह किया। युधिष्ठिर के द्वारा पूछने पर कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य प्रकट कर दिया। यह जानकर कि कर्ण उनके बड़े भाई थे, युधिष्ठिर का मन भर आया और वे बोले कि “माँ! वे हमारे अग्रज थे। कर्ण जैसे महामहिम, दानवीर, दृढ़प्रतिज्ञ, दृढ़-चरित्र, समर-धीर, अद्वितीय तेजयुक्त भाई को पाकर कौन धन्य नहीं होता। उन्होंने कठोर शब्दों में कहा कि “तुम्हारे द्वारा इस रहस्य को छिपाने के कारण ही वे जीवनभर अपमान का घूट पीते रहे।” युधिष्ठिर के हृदय की इस करुण व्यंजना के साथ ही खण्डकाव्य समाप्त हो जाता है। |
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