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| 1. | कविता का सरल अर्थ :(1) युधिष्ठिर : प्रश्न और …… कैसा निष्कर्ष।।(2) अर्जुन पूछते हैं – कौन-सा निर्णय!युधिष्ठिर : वस्तुओं …… संकल्प कहते हो?(3) ये दुर्ग, प्रासाद …… पर पार्थ!(4) कभी उन ……… बाध्य हो जाते हैं।(5) सव्यसाची ……. कौन उत्तरदायी होगा?(6) आज, नहीं तो कल ……… राजकोष बढ़ाया।(7) पार्थ, हमारे …….. अधिक गहरा है। | 
| Answer» (1) युधिष्ठिर : प्रश्न और …… कैसा निष्कर्ष।। युधिष्ठिर अर्जुन से कहते हैं – प्रश्न और किसी चीज के बारे में जानने की इच्छा यानी जिज्ञासा का अंतर तुम समझते हो पार्थं? फिर वे स्वयं बताते हैं कि सत्य की जानकारी दूसरे से प्रश्न करके नहीं की जा सकती। खुद से इसे जानने की कोशिश करनी चाहिए। वे कहते हैं, चाहे सुख का समय रहा हो या दुःख का, मुझे सदा जिज्ञासा हुई है। मैंने राज्य का त्याग कर दिया, इससे तुम लोगों को बुरा अवश्य लगा होगा। वे कहते हैं कि मैंने राज्य को त्यागकर केवल शास्त्र-व्यवस्था के कारण ही वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार नहीं किया था। बल्कि यह निर्णय मैंने बहुत सोच-विचारकर लिया था। (2) अर्जुन पूछते हैं – कौन-सा निर्णय! युधिष्ठिर : वस्तुओं …… संकल्प कहते हो? युधिष्ठिर कहते हैं कि वस्तुओं से रहित होना ही व्यक्तित्व से सम्पन्न होने की निशानी है। हे पार्थ! युद्ध, राज्य, सामाज्य, सम्पत्ति, सम्बन्ध आदि सबकी सीमाएं हैं। ये सारी चीजें षड़यंत्र हैं। इन्हें कोई व्यक्ति अपने चारों ओर गूंथ लेता है। इसके बाद वह फिर कभी इस सफलता रूपी घेरे से बाहर नहीं निकलना चाहता। इसके बाद एक दिन ऐसा आता है, जब वह इन वस्तुओं और सफलताओं के नाम से हो जाना जाने लगता है। और पार्थ! वस्तुओं और सफलताओं के बल पर अमर हो जाने को ही तो तुम पुरुषार्थ और पक्का इरादा कहते हो! (3) ये दुर्ग, प्रासाद …… पर पार्थ! पार्थ! ये किले, ये विशाल भवन, किसी की याद में बनाए गए ये महल, चारणों द्वारा किए गए स्तुतिगान और झूठे इतिहासवाले शिलालेख क्या व्यक्ति को अमर बना सकते हैं? हे पार्थ! जो जड़ है, जिसमें चेतना नहीं है, वह जड़ का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। वह प्राणयुक्त अर्थात् चेतन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। पार्थ! तुम्हें बार-बार यह सोचकर कष्ट होता है कि तुम्हें अपमान सहना पड़ा है। तुम्हारे अपनेपन पर प्रहार किया गया है। न्याय पाने के लिए तुम्हें संघर्ष करना पड़ा है। इन चीजों से तुम्हें कष्ट होता है। पर हे पार्थ! (4) कभी उन ……… बाध्य हो जाते हैं। हे अर्जुन, तुम उन सामान्य लोगों के बारे में तो सोचो, जिन्हें विचार करने लायक ही नहीं छोड़ा गया है, जिन्हें सदा अपमान सहते रहना पड़ता है, जिनके अपनेपन को छीन लेनेवाले हमारे जगमगाते हुए साम्राज्य हैं। ये साधारण लोग अन्याय सहने के अभ्यस्त हो गए हैं। इन्हें यह पता नहीं है कि न्याय नाम की भी कोई चीज होती है। प्रत्येक युद्ध के पश्चात एक राज्य का निर्माण होता है, पर इस युद्ध में अनेक लोग मारे जाते हैं, जिससे अनेक स्त्रियाँ विधवा हो जाती हैं और अनेक बच्चे अनाथ हो जाते हैं। वे बेचारे जीवन के संघर्ष में दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश हो जाते हैं। (5) सव्यसाची ……. कौन उत्तरदायी होगा? युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि हे सव्यसाची ! तुम्हारे कृष्ण ने ही यह बात कही थी कि जब कोई युद्ध होता है, तो उसके बाद समाज में विकृति आती है, वर्णसंकरता की वृद्धि होती है। हे अर्जुन! क्या तुम उस दिन की कल्पना कर सकते हो, जब युद्ध के परिणाम स्वरूप इस धरती पर चारों ओर कुल-गोत्र का नामोनिशान मिट जाएगा और सर्वत्र वर्णसंकरता का बोलबाला होगा। हे पार्थ, सोचो, उस समय इस ऐतिहासिक विद्रूपता का जिम्मेदार कौन होगा? कौन होगा इस स्थिति का जिम्मेदार! (6) आज, नहीं तो कल ……… राजकोष बढ़ाया। हे अर्जुन, आनेवाले दिनों में ये राज्य राजा से भी ज्यादा निष्ठुर हो जाएंगे। और ज्यों-ज्यों समय बीतता जाएगा दूर भविष्य में राज्य की व्यवस्थाएं राज्य से भी ज्यादा अमानवीय हो जाएंगी (अत्याचार बढ़ जाएगा)। युद्ध और आतंक राज्य-व्यवस्थाओं के मूलभूत स्तंभ हैं। इनका जन्म मनुष्य की प्राचीन प्रवृत्तियों से हुआ है। एक दिन ऐसा आएगा, जब युद्ध और आतंक को ही सामाजिकता माना जाने लगेगा। अर्जुन, हमने कौरवों से युद्ध करके उन्हें हराया और तुमने आतंक के द्वारा पांडवों के साम्राज्य के खजाने में वृद्धि की। (7) पार्थ, हमारे …….. अधिक गहरा है। युधिष्ठिर अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! हमने जो अमानुषिक कार्य किए, उनके ऐतिहासिक निचोड़ ये निकले कि अर्जुन से श्रेष्ठ कोई वीर नहीं है और युधिष्ठिर ही एकमात्र चक्रवर्ती सम्राट हैं। हे अर्जुन, मनुष्यता अंधकार के गर्त में जा रही है। अर्जुन, तुम्हें इस बात का अंदाजा नहीं है कि संकट और गहरा हो गया है। | |