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सामाजिक तथ्य क्या हैं? हम उन्हें कैसे पहचानते हैं?

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समाजशास्त्र के जनक कॉम्टे के उत्तराधिकारी माने जाने वाले फ्रांसीसी विद्वान् दुर्खोम (1858 – 1917 ई०) ने समाजशास्त्र को वैज्ञानिक धरातल पर दृढ़ करने में विशेष भूमिका निभाई है। उनका विचार था कि समाजशास्त्र की विषय-वस्तु सामाजिक तथ्य हैं जिनका अध्ययन आनुभविक रूप में किया जा सकता है। प्रत्येक समाज में घटनाओं का एक विशिष्ट समूह होता है जो कि उन तथ्यों से भिन्न होता है जिनका अध्ययन प्राकृतिक विज्ञान करते हैं। सामाजिक तथ्यों की श्रेणी में कार्य करने, सोचने तथा अनुभव करने के वे तरीके आते हैं जिनमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने की उल्लेखनीय विशेषता होता है।
दुर्खोम के अनुसार, “एक सामाजिक तथ्य काम करने का वह प्रत्येक ढंग है जो निर्धारित अथवा अनिर्धारित है और जो व्यक्ति पर एक बाहरी दबाव डालने के योग्य है अथवा काम करने का वह प्रत्येक तरीका है जो निर्दिष्ट समाज में सर्वत्र सामान्य है, और साथ ही व्यक्तिगत अभिव्यक्तियों से स्वतंत्र वह अपना अस्तित्व बनाए रखता है।” इस परिभाषा से दो बातें स्पष्ट होती हैं- प्रथम, सामाजिक तथ्य कार्य करने (चाहे वे संस्थागत हैं या नहीं), सोचने तथा अनुभव करने के तरीके हैं; तथा दूसरे, इन तरीकों में व्यक्तिगत चेतना से बाह्यता (Exteriority) और दबाव की शक्ति (Constraint) की दो प्रमुख विशेषताएँ पायी जाती हैं।

बाह्यता का अर्थ है कि सामाजिक तथ्यों का स्रोत व्यक्ति नहीं होता, अपितु समाज होता है, चाहे वह पूर्ण राजनीतिक समाज हो या उसका कोई आंशिक समूह; जैसे-धार्मिक समुदाय तथा राजनीतिक, साहित्यिक एवं व्यावसायिक संघ इत्यादि। दबाव की शक्ति का अर्थ है कि सामाजिक तथ्य व्यक्ति के व्यवहार पर नियंत्रण रखते हैं। जब हम कोई ऐसी बात करना चाहते हैं जिसे दूसरे पसंद नहीं करते तथा न ही उसके करने की प्रशंसा करते हैं। तो हम वह कार्य सामान्य रूप से नहीं करते अर्थात् व्यक्ति तब दबाव महसूस करता है जब वह किसी कार्य को करना चाहता है परंतु कर नहीं पाता क्योंकि दूसरे व्यक्ति ऐसा नहीं चाहते।



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