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सुमित्रानन्दन पन्त का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।यासुमित्रानन्दन पन्त का जीवन-परिचय दीजिए एवं उनकी किसी एक रचना का नाम लिखिए।

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श्री सुमित्रानन्दन पन्त का सम्पूर्ण काव्य आधुनिक काव्य-चेतना का प्रतीक है। ये ऐसे कवि हैं। जो हिन्दी-साहित्य-कानन को झरने के समान कल-कल निनाद से मुखरित कर नवजीवन प्रदान करते हैं। इन्होंने अपने काव्य की लय-ताल में मानव-जीवन की  लय-ताल को निबद्ध करने का प्रयास किया है। इनके काव्य में धर्म, दर्शन, नैतिक एवं सामाजिक मूल्य, प्रकृति की सुकुमारता-उद्दण्डता आदि एक साथ देखी जा सकती है। वास्तव में इनका काव्य; काव्य-रसिकों के गले को कण्ठहार है। |

जीवन-परिचय–सुकुमार भावनाओं के कवि और प्रकृति के चतुर-चितेरे श्री सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म 20 मई, सन् 1900 ई० को प्रकृति की सुरम्य गोद में अल्मोड़ा के निकट कौसानी नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम पं० गंगादत्त पन्त था। इनके जन्म के छः घण्टे के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया था; अतः इनका लालन-पालन पिता और दादी के वात्सल्यं की छाया में हुआ। पन्त जी ने अपनी शिक्षा का प्रारम्भिक चरण अल्मोड़ा में पूरा किया। यहीं पर इन्होंने अपना नाम गुसाईंदत्त से बदलकर सुमित्रानन्दन रखा। इसके बाद वाराणसी के जयनारायण हाईस्कूल से स्कूल-लीविंग की परीक्षा उत्तीर्ण की और जुलाई, 1919 ई० में इलाहाबाद आये और म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। सन् 1921 ई० में महात्मा गाँधी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर इन्होंने बी० ए० की परीक्षा दिये बिना ही कॉलेज त्याग दिया था। इन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला और हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। प्रकृति की गोद में पलने के कारण इन्होंने अपनी सुकुमार भावना को प्रकृति के चित्रण में व्यक्त किया। इन्होंने प्रगतिशील विचारों की पत्रिका रूपाभा’ का प्रकाशन किया। सन् 1942 ई० में भारत छोड़ो आन्दोलन से प्रेरित होकर ‘लोकायन’ नामक सांस्कृतिक पीठ की स्थापना की और भारत-भ्रमण हेतु निकल पड़े। सन् 1950 ई० में ये ऑल इण्डिया रेडियो के परामर्शदाता पद पर नियुक्त हुए और सन् 1976 ई० में भारत सरकार ने इनकी साहित्य-सेवाओं को ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से सम्मानित किया। इनकी कृति ‘चिदम्बरा’ पर इनको ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। 28 दिसम्बर, सन् 1977 ई० को इस महान् । साहित्यकार ने इस भौतिक संसार से सदैव के लिए विदा ले ली और चिरनिद्रा में लीन हो गये।

रचनाएँ-पेन्त जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने कविता के अतिरिक्त नाटक, उपन्यास और कहानियों की भी रचना की है, परन्तु काव्य ही इनका प्रधान क्षेत्र रहा है। अपने दीर्घकालिक काव्य-जीवन में इन्होंने हिन्दी काव्य-जगत को अनेक कृतियों प्रदान की हैं जो निम्नलिखित हैं

(1) वीणा—यह पन्त जी की प्रथम काव्य-पुस्तक है। इसमें प्रकृति-निरीक्षण, अनुभूति और कल्पनाओं का सुन्दर रूप दिखाई देता है।

(2) ग्रन्थि-यह असफल प्रेम की दुःखपूर्ण गाथा का काव्य है। इसमें वियोग श्रृंगार की प्रधानता है।

(3) पल्लव–यह कल्पना-प्रधान काव्य है। इसमें प्रकृति-निरीक्षण और ऊँची कल्पनाओं के दर्शन । होते हैं। इसमें ‘वसन्तश्री’,’परिवर्तन’; ‘मौन-निमन्त्रण’, ‘बादल’ आदि श्रेष्ठ कविताएँ संकलित हैं।

(4) गुंजन-इसमें कवि का मन प्रकृति से हटकर आत्मचित्रण की ओर लग  गया है। नौकाविहार’ इस संकलन की श्रेष्ठ कविता है।

(5) युगान्त

(6) युगवाणी

(7) ग्राम्या—इन काव्यों में कवि पर गाँधीवाद और समाजवाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

(8) लोकायतन-इस महाकाव्य में कवि की सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा व्यक्त हुई है। इसमें ग्राम्य-जीवन और जनभावना को स्वर प्रदान किया गया है।
पन्त जी की अन्य रचनाएँ हैं—पल्लविनी, अतिमा, युगपथ, ऋता, स्वर्णकिरण, चिदम्बरा, उत्तरा, कला और बूढ़ा चाँद, शिल्पी, स्वर्णधूलि आदि।

साहित्य में स्थान-सुन्दर, सुकुमार भावों के चतुर-चितेरे पन्त ने खड़ी बोली को ब्रजभाषा जैसा माधुर्य एवं सरसता प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। पन्त जी गम्भीर विचारक, उत्कृष्ट कवि और मानवता के सहज आस्थावान् कुशल शिल्पी हैं, जिन्होंने नवीन सृष्टि के अभ्युदय की कल्पना की है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि “पन्त जी हिन्दी कविता के श्रृंगार हैं, जिन्हें पाकर माँ-भारती कृतार्थ हुई।



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