InterviewSolution
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राजकोष और करनीति से सम्बन्धित कौटिल्य के विचारों को विस्तार से समझाइए । |
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Answer» कौटिल्य का चिंतन ‘अर्थ’ पर आधारित है । उनके अनुसार सत्ता की चाबी ‘अर्थ’ ही है । मनुष्य का निर्वाह ‘अर्थ’ पर आधारित है । कौटिल्य मानते थे कि मनुष्य बिना साधन के श्रम द्वारा अर्थ प्राप्त कर सकता है । जैसे-जैसे श्रम की उत्पादकता बढ़ेगी, वैसे-वैसे साधनों का भी विकास होगा । इसलिए वे मानवसर्जित श्रम को वास्तविक अर्थ कहते हैं । इस संदर्भ में कौटिल्य का अर्थशास्त्र अर्थात् ‘मनुष्य की वृत्ति अर्थ है, मनुष्य के निवासवाली भूमि अर्थ है । ऐसी पृथ्वी के लाभ, मरम्मत, निभाव खर्च, पशु-पालन के उपायों को दर्शानेवाला शास्त्र अर्थात् अर्थशास्त्र ।’ कौटिल्य ने देश और समय के अनुरूप आर्थिक विचार प्रस्तुत किया है । उनमें से राजकाप और कर नीति की चर्चा यहाँ करेंगे : (1) राजकोष : कौटिल्य ने राज्य की समृद्धि और सुरक्षा के लिए जो उपाय और साधन बताये हैं उनमें राजकोष का महत्त्वपूर्ण स्थान है । राज्य का संगठन, समृद्धि, स्थिरता और संचालन राजकोष पर आधारित है । इसलिए सर्वप्रथम राजा को राजकोष का ध्यान रखकर बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए । कौटिल्य ने राज्य की आय के सात स्रोत दर्शाये है जिसमें (1) नगर (2) ग्राम (3) सिंचाई (4) खान (5) जंगल (6) पशुपालन (7) व्यापार-वाणिज्य का समावेश होता है । उन्होंने कहा राजा को वर्ष में एक बार ही कर लेना चाहिए । इसे उघराने के लिए प्रजा पर जोर-जबरदस्ती के बिना राजकोष को बढ़ाना चाहिए । अकाल-बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा में करवसूली में कठोरता नहीं करनी चाहिए । कौटिल्य ने राजकोष को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक संपत्ति, कीमती उपहार, दंड, व्यापार वृद्धि और विपुल धान्य उत्पादन बढ़ाने के उपाय सूचित किए । राजकोष के लिए गोदामों की व्यवस्था करके संग्रह करके उसे प्रजा कल्याण के लिए खर्च करना चाहिए । किस के पास से कितना कर लेना चाहिए इस व्यवस्था का उल्लेख भी कौटिल्य ने किया है जैसे : अनाज उत्पन्न करनेवाले किसान से उत्पादन का चौथा भाग, वन्य, कपास, उन, रेशम, लाख, दवा जैसी वस्तु के उत्पादन का आधा भाग, इसी प्रकार व्यवसाय में कर वसूली की स्पष्टता की है । कौटिल्य का कल्याणलक्षी विचार आज भी प्रजा के कल्याणलक्षी कार्यों के लिए उपयोगी है । (2) कर नीति : कर नीति के सम्बन्ध में कौटिल्य ने निश्चित सिद्धांत प्रस्तुत किये हैं । जिसमें राजा के लिए कर मर्यादा, अल्पकालीन और दीर्घकालीन कर नीति बातों की स्पष्टता देखने को मिलती है । आकस्मिक परिस्थिति में कर की दर ऊँची ले जाने की व्यवस्था भी दर्शायी है । जैसे बगीचा में फल के पेड़ पर से पके फलों को तोड़कर एकत्रित किया जाता है । उसी प्रकार राज्य को भी प्रजा की शक्ति और स्थिति का विचार करके कर लेना चाहिए । कर प्रजा पर भाररूप नहीं होना चाहिए । इस संदर्भ में कौटिल्य ने निम्नानुसार कर ढाँचे के नियम प्रस्तुत किये हैं : (i) भूमि कर : राज्य को कृषि उत्पादन का निश्चित भाग किसान या मालिक के पास से भूमि कर लेने का अधिकार था । जमीन का प्रकार जमीन की उत्पादकता, कृषि उत्पादन का स्वरूप, सिंचाई का प्रकार और सुविधाएँ आदि पहलूओं को ध्यान में रखकर कौटिल्य ने भूमि कर का प्रमाण निश्चित करने के नियम दिये और राज्य ने किसानों को कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए कर में छूट देने की भी सिफारिश की । (ii) आयात-निर्यात कर : कौटिल्य ने आयात-निर्यात कर संदर्भ में वस्तुओं को तीन भागों में बाँटकर कर व्यवस्था सूचित की जैसे -
अंत में कौटिल्य ने वस्तु के प्रकार और महत्त्व के आधार पर कर लेने के नियम दर्शाये हैं । जकात (चुंगी) के लिए जकातनाका खड़े करना और मार्ग कर और संपत्ति कर के नियम भी प्रस्तुत किये हैं । |
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