

InterviewSolution
1. |
‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) का संक्षेप में परिचय लिखिए। या‘रश्मिरथी’ की कथा (सारांश) अपने शब्दों में लिखिए।या‘रश्मिरथी’ के प्रथम सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। या‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। या‘रश्मिरथी’ के तृतीय सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए। या‘रश्मिरथी’ के द्वितीय और तृतीय सर्ग में कृष्ण और कर्ण के संवाद में दोनों के चरित्र की कौन-सी प्रमुख विशेषताएँ प्रकट हुई हैं ? स्पष्ट कीजिए।या‘रश्मिरथी’ के चतुर्थ सर्ग की कथावस्तु का संक्षेप में सोदाहरण वर्णन कीजिए।या‘रश्मिरथी’ के पंचम सर्ग में कुन्ती-कर्ण के संवाद का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। या‘रश्मिरथी’ के पाँचवें (पंचम) सर्ग की कथा (कथावस्तु) अपने शब्दों में लिखिए। या‘रश्मिरथी’ के आधार पर उसके प्रथम और द्वितीय सर्गों की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए।या‘रश्मिरथी’ के आधार पर सप्तम सर्ग (कर्ण के बलिदान) की कथा संक्षेप में लिखिए। या‘रश्मिरथी’ में वर्णित कर्ण और अर्जुन के युद्ध का सोदाहरण वर्णन कीजिए। |
Answer» श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा विरचित खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ की कथा महाभारत से ली गयी है। इस काव्य में परमवीर एवं दानी कर्ण की कथा है। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित है, जो संक्षेप में निम्नवत् है- प्रथम सर्ग : कर्ण का शौर्य-प्रदर्शन प्रथम सर्ग के आरम्भ में कवि ने अग्नि के समान तेजस्वी एवं पवित्र पुरुषों की पृष्ठभूमि बनाकर कर्ण का परिचय दिया है। कर्ण की माता कुन्ती और पिता सूर्य थे। कर्ण कुन्ती के गर्भ से कौमार्यावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसलिए कुन्ती ने लोकलाज के भय से उस नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे एक निम्न जाति (सूत) के व्यक्ति ने पकड़ लिया और उसका पालन-पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और शस्त्र व शास्त्र मर्मज्ञ बने। एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव व पाण्डव राजकुमारों के शस्त्र-कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी लोग अर्जुन की बाण-विद्या पर मुग्ध हो गये, किन्तु तभी धनुष-बाण लिये कर्ण भी सभा में उपस्थित हो गया और उसने अर्जुन को द्वन्द्व-युद्ध के लिए चुनौती दी आँख खोलकर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार । कर्ण की इस चुनौती से सम्पूर्ण सभा आश्चर्यचकित रह गयी, तभी कृपाचार्य ने उसका नाम, जाति और गोत्र पूछे। इस पर कर्ण ने अपने को सूत-पुत्र बतलाया। फिर कृपाचार्य ने कहा कि राजपुत्र अर्जुन से समता प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले कहीं का राज्य प्राप्त करना चाहिए। इस पर दुर्योधन ने कर्ण की वीरता से मुग्ध होकर, उसे अंगदेश का राजा बना दिया और अपना मुकुट उतारकर कर्ण के सिर पर रख दिया। इस उपकार के बदले भावविह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन गया। इधर कौरव कर्ण को ससम्मान अपने साथ ले जाते हैं और उधर कुन्ती भाग्य की दु:खद विडम्बना पर मन मसोसती लड़खड़ाती हुई अपने रथ के पास पहुँचती है। द्वितीय सर्ग : आश्रमवास द्वितीय सर्ग का आरम्भ परशुराम के आश्रम-वर्णन से होता है। पाण्डवों के विरोध के कारण द्रोणाचार्य ने जब कर्ण को अपना शिष्य नहीं बनाया तो कर्ण परशुराम के आश्रम में धनुर्विद्या सीखने के लिए जाता है। परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते थे। कर्ण के कवच और कुण्डल देखकर परशुराम ने उसे ब्राह्मण कुमार समझा और अपना शिष्य बना लिया। एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे कि तभी एक विषैला कीट कर्ण की जंघा को काटने लगा। गुरु की निद्रा न खुल जाए, इस कारण कर्ण अपने स्थान से हिला तक नहीं। जंघा से बहते रक्त की धारा के स्पर्श से परशुराम की निद्रा टूट गयी। कर्ण की इस अद्भुत सहनशक्ति को देखकर परशुराम ने कहा कि ब्राह्मण में इतनी सहनशक्ति नहीं होती, इसलिए तू अवश्य ही क्षत्रिय या अन्य जाति का है। कर्ण स्वीकार कर लेता है कि मैं सूत-पुत्र हूँ। क्रुद्ध परशुराम ने उसे तुरन्त अपने आश्रम से चले जाने को कहा और शाप दिया कि मैंने तुझे जो ब्रह्मास्त्र विद्या सिखलायी है, तू अन्त समय में उसे भूल जाएगा- सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आएगा। कर्ण गुरु की चरणधूलि लेकर आँसू भरे नेत्रों से आश्रम छोड़कर चल देता है। तृतीय सर्ग : कृष्ण सन्देश कौरवों से जुए में हारने के कारण पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास तथा एक साल का अज्ञातवास भोगना पड़ा। तेरह वर्ष की यह अवधि व्यतीत कर पाण्डव अपने नगर इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं। पाण्डवों की ओर से श्रीकृष्ण कौरवों से सन्धि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाते हैं। श्रीकृष्ण ने कौरवों को बहुत समझाया, परन्तु दुर्योधन ने सन्धि- प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा उल्टे श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने का असफल प्रयास किया। दुर्योधन के न मानने पर श्रीकृष्ण ने कर्ण को समझाया कि अब तो युद्ध निश्चित है, परन्तु उसे टालने का एकमात्र यही उपाय है कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो; क्योंकि तुम कुन्ती-पुत्र हो। अब तुम ही इस । भारी विनाश को रोक सकते हो। इस पर कर्ण आहत होकर व्यंग्यपूर्वक पूछता है कि आप आज मुझे कुन्ती–पुत्र बताते हैं। उस दिन क्यों नहीं कहा था, जब मैं जाति-गोत्रहीन सूत-पुत्र बना भरी सभा में अपमानित हुआ था। मुझे स्नेह और सम्मान तो दुर्योधन ने ही दिया था। मेरा तो रोम-रोम दुर्योधन का ऋणी है। फिर भी आप मेरे जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को मत बताइएगा; क्योंकि मेरे जन्म का रहस्य जानने पर वे ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण अपना राज्य मुझे दे देंगे और मैं वह राज्य दुर्योधन को दे डालूंगा- धरती की तो है क्या बिसात ? इतना कहकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कर्ण चला जाता है। चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा इस सर्ग में कर्ण की उदारता एवं दानवीरता का वर्णन किया गया है। कर्ण प्रतिदिन एक प्रहर तक याचकों को दान देता था। श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि जब तक कर्ण के पास सूर्य द्वारा प्रदत्त कवच और कुण्डल हैं, तब तक कर्ण को कोई भी पराजित नहीं कर सकता। इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने आये और कर्ण से उसके कवच और कुण्डल दान में माँग लिये। यद्यपि कर्ण ने छद्मवेशी इन्द्र को पहचान लिया, तथापि उसने इन्द्र को कवच और कुण्डल भी दान दे दिये। कर्ण की इस अद्भुत दानशीलता को देख देवराज इन्द्र का मुख ग्लानि से मलिन प्रड़ गया– अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला। इन्द्र ने कर्ण की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कर्ण को महादानी, पवित्र एवं सुधी कहा तथा स्वयं को प्रवंचक, कुटिल व पापी बताया और कर्ण को एक बार प्रयोग में आने वाला अमोघ एकघ्नी अस्त्र प्रदान किया। पंचम सर्ग : माता की विनती इस सर्ग का आरम्भ कुन्ती की चिन्ता से होता है। कुन्ती इस कारण चिन्तित है कि रण में मेरे पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। कुन्ती व्याकुल हो कर्ण से मिलने जाती है। उस समय कर्ण सन्ध्या कर रहा था, आहट पाकर कर्ण का ध्यान टूट जाता है। उसने कुन्ती को प्रणामकर उसका परिचय पूछा। कुन्ती ने बताया कि तू सूत-पुत्र नहीं मेरा पुत्र है। तेरा जन्म मेरी कोख से तब हुआ था, जब मैं अविवाहिता थी। मैंने लोक-लज्जा के भय से तुझे मंजूषा (पेटी) में रखकर नदी में बहा दिया था, परन्तु अब मैं यह सहन नहीं कर सकती कि मेरे ही पुत्र एक-दूसरे से युद्ध करें; अतः मैं तुझसे प्रार्थना करने आयी हूँ कि तुम अपने छोटे भ्राताओं के साथ मिलकर राज्य का भोग करो। कर्ण ने कहा कि मुझे अपने जन्म के विषय में सब कुछ ज्ञात है, परन्तु मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ कभी नहीं छोड़ सकता। असहाय कुन्ती ने कहा कि तू सबको दान देता है, क्या अपनी माँ को भीख नहीं दे सकता ? कर्ण ने कहा कि माँ! मैं तुम्हें एक नहीं चार पुत्र दान में देता हूँ। मैं अर्जुन को छोड़कर तुम्हारे किसी पुत्र को नहीं मारूंगा। यदि अर्जुन के हाथों मैं मारा गया तो तुम पाँच पुत्रों की माँ रहोगी ही, परन्तु यदि मैंने युद्ध में अर्जुन को मार दिया तो विजय दुर्योधन की होगी और मैं दुर्योधन का साथ छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा। तब भी तुम पाँच पुत्रों की ही माँ रहोगी। कुन्ती निराश मन लौट आती है- हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर, दो बिन्दु अश्रु के गिरे दृगों से चूकर । षष्ठ सर्ग : शक्ति-परीक्षण युद्ध में आहत भीष्म शर-शय्या पर पड़े हुए हैं। कर्ण उनसे युद्ध हेतु आशीर्वाद लेने जाता है। भीष्म पितामह उसे नर-संहार रोकने के लिए समझाते हैं, परन्तु कर्ण नहीं मानता और भीषण युद्ध आरम्भ हो जाता है। कर्ण अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारता है, किन्तु श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ कर्ण के सामने ही नहीं आने देते; क्योंकि उन्हें भय है कि कर्ण एकघ्नी का प्रयोग करके अर्जुन को मार देगा। अर्जुन को बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने भीम-पुत्र घटोत्कचे को युद्धभूमि में उतार दिया। घटोत्कच ने घमासान युद्ध किया, जिससे कौरव-सेना अहि-त्राहि कर उठी। अन्ततः दुर्योधन ने कर्ण से कहा- हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का अचिर किसी विधि त्राण करो, कर्ण ने भारी नरसंहार करते हुए घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग कर दिया, जिससे घटोत्कच मारा गया। घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग हो जाने से अर्जुन अभय हो गया। आज युद्ध में विजयी होने पर भी कर्ण एकत्री का प्रयोग हो जाने से स्वयं को मन-ही-मन पराजित-सा मान रहा था। सप्तम सर्ग : कर्ण के बलिदान की कथा ‘रश्मिरथी’ का यह अन्तिम सर्ग है। कौरव सेनापति कर्ण ने पाण्डवों की सेना पर भीषण आक्रमण किया। कर्ण की गर्जना से पाण्डव सेना में भगदड़ मच जाती है। युधिष्ठिर युद्धभूमि से भागने लगते हैं तो कर्ण उन्हें पकड़ लेता है, किन्तु कुन्ती को दिये वचन का स्मरण कर युधिष्ठिर को छोड़ देता है। इसी प्रकार भीम, नकुल और सहदेव को भी पकड़-पकड़कर छोड़ देता है। कर्ण का सारथी शल्य उसके रथ को अर्जुन के रथ के निकट ले आता है। कर्ण के भीषण बाण-प्रहार से अर्जुन मूर्च्छित हो जाता है। चेतना लौटने पर श्रीकृष्ण अर्जुन को पुनः कर्ण से युद्ध करने के लिए उत्तेजित करते हैं। दोनों ओर से घमासान युद्ध होता है। तभी कर्ण के रथ का पहिया रक्त के कीचड़ में फँस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है। इसी समय श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण-प्रहार करने के लिए कहते हैं खड़ा है देखता क्या मौन भोले ! कर्ण धर्म की दुहाई देता है तो श्रीकृष्ण उसे कौरवों के पूर्व कुकर्मों का स्मरण दिलाते हैं। इसी वार्तालाप में अवसर देखकर अर्जुन कर्ण पर प्रहार कर देता है और कर्ण की मृत्यु हो जाती है। अन्त में युधिष्ठिर आदि सभी कर्ण की मृत्यु पर प्रसन्न हैं, किन्तु श्रीकृष्ण दु:खी हैं। वे युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली, पर मिली मर्यादा खोकर। वास्तव में चरित्र की दृष्टि से तो कर्ण ही विजयी रहा। आप लोग कर्ण को भीष्म और द्रोणाचार्य की भाँति ही सम्मान दीजिए। यहाँ पर इस खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है। [विशेष-मुझे इस सर्ग की कथा सर्वाधिक रुचिकर प्रतीत हुई। इस सर्ग में वर्णित कर्ण के शौर्य व साहस की तुलना इतिहास में विरले है। व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किस प्रकार पतित हो जाता है, भले ही वह ‘धर्मराज’ कहलाता हो अथवा ‘भगवान्’। यह यहाँ इतनी कलात्मकता से दर्शाया गया है कि मन नि:स्पन्द हो जाता है। अन्त में कर्ण की मृत्यु को ‘जीवन’ और ‘विजय’ से कहीं ऊँचा सिद्ध करते हुए कृष्ण कहते हैं- दया कर शत्रु को भी त्राण देकर, खुशी से मित्रता कर प्राण देकर, वस्तुत: कर्ण जैसा व्यक्ति और व्यक्तित्व स्रष्टा ने अभी तक कोई अन्य बनाया ही नहीं। वह अपनी तुलना आप है।) |
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