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राज्यसभा के संगठन तथा शक्तियों की विवेचना कीजिए।याराज्यसभा के कार्यों एवं शक्तियों को स्पष्ट कीजिए।याराज्यसभा के संगठन तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।याराज्यसभा के संगठन तथा कार्यों की समीक्षा कीजिए। सिद्ध कीजिए कि लोकसभा की तुलना में राज्यसभा एक कमजोर एवं शक्तिहीन सदन है?

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राज्यसभा – संसद के तीन घटक होते हैं-(1) राष्ट्रपति, (2) लोकसभा तथा (3) राज्यसभा। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों को मिलाकर बनेगी, जिनके नाम राज्यसभा और लोकसभा होंगे। इससे स्पष्ट है कि भारत में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। उच्च सदन को राज्यसभा और निम्न सदन को लोकसभा के नाम से पुकारा जाता है। लोकसभा समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करती है और राज्यसभा राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है। दोनों सदनों को सम्मिलित रूप से संसद कहा जाता है। राज्यसभा के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन इस प्रकार है –

राज्यसभा की संरचना – राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसका कभी विघटन नहीं होता। राज्यसभा में संघ के इकाई राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 80 में स्पष्ट लिखा है कि राज्यसभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य होंगे जिनमें अधिक-से-अधिक 238 सदस्य राज्यों की ओर से निर्वाचित होंगे और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करेगा। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 12 सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, समाज-सेवा या सहकारिता के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव तथा ख्याति प्राप्त व्यक्ति होंगे। इस समय राज्यसभा में कुल सदस्य 245 हैं, जिनमें से 233 राज्यों तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये हैं।
चुनाव – राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होता है। इस निर्वाचन की दृष्टि से भारतीय संघ के राज्य दो श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं – (1) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ हैं तथा (2) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, वरन् वे केन्द्र द्वारा शासित हैं। जिन राज्यों में विधानसभाएँ हैं, वहाँ विधानसभाओं के सदस्य अपने राज्य के प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। यह चुनाव आनुपातिक पद्धति से एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के द्वारा होता है। वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, उनमें प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने का ढंग संसद कानून द्वारा निर्धारित करती
सदस्यों की योग्यताएँ –
⦁    वह भारत का नागरिक हो।
⦁    वह 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
⦁    वह वे सभी योग्यताएँ रखता हो जो संसद द्वारा निश्चित की गयी हों।
⦁    वह उस राज्य का निवासी हो जहाँ से वह निर्वाचित होना चाहता है।
कार्यकाल – राज्यसभा एक स्थायी सदन है, परन्तु उसके सदस्यों में से एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करते रहते हैं। इस प्रकार सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है।
गणपूर्ति या कोरम – राज्यसभा की गणपूर्ति या कोरम, समस्त सदस्य-संख्या का 10वाँ भाग होता है। किसी भी कार्यवाही के लिए कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग सदन में उपस्थित होना आवश्यक
राज्यसभा का सभापति – भारत का ‘उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी एक को उपसभापति चुनती है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति राज्यसभा की बैठकों का सभापतित्व करता है और सभापति के कर्तव्यों का पालन करता है। सभापति तथा उपसभापति के वेतन, भत्ते संसद द्वारा निश्चित किये जाते हैं। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति ही सभापति का आसन ग्रहण करता है। राज्यसभा का सभापति सदन की बैठकों का सभापतित्व करता है, सभा में व्यवस्था बनाये रखता है, प्रश्नों पर अपना निर्णय देता है तथा मतदान की। निर्णय घोषित करना आदि कार्य सम्पन्न करता है। वर्तमान समय में राज्यसभा के सभापति श्री एम० वेंकैया नायडू हैं और उपसभापति प्रो० पी० जे० कुरियन हैं।

राज्यसभा के कार्य एवं अधिकार

राज्यसभा के अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में स्पष्ट किया जा सकता है –
(1) विधायिनी अधिकार – राज्यसभा में धन सम्बन्धी विधेयक को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार का विधेयक लोकसभा से पहले भी प्रस्तुत किया जा सकता है। धन सम्बन्धी विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। कोई भी प्रस्ताव संसद द्वारा तब तक पारित नहीं समझा जा सकता और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए तब तक नहीं भेजा जा सकता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् पारित न हो जाए। यदि किसी प्रस्ताव पर दोनों सदनों में मतभेद पैदा हो जाए तो राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार रखता है और उसे प्रस्ताव को उसके सामने रखा जाता है। संयुक्त बैठक में प्रस्ताव पर हुआ निर्णय दोनों सदनों का सामूहिक निर्णय समझा जाता है और यदि वह पारित हो जाए तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है।
(2) वित्तीय अधिकार – जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि धन सम्बन्धी विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। राज्यसभा की वित्तीय शक्तियाँ लोकसभा की अपेक्षा बहुत कम हैं। वित्तीय विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में आते हैं। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को 14 दिन तक पारित होने से रोक सकती है। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को चाहे रद्द कर दे, या उसमें परिवर्तन कर दे, या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, इन दशाओं में वह विधेयक राज्यसभा से पारित समझा जाएगा। यह लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह राज्यसभा की संस्तुतियों को माने या न माने। जिस रूप में लोकसभा ने विधेयक पारित किया था वह विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है।
(3) शासकीय अधिकार – राज्यसभा की कार्यकारी शक्तियाँ बहुत सीमित हैं। यद्यपि राज्यसभा के सदस्य भी मंत्रिमण्डल में शामिल किये जाते हैं फिर भी मंत्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए केवल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है, राज्यसभा के सदस्य प्रश्नों, काम रोको प्रस्तावों और वाद-विवादों के द्वारा मंत्रिमण्डल पर अपना नियन्त्रण रखते हैं, परन्तु इस सबके बावजूद भी कार्यपालिका पर राज्यसभा का वास्तविक नियन्त्रण नहीं है। राज्यसभा को मंत्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे हटाने का कोई अधिकार नहीं है।
(4) संविधान संशोधन सम्बन्धी अधिकार – राज्यसभा को संविधान में संशोधन करने का अधिकार लोकसभा की तरह ही प्राप्त है। संविधान संशोधन सम्बन्धी विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत हो सकता है, अर्थात् संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव राज्यसभा में भी प्रस्तावित किया जा सकता है। संशोधन प्रस्ताव उस समय तक पारित नहीं समझा जाता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् बहुमत से पारित न हो जाए। इस प्रकार संशोधन प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में मतभेद होने पर वह पारित नहीं हो पाएगा।
(5) विविध अधिकार –
⦁    राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं, किन्तु मनोनीत सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त नहीं होता।
⦁    राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग लगाने और उसकी जाँच करने तथा उसके बारे में निर्णय देने का अधिकार राज्यसभा को है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस मामले में राज्यसभा को उतने ही अधिकार हैं जितने कि लोकसभा को।
⦁    उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को उसी समय पदच्युत किया जा सकता है, जब लोकसभा की तरह राज्यसभा भी उनको हटाये जाने के लिए प्रस्ताव पारित करे।
⦁    राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व को घोषित करके संसद को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
⦁    राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर निकाली गयी घोषणा को जारी करने के लिए लोकसभा की तरह राज्यसभा को भी अर्थात् दोनों सदनों के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।

निष्कर्ष – राज्यसभा की शक्तियों और कार्यों से यह स्पष्ट है कि लोकसभा की अपेक्षा राज्यसभा शक्तिहीन सदन सिद्ध होता है, परन्तु फिर भी इस सदन के पास इतनी शक्तियाँ हैं कि यह एक आदर्श सदन कहीं जा सकता है। इसकी अपनी पृथक् गरिमा है। लोकसभा के भंग होने की स्थिति में तो यह सदन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगाता है। इसे किसी भी प्रकार अनावश्यक सदन नहीं कहा जा सकता। राज्यसभा की उपयोगिता के विषय में श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने कहा था, “संविधान-निर्माताओं का राज्यसभा की रचना का उद्देश्य यह था कि यह सदन महत्त्वपूर्ण विषयों पर वाद-विवाद करे और उन विधेयकों को पारित करने में देरी करे जो लोकसभा में शीघ्रता से पारित कर दिये जाते हैं।”



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