1.

मनुष्य जाति के इतिहास में कोई ऐसा काल ही नहीं हुआ, जब सुधारों की आवश्यकता न हुई हो। तभी तो आज तक कितने ही सुधारक हो गये हैं। पर सुधारों का अन्त कब हुआ? भारत के इतिहास में बुद्धदेव, महावीर स्वामी, नागार्जुन, शंकराचार्य, कबीर, नानक, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द और महात्मा गाँधी में ही सुधारकों की गणना समाप्त नहीं होती। सुधारकों का दल नगर-नगर और गाँव-गाँव में होता है। यह सच है कि जीवन में नये-नये क्षेत्र उत्पन्न होते जाते हैं और नये-नये सुधार हो जाते हैं। न दोषों का अन्त है और न सुधारों का। जो कभी सुधार थे, वही आज दोष हो गये हैं और उन सुधारों का फिर नव सुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना गया है।(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।(स)⦁    मनुष्य जाति के इतिहास में कब सुधारों की आवश्यकता नहीं हुई? कुछ प्रमुख सुधारकों के नाम लिखिए।⦁    “प्रत्येक वस्तु, पदार्थ, विचार परिवर्तनशील हैं’, इस सत्य का वर्णन करते हुए एक वाक्य लिखिए।⦁    जीवन प्रगतिशील क्यों माना गया है?

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(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित तथा श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा लिखित ‘क्या लिखें ?’ शीर्षक ललित निबन्ध से उद्धृत है।
अथवा निम्नवत् लिखें-
पाठ का नाम क्या लिखें? लेखक का नाम-श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी।

(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक का कथन है कि मानव-समाज विस्तृत है। इसमें सदैव सुधार होते रहते हैं। बुद्ध से गाँधी तक सुधारकों के एक बड़े समूह का जन्म इस देश में हुआ है। जीवन में दोषों की श्रृंखला बहुत लम्बी होती है। इसीलिए सुधारों का क्रम सदैव चलता रहता है। सुधारकों के दल प्रत्येक नगर और ग्राम में होते हैं। जीवन में अनेकानेक क्षेत्र होते हैं और नित नवीन उत्पन्न भी होते जाते हैं। प्रत्येक में कुछ दोष होते हैं, जिनमें सुधार अवश्यम्भावी होता है। सुधार किये जाने पर इनमें तात्कालिक सुधार तो हो जाता है परन्तु आगे चलकर कालक्रम में वे ही सुधार फिर दोष माने जाने लगते हैं और  उनमें फिर से सुधार किये जाने की आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। इसी सुधारक्रम और परिवर्तनशीलता से जीवन प्रगतिशील मना गया है।

(स)
⦁    मनुष्य जाति के इतिहास में ऐसा कोई समय ही नहीं आया, जब सुधारों की आवश्यकता नहीं हुई। आशय यह है कि मनुष्य जाति के इतिहास में सदैव ही सुधारों की आवश्यकता होती रही है और होती रहेगी। कुछ प्रमुख समाज-सुधारकों के नाम हैं—गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, नागार्जुन आदि शंकराचार्य, कबीरदास, गुरु नानकदेव, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे आदि।।
⦁    “प्रत्येक वस्तु, पदार्थ, विचार परिवर्तनशील हैं’, इस सत्य का वर्णन करते हुए हम एक वाक्य लिख सकते हैं कि, “परिवर्तन प्रकृति का नियम है। मात्र परिवर्तन के अतिरिक्त सम्पूर्ण सृष्टि परिवर्तनशील है।”
⦁    न दोषों का अन्त है और न सुधारों का। जो कभी सुधार थे, वही आज दोष हो गये हैं और उन सुधारों को फिर नव सुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना गया है।



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