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मनुष्य के भय की वासना की परिहार कैसे होता है?

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किसी भावी आपत्ति अथवा दु:ख के कारण के साक्षात्कार से मनुष्य के मन में भय का भाव उत्पन्न होता है। आरम्भ से ही वह अपने आस-पास दु:खपूर्ण वातावरण फैला देखता है। उस दु:ख से बचने के उपाय का ज्ञान न होने से उसमें भय पैदा हो जाता है। जब बच्चा छोटा होता है तो वह सभी से डरता है। वह किसी अपरिचित को देखकर घर में घुस जाता है। पहली बार सामने आने वाले व्यक्ति तथा अज्ञात वस्तुओं के प्रति उसके मन में भय की ही भावना रहती है।

मनुष्य के मन से इस भय के भाव का निवारण धीरे-धीरे ही होता है। शारीरिक शक्ति बढ़ने के साथ ही उसका आत्मबल बढ़ता है। शनै: शनै: उसका ज्ञान बल भी बढ़ता है। इनकी वृद्धि होने पर उसके मन से दु:ख की छाया हटती जाती है तथा दु:ख के कारण निवारणीय बन जाते हैं तथा उसके प्रति भय का जो भाव उसके मन में था, वह दूर हो जाता है। सभ्यता के विकास से भी भय का परिहार होता है। वैसे भी भय मनुष्य की शक्तिहीनता तथा अक्षमता का परिणाम होता है। शरीर बल तथा ज्ञान बल की वृद्धि होने पर कोई कष्ट अथवा दु:ख अनिवार्य नहीं रह जाता तथा मनुष्य उससे मुक्त होने का उपाय जान जाता है। ऐसी अवस्था में उस कारण से उत्पन्न भय भी उसके मन से दूर हो जाता है। उदाहरणार्थ, पहले मनुष्य भूतों और पशुओं से डरता था। किन्तु अब सभ्यता के विकास के साथ उसका ज्ञान बढ़ गया है और वह अब इनसे नहीं डरता।



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