| Answer» कुपोषण-आहार में सभी अनिवार्य तत्त्व सम्मिलित होने पर भी यदि स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट हो रही हो तो इसे दोषपूर्ण पोषण अथवा कुपोषण कहते हैं। अतः कुपोषण का अर्थ है आहार का दोषपूर्ण उपभोग। उदाहरण के लिए-अरुचिपूर्ण आहार चाहे जितना भी पौष्टिक हो, पर्याप्त लाभकारी नहीं होता। इसी प्रकार अनिच्छापूर्वक व अनियमित रूप से आहार का उपयोग करना लाभप्रद न होकर अस्वस्थता को जन्म दे सकती है। कुपोषण को ठीक प्रकार से समझने के लिए सम्बन्धित कारणों को जानना आवश्यक है। कुपोषण के कारण कुपोषण की पृष्ठभूमि में अज्ञानता एवं लापरवाही से आहार के उपभोग करने का महत्त्वपूर्ण योगदान है, जिसे निम्नलिखित कारणों का अध्ययन कर भली प्रकार समझा जा सकता है (1) कार्य की अधिकता:अनेक बार हम कार्य अधिक करते हैं, परन्तु आहार कम मात्रा में लेते हैं। जिसके फलस्वरूप आहार के पर्याप्त पौष्टिक होने पर भी शरीर में धीरे-धीरे दुर्बलता आने लगती है।
 (2) निद्रा में कमी:उपयुक्त समय तक न सो पाने पर मानसिक व शारीरिक दोनों प्रकार की थकान रहती है। इस प्रकार के व्यक्ति प्रायः कुपोषण से प्रभावित रहते हैं।
 (3) अस्वस्थता:पाचन-क्रिया ठीक न रहने पर अथवा क्षयरोग से ग्रस्त व्यक्ति कुपोषण का शिकार रहते हैं। इसी प्रकार शारीरिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों पर सन्तुलित आहार का स्वास्थ्यवर्द्धक, प्रभाव नहीं पड़ती। पेट में कीड़े होने की दशा में भी व्यक्ति कुपोषण का शिकार हो जाता है।
 (4) घर एवं कार्यस्थल पर उपेक्षा:घर अथवा कार्य करने के स्थान पर उपेक्षित व्यक्ति मानसिक . हीनता का शिकार रहता है। इस स्थिति में भी कुपोषण के लक्षण विकसित हो सकते हैं।
 (5) अनुपयुक्त एवं अनियमित आहार:आयु, लिंग एवं व्यवसाय की दृष्टि से उपयुक्त आहार उपलब्ध न होने से तथा निश्चित समय पर आहार न करने से पोषण दोषपूर्ण हो जाता है।
 (6) गरिष्ठ आहार:अधिक तला हुआ अथवा कब्ज़ उत्पन्न करने वाला आहार शरीर को वांछित शक्ति प्रदान नहीं करती।
 कुपोषण के लक्षण (प्रभाव)कुपोषण के फलस्वरूप शरीर में निम्नलिखित लक्षण (प्रभाव) दिखाई पड़ सकते हैं
 आहार से अरुचि उत्पन्न हो जाती है।शारीरिक भार घट जाता है।स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है तथा निद्रा कम आती है।हर समय थकान अनुभव होती है।चेहरा पीला हो जाता है तथा रक्त की कमी हो जाती है।शरीर पर चर्बी के अभाव में त्वचा में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं।पाचन-क्रिया में विकार उत्पन्न हो जाते हैं।मनुष्य हीनता से ग्रसित हो जाता है।
 कुपोषण से बचने के उपाय कुपोषण से बचने के लिए पोषण के दोषपूर्ण तरीकों को दूर करने के उपायों पर विचार करना आवश्यक है। कुपोषण का विलोम शब्द है ‘सुपोषण’ अर्थात् अच्छा पोषण आहार के विभिन्न पोषक तत्त्वों, का उपयुक्त मात्रा में शरीर को उपलब्ध होना तथा उनका सही पाचन सुपोषण कहलाता है। सुपोषण के सामान्य नियमों का पालन करना ही कुपोषण से बचने का एकमात्र विकल्प है। सुपोषण के सामान्य नियमों का विवरण निम्नलिखित है (1) ताजा एवं सुपाच्य आहार:सदैव ताजा आहार ही उपयोग में लाना चाहिए, क्योंकि रखे हुए आहार में प्रायः जीवाणुओं एवं फफूद के पनपने की सम्भावना रहती है। आहार पौष्टिक तत्त्वों से युक्त होने के साथ-साथ सुपाच्य भी होना चाहिए। सुपाच्य आहार सरलता से शोषित होकर शरीर को आवश्यक शक्ति एवं ऊर्जा प्रदान करता है।
 (2) परोसने की कला:आहार उपयुक्त स्थान पर स्वच्छ बर्तनों में परोसना चाहिए; इससे आहार ग्रहण करने वालों में आहार के प्रति आकर्षण एवं रुचि उत्पन्न होती है।
 (3) पदार्थों एवं रंगों में परिवर्तन:विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों (मांस, मछली, दाल, तरकारी आदि) को बदल-बदल कर उपयोग करने से शरीर को आहार के सभी तत्त्व वांछित अनुपात में उपलब्ध होते रहते हैं। रंग-बिरंगे भोज्य पदार्थ अच्छे लगने के साथ-साथ पौष्टिक भी होते हैं। जैसे–सफेद भोज्य पदार्थों में प्राय: कार्बोहाइड्रेट्स, भूरे रंग के पदार्थों में प्रोटीन तथा पीले, नारंगी, लाल व हरे पदार्थो । में विटामिन व खनिज लवण पाए जाते हैं।
 (4) आहार को नियमित समय:प्रात:कालीन नाश्ता, दोपहर का आहार तथा रात्रि का आहार इत्यादि यथासम्भव नियमित रूप से निर्धारित समय पर करना चाहिए। ऐसा करने से आहार स्वादिष्ट लगता है तथा पाचन-क्रिया ठीक रहती है।
 (5) जल की मात्रा:आहार के साथ अधिक जल नहीं पीना चाहिए, क्योंकि इसमें आहार अधिक पतला हो जाने के कारण पाचन क्रिया कुप्रभावित होती है।
 (6) आहार पकाने की विधि:आहार पकाते समय सही विधियों का प्रयोग करना चाहिए। अधिक पकाने अथवा ठीक प्रकार से न पकाने से आहार के पौष्टिक तत्त्वों के नष्ट होने की सम्भावना रहती है। आवश्यकता से अधिक मसालों का प्रयोग पाचन क्रिया को क्षीण करता है।
 (7) यथायोग्य आहार:आहार देते समय लेने वालों की आयु, लिंग व व्यवसाय का ध्यान रखना चाहिए। उदाहरण के लिए अधिक परिश्रम करने वाले व्यक्ति को अधिक पौष्टिक आहार मिलना चाहिए।
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