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संवेग का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। संवेगों की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

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संवेग का अर्थ (Meaning of Emotion)

‘संवेग’ को अंग्रेजी में ‘Emotion’ कहते हैं। Emotion शब्द ‘Emovre’ से बना है, जिसका अर्थ है-उत्तेजित होना’। इस प्रकार संवेग की स्थिति में व्यक्ति उत्तेजित हो जाता है और उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है। संवेग व्यक्ति के वैयक्तिक तथा आन्तरिक अनुभव हैं। प्रत्येक व्यक्ति सुख, दु:ख, पीड़ा तथा क्रोध का अनुभव करता है। जब तक ये अनुभव अपने साधारण रूप में रहते हैं, तब इन्हें राग या भाव (feeling) कहा जाता है, परन्तु जब किसी विशेष कारण या घटना से राग या भाव उग्र रूप धारण कर लेते हैं, तो उन्हें संवेग कहा जाता है।

संवेग की परिभाषा (Definition of Emotion)

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने संवेगों को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है
1. किम्बाल यंग के अनुसार, “संवेग प्राणी की उत्तेजित, मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक दशा है, जिसमें शारीरिक क्रियाएँ तथा भावनाएँ एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए स्पष्ट रूप से बढ़ जाती हैं।
2. टी० पी० नन के अनुसार, संवेग सम्पूर्ण प्राणी का वह मूलत: मनोवैज्ञानिक तीव्र विघ्न डालने वाला व्यवहार है, जिसमें चेतना, अनुभूति, व्यवहार तथा अन्तरावयव की क्रियाएँ शामिल रहती हैं।”
3. वुडवर्थ के अनुसार, “संवेग, प्राणी की उत्तेजित अथवा उद्वेग अवस्था है। यह अनुभूति की उस रूप में उत्तेजित अवस्था है, जिसमें व्यक्ति स्वयं अनुभव करता है। यह पेशीय तथा ग्रन्थीय क्रिया की गड़बड़ी है, जैसा कि बाहर से प्रतीत होता है।”
4. जेम्स ईवर के अनुसार, “संवेग शरीर की जटिल अवस्था है, जिसमें श्वास लेना नाड़ी, ग्रन्थियाँ, उत्तेजना, मानसिक दशा तथा अवरोध आदि का अनुभूति पर प्रभाव पड़ता है एवं मांसपेशियाँ एक विशेष व्यवहार करने लगती हैं।”
5. जर्सिल्ड के अनुसार, “संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेग में आने, भड़क उठने अथवा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।”

संवेग की विशेषताएँ (लक्षण) (Characteristics of Emotion)

संवेग की विभिन्न परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर संवेग की निम्नांकित विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता

1. भावनाओं से सम्बन्धित- डॉ० जायसवाल के अनुसार, “संवेगों का सम्बन्ध भावनाओं और वृत्तियों से होता है। बिना भावना के संवेग सम्भव नहीं है। भावनाएँ एक प्रकार से संवेगों की पृष्ठभूमि है अथवा संवेगों के गर्भ में भावनाओं का ही बल है। वास्तव में भावात्मक प्रवृत्ति का बढ़ा हुआ रूप ही संवेग है।
2. वैयक्तिकता- संवेग की अन्य विशेषता उसका वैयक्तिक होना है। एक ही परिवेश में दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न संवेगों का अनुभव करते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए-एक रोती हुई महिला को देखकर एक व्यक्ति दया से द्रवित हो जाता है, तो दूसरा व्यक्ति उसे ढोंगी समझकर उससे घृणा करने लगता है।
3. तीव्रता- संवेग की अनुभूति अत्यन्त तीव्र होती है। संवेग को यदि एक प्रकार का उद्वेग कहा जाए तो अनुचित नहीं है। वे व्यक्ति की मन:स्थिति को तीव्रता के कारण अस्त-व्यस्त कर देते हैं, परन्तु इनकी तीव्रता में अन्तर भी होता है। एक शिक्षित व्यक्ति में अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा संवेग की तीव्रता कम होती है, क्योंकि शिक्षित व्यक्ति अपने संवेगों पर नियन्त्रण करना सीख जाता है।
4. व्यापकता- संवेग वैयक्तिक होते हुए भी सर्वानुभूति और सर्वव्यापक होते हैं। संवेगों का अनुभव समस्त प्राणी करते हैं। स्टाउट के अनुसार, “निम्न श्रेणी के प्राणियों से लेकर उच्चतर प्राणियों तक एक ही प्रकार के संवेग पाये जाते हैं।” अन्तर केवल मात्रा का होता है। किसी को क्रोध अधिक आता है और किसी को कम।
5. स्थानान्तरण- प्रायः संवेग स्थानान्तरित हो जाते हैं। यदि कोई अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी पर क्रोधित हो जाता है और उसी दशा में यदि कर्मचारी का कोई साथी उसे छेड़ दे तो वह अपने साथी पर क्रोधित होने लगता है।
6. संवेगात्मक सम्बन्ध- संवेग का सम्बन्ध किसी व्यक्ति, वस्तु या विचार से सम्बद्ध होता है। हम किसी व्यक्ति या विचार के प्रति ही क्रोध या घृणा करते हैं। दूसरे शब्दों में, संवेग का कोई-न-कोई आधार अवश्य होता है।
7. सुख और दुःख की भावना- संवेग में किसी-न-किसी रूप में सुख या दु:ख का भाव निहित रहता है। जब हम किसी वस्तु को देखकर भयभीत होते हैं तो उसमें दु:ख का भाव निहित होता है। जब हम आशा करते हैं तो उसमें सुख की अनुभूति रहती है। स्टाउट के अनुसार, “अपनी विशेष भावना के अतिरिक्त संवेग में नि:सन्देह रूप से सुख या दु:ख की भांघना होती है।”
8. बाह्यशारीरिक परिवर्तन- संवेगात्मक अवस्था में हमारे शरीर में जो बाह्य परिवर्तन होते हैं, वे इस प्रकार हैं-भय या क्रोध में शरीर का काँपना, पसीना आना, रोंगटे खड़े होना, आँखों में लाली छाना या आँसू निकलना, प्रसन्नता में मुस्कराना या हँसना आश्चर्य के समय आँखों का खुला रह जाना।
9. आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन- संवेगात्मक अनुभूति के समय शरीर में आन्तरिक परिवर्तन भी होते हैं; जैसे-हृदय की धड़कन तीव्र होना, क्रोध की दशा में, पेट में पाचक रस निकलना बन्द होना तथा भोजन की पाचन की सम्पूर्ण प्रक्रिया का अस्त-व्यस्त हो जाना।
10. व्यवहार में परिवर्तन- संवेगात्मक दशा में व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। क्रोध से ओत-प्रोत व्यक्ति का व्यवहार उसके सामान्य व्यवहार से पूर्णतया भिन्न हो जाता है।
11. मानसिक तनाव- संवेग की अवस्था में हम एक प्रकार की उत्तेजना, आवेग और मानसिक तनाव का अनुभव करते हैं।
12. चिन्तन- शक्ति का लोप-संवेग के कारण हमारी चिन्तन-शक्ति का लोप हो जाता है और संवेगात्मक अवस्था में अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता। उदाहरण के लिए-क्रोध के वशीभूत होकर व्यक्ति हत्या तक कर देता है।
13. स्थिरता की प्रवृत्ति- संवेग की प्रवृत्ति में स्थिरता होती है। अपने प्रिय की मृत्यु का दु:ख पर्याप्त काल तक हमारे मन में रहता है। इसी प्रकार जब हम किसी पर क्रोधित होते हैं तो पर्याप्त काल तक उसका प्रभाव हमारे मन पर छाया रहता है। उसके सामने आने पर हमारा क्रोध फिर भड़क उठता है।
14. क्रियात्मक प्रवृत्ति का होना- जिस समय हम संवेग का अनुभव करते हैं, तो उस समय कुछ-न-कुछ क्रिया अवश्य होती है। उदाहरण के लिए-जब हम कोई घृणास्पद वस्तु को देखते हैं तो तुरन्त ही हम अपना मुख उसकी ओर से फेर लेते हैं। इसी प्रकार क्रोधित होने पर हम अपने हाथ मलने या दाँत किटकिटाने लगते हैं।



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