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‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के मार्मिक स्थलों का सोदाहरण निदर्शन कीजिए।या“‘श्रवणकुमार’ काव्य के अभिशाप सर्ग में करुण रस का सांगोपांग वर्णन है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।या‘श्रवणकुमार’ के कथानक के मार्मिक स्थल की समीक्षा कीजिए।

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डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ की कथा वाल्मीकिरामायण के अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार–प्रसंग पर आधारित है। कवि ने इस कथा को युगानुरूप परिवर्तित कर सर्वथा नये रूप में प्रस्तुत किया है। ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथा नौ सर्गों में विभक्त है, जिनमें अन्तिम छ: सर्गों में करुण रस की पवित्र धारा प्रवाहित हुई है। बाण लगने पर श्रवण का मार्मिक क्रन्दन, दशरथ की आत्मग्लानि, श्रवण के माता-पिता का करुण-विलाप, उनका दशरथ को शाप देना, श्रवण के माता-पिता का पुत्र-शोक में प्राण त्यागना और दशरथ का दु:खी मन से अयोध्या लौटना ऐसे कारुणिक प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर किसी भी सहृदय पाठक का मन करुणा से आप्लावित हो उठता है। इस कारुणिकता का ही यह प्रभाव है कि यह कथानक भारतीय जनमानस की स्मृति में अमिट हो गया है और श्रवणकुमार का नाम मातृ-पितृभक्ति का पर्याय बन गया है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य है और इसीलिए यह पाठकों को सबसे अधिक प्रभावित भी करता है।

‘अभिशाप’ इस खण्डकाव्य का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण सर्ग है, जिसमें वात्सल्य की गंगा और करुण रस की यमुना का सुन्दर संगम हुआ है। इसमें करुण रस के सभी अंगों की सहज अभिव्यक्ति हुई है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य भी है। श्रवण का शव, उसके माता-पिता के मनोभावों, पूर्व स्मृतियों एवं शव-स्पर्श, शीश-पटकना, रोना आदि में आलम्बन, उद्दीपन एवं अनुभाव के दर्शन होते हैं। प्रलाप, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन और अभिलाषा आदि वृत्तियों की सहायता से शोक की करुण रस में परिणति इस सर्ग में द्रष्टव्य है। इसके साथ ही कथावस्तु का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश भी इसी सर्ग में है। इसके अतिरिक्त इस सर्ग में श्रवण के पिता का चरित्र देवत्व और मनुष्यत्व के बीच संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। ऋषि होकर भी वे क्रोध को रोक न सके और पुत्र-वध से उत्पन्न रोष के कारण, दशरथ को शाप दे दिया–

पुत्र-शोक में कलप रहा हूँ, जिस प्रकार मैं अज-नन्दन।
सुत-वियोग में प्राण तजोगे, इसी भाँति करके क्रन्दन ॥

श्रवण की माता के विलाप में भी करुण रस का स्रोत निम्नवत् फूट पड़ता है-

मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन-सा पटक रही थी, शीश।।
अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश ?

तो उधर वात्सल्य रस की गंगा भी प्रवाहित होती दिखाई देती हैं-

धरा स्वर्ग में रहो कहीं भी ‘माँ’ मैं रहूँ सदा अय प्यार।
रहो पुत्र तुम, ठुकराओ मत मुझ दीना का किन्तु दुलार ॥

यह सर्ग जहाँ काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से विशिष्ट है, वहीं यह अपने उदात्त विचारों एवं विश्लेषण के कारण भी विशिष्ट है। श्रवणकुमार के पिता पुत्र-वध के कारण दशरथ के प्रति रोष में हैं, किन्तु उनके द्वारा अपराध की स्वीकृति कर लेने के कारण वे उनके प्रति सहानुभूति भी रखते हैं।

इस सर्ग के अन्त में ऋषि दम्पति में मानवीय दुर्बलता भी दिखाई गयी है। भले ही उन्होंने क्रोधवश दशरथ को शाप दे दिया, किन्तु दशरथ की निरपराध पत्नी के प्रति सहानुभूति भी दिखाई गयी है कि बेचारी नारी गेहूँ के साथ घुन की भाँति पिसेगी। अपने पुत्रहन्ता और उसकी पत्नी के प्रति यह संवेदनात्मक भाव, वह भी उस समय जब पुत्र का शव सामने हो, मानवादर्श की चरम सीमा को दर्शाता है।

इस सर्ग में दशरथ की आन्तरिक अनुभूति एवं उनके अन्तर्मन का द्वन्द्व भी अपनी विशिष्टता रखता है। पश्चात्ताप और अपराध-बोध से दबा हुआ एक राजेश्वर; श्रवण के माता-पिता के सामने उनके पुत्र के शव के साथ जिस मन:स्थिति में खड़ा है, वह कवि की कल्पना-शक्ति की अनुभवात्मक संवेदना का परिचय देता है और उसकी उस स्थिति की अभिव्यक्ति में रसों का जो अद्भुत समन्वय हुआ है, वह सराहनीय है।



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