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सामाजिक नियन्त्रण से आप क्या समझते हैं ?  इसके क्या उद्देश्य हैं? सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका पर प्रकाश डालिए। यासामाजिक नियन्त्रण क्या है? धर्म सामाजिक नियन्त्रण को कैसे प्रभावित करता है?यासामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका की विवेचना कीजिए।याधर्म से आप क्या समझते हैं? सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका की व्याख्या कीजिए।यासामाजिक नियन्त्रण पर आत्म-नियन्त्रण के प्रभाव को दर्शाइए। 

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सामाजिक नियन्त्रण का अर्थ

समाज एक व्यवस्था का नाम है। समाज का अस्तित्व तभी तक है जब तक उसमें व्यवस्था बनी रहती है। समाज के सदस्यों के व्यवहारों को नियन्त्रित करके ही यह व्यवस्था बनी रह सकती है। इस व्यवस्था के बनाने में कुछ शक्तियाँ प्रभावी होती हैं। वास्तव में, ये शक्तियाँ ही सामाजिक नियन्त्रण के रूप में जानी जाती हैं। समाज के प्रत्येक व्यक्ति का प्रयास रहता है कि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरों के हितों को कुचल डाले। वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में उचित-अनुचित का विचार न करके अव्यवस्था को जन्म देता है। सामाजिक नियन्त्रण ही वह शक्ति है जो उसे उच्छंखलता करने से रोकती है। जिस विधि से समाज के सदस्यों के व्यवहारों को सुव्यवस्थित तथा नियन्त्रित किया जाता है, उसे ही सामाजिक नियन्त्रण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, समाज द्वारा व्यक्तियों एवं समूहों के सामान्य व्यवहारों पर जो नियन्त्रण लगाया जाता है, सामान्य रूप से उसे ही सामाजिक नियन्त्रण की संज्ञा दी जाती है। वास्तव में सामाजिक नियन्त्रण समाजीकरण का पालक व रक्षक है तथा मानव के
सामाजिक जीवन की एक अनिवार्य दशा है।

सामाजिक नियन्त्रण की परिभाषा सामाजिक नियन्त्रण का वास्तविक अर्थ जानने के लिए हमें इसकी परिभाषाओं पर दृष्टि निक्षेप करना। होगा। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने सामाजिक नियन्त्रण को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है|
मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, सामाजिक नियन्त्रण का तात्पर्य उस तरीके से है जिससे सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था की एकता और उसका स्थायित्व बना रहता है। इसके द्वारा यह समस्त व्यवस्था एक परिवर्तनशील सन्तुलन के रूप में क्रियाशील रहती है।”
जोसेफ रोसेक के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण उन नियोजित या अनियोजित क्रियाओं के लिए प्रयोग किया जाने वाला सामूहिक शब्द है जिससे व्यक्ति को समूह के मूल्यों एवं रीति-रिवाजों को सिखाया जाता है, उन्हें मानने का अनुरोध किया जाता है अथवा विवश किया जाता है।’
लुण्डबर्ग के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण एक दशा है जिसमें व्यक्तियों को अन्य व्यक्तियों द्वारा कार्य या विश्वास के सामूहिक प्रमापों को मानने के लिए, जब अन्य आदर्श भी प्राप्त हों, विवश किया जाता है।

जॉर्ज एटबरी व अन्य के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण से तात्पर्य उस तरीके से है जिससे समाज सामाजिक सम्बन्धों में एकरूपता एवं स्थिरता प्राप्त करता है।”
ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार, “दबाव के वे प्रतिमान जो व्यवस्था एवं प्रस्थापित नियमों को बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं, सामाजिक नियन्त्रण कहे जा सकते हैं।”

धर्म

धर्म कुछ अलौकिक विश्वासों और ईश्वरीय सत्ता पर आधारित एक शक्ति है जिसके नियमों का पालन व्यक्ति “पाप और पुण्य” अथवा ईश्वरीय शक्ति के भय के कारण करता है। धर्म एक आन्तरिक अलौकिक प्रभाव के द्वारा व्यक्ति और समूह के जीवन को नियन्त्रित करता है।
सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका तथा उद्देश्य या महत्त्व
सामाजिक जीवन में धर्म का महत्त्व बहुत अधिक है। यह व्यक्ति को बुरे कार्यों से बचाकर सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की रक्षा करता है। सामाजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में धर्म की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण रहती है। धर्म धार्मिक मूल्यों की सुरक्षा करके समाज को संगठित रखते हैं। धार्मिक नियमों को तोड़ना, पाप बटोरना है। धर्म के विरुद्ध जाकर ईश्वर को नाराज करना है। इन सब भावनाओं से अभिभूत मानव सामाजिक आदर्शों का पालन करके सामाजिक नियन्त्रण को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करता है। सामाजिक नियन्त्रण की भूमिका के रूप में धर्म के महत्त्व को निम्नवत् प्रस्तुत किया जा सकता है

1. धर्म मानव-व्यवहार को नियन्त्रित करता है-धर्म मानव के व्यवहार को नियन्त्रित करने का महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। अलौकिक सत्ता के भय से व्यक्ति स्वत: अपने व्यवहार को नियन्त्रित रखता है। धर्म का जादुई प्रभाव व्यक्ति को सत्य भाषण, अचौर्य, अहिंसक, दयावान, निष्ठावान तथा आज्ञाकारी बनने की प्रेरणा देकर सामाजिक आदर्शों के पालन में सहायक होता है। नियन्त्रित मानव-व्यवहार सामाजिक नियन्त्रण का पथ प्रशस्त करता है।
उदाहरणार्थ-ईसाइयों और मुसलमानों में पादरी और मुल्ला-मौलवी अपनेअपने अनुयायियों के सामाजिक जीवन के नियन्त्रक के रूप में कार्य करते हैं। वास्तव में, धर्म के नियमों के विरुद्ध आचरण ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन माना जाता है। वह पाप है। इससे व्यक्ति का न केवल इहलोक, वरन् परलोक भी बिगड़ जाता है। हिन्दुओं में व्याप्त जाति-प्रथा का आधार भी धर्म है, जो व्यक्ति के जीवन का सम्पूर्ण सन्दर्भ बन गयी है; अतः भारतीय राजनीति भी जातिवाद से कलुषित हो गयी है।

2. सामाजिक संघर्षों पर नियन्त्रण-समाज सहयोग और संघर्ष का गंगा-जमुनी मेल है। व्यक्तिगत स्वार्थ समाज में संघर्ष को जन्म देते हैं। धर्म व्यक्ति को कर्तव्य-पालन, त्याग और बलिदान के पथ पर अग्रसर करके व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ने की प्रेरणा देता है। व्यक्ति के स्थान पर यह समष्टि के कल्याण की राह दिखाता है, जिससे संघर्ष टल जाते हैं। और सामाजिक नियन्त्रण बना रहता है

3. सदगुणों का विकास-सभी धर्म आदर्शों और मूल्यों की खान होते हैं। धर्म का पालन व्यक्ति में सद्गुणों का बीज रोप देता है। व्यक्ति प्रेम, त्याग, दया, सच्चाई, ईमानदारी, अहिंसा और सहयोग आदि सद्गुणों का संचय करके सदाचरण द्वारा सामाजिक नियन्त्रण को अक्षुण्ण बनाये रखता है।

4. पवित्रता की भावना का उदय-धर्म पवित्रता की पृष्ठभूमि से उदित होता है। धर्म-पालन से मन में पवित्रता का भाव अंकुरित होता है। पवित्रता का यह भाव व्यक्ति को दुष्कर्म करने से बचाता है। अपवित्र कार्य सामाजिक मूल्यों का हनन कर विघटन उत्पन्न करते हैं। धर्म पवित्र भाव जगाकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग देता है।

5. संस्कारों का उदय-धर्म संस्कार और कर्मकाण्डों की डोर से बँधा है। व्यक्ति विभिन्न संस्कारों की पूर्ति के लिए धर्माचरण करता है। इस प्रकार संस्कारों का निर्वहन करने वाला व्यक्ति स्वतः सामाजिक नियन्त्रण” बन जाता है।

6. सामाजिक परिवर्तन-की प्रक्रिया तीव्र होने के साथ ही सामाजिक टने लगता है। धर्म सामाजिक परिवर्तन पर अंकुश लगाकर सामाजिक, को, ये रखता है। धर्म मनुष्यों को सामाजिक आदर्शों को ग्रहण कर की प्रेरणा सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा करता है। धार्मिक विश्वास सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

7. आर्थिक जीवन पर नियन्त्रण-आर्थिक क्रियाएँ सामाजिक अभिन्न अंग हैं। धनोत्पादन में व्यक्ति उचित-अनुचित भूल जाता है, परन्तु धर्म उसके आर्थिक जीवन पर भी अपना नियन्त्रण बनाये रखता है। हिन्दू दर्शन में भोग के स्थान पर त्याग का आदर्श है। हिन्दू धर्म भौतिक विकास के स्थान पर आध्यात्मिक विकास पर बल देता है। जैन धर्म ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर त्याग का महत्त्व स्पष्ट किया है। मैक्स वेबर के अनुसार, प्रत्येक धर्म में कुछ ऐसे नैतिक नियम या आधारे होते हैं जो कि उस धर्म के मानने वाले समुदाय के सदस्यों की आर्थिक व्यवस्था को निश्चित करते हैं। सभी धर्म उचित ढंग से धन कमाने और व्यय करने की प्रेरणा देकर सामाजिक नियन्त्रण में सहयोग प्रदान करते

8. व्यक्तित्व के विकास में सहायक-व्यक्तित्व के विकास में धर्म का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। धर्म व्यक्तित्व के सम्मुख जो आदर्श प्रस्तुत करता है वे सब उसे ज्ञान, धैर्य, साहस, दया, क्षमा आदि गुणों से विभूषित करते हैं। ये सब गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायक होते हैं। निराशा और कुण्ठाओं से ग्रस्त व्यक्ति समाज को विघटित करता है, जबकि प्रबुद्ध नागरिक सामाजिक नियन्त्रण को आधार स्तम्भ होता है।

9. अपराध पर नियन्त्रण-धर्म व्यक्ति में सद्गुणों का विकास करके अपराध बोध कराने में सहायक होता है। धर्म से अभिभूत व्यक्ति का अन्त:करण कभी भी उसे आपराधिक एवं समाज-विरोधी कार्य करने की अनुमति ही नहीं देता। धार्मिक नियमों के उल्लंघन मात्र से ही धर्मानुरागी व्यक्ति को अपराध बोध हो जाता है। धर्म अपराध पर नियन्त्रण लगाकर सामाजिक नियन्त्रण के कार्य में सहायता प्रदान करता है।

10. राजनीतिक क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण-राजनीति और धर्म का सम्बन्ध अटूट है। धर्म राजा और राज्य का मार्गदर्शक होता है। धर्माचरण सत्तासीन व्यक्तियों का प्रथम कर्तव्य होता है। राजा धर्म के सिद्धान्तों के अनुरूप शासन चलाता है। राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। धर्म के सिद्धान्तों पर आधारित राज्य और राजनीति दीर्घगामी होते हैं। धर्म वह कवच है जो राजा और राज्य दोनों की सुरक्षा करता है। धर्म मूल्यविहीन राजनीति की आज्ञा नहीं देता। इस प्रकार धर्म सामाजिक आदर्शों का उल्लंघन करने वाली राजनीति एवं राजनेता पर अंकुश लगाकर सामाजिक नियन्त्रण को दृढ़ बनाता है। इस प्रकार भारतीय समाज में सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। धर्म के सन्दर्भ को बिना ध्यान में रखे भारतीय समाज को समझना कठिन है।



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