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ताप-प्रदूषण का व्यक्ति के जीवन एवं व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है?यामानव-व्यवहार पर ताप-प्रदूषण के प्रभावों की व्याख्या कीजिए। 

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कारखानों और स्वचालित वाहनों से निकलती गैसें व धुआँ, आणविक विस्फोटों, ओजोन के विक्षेपण तथा वनों की कमी और जुनसंख्या विस्फोट ने तापमान में निरन्तर वृद्धि की है। गर्मी का प्रकोप बढ़ रहा है। इसी को ताप-प्रदूषण कहा जाता है। यदि यह प्रदूषण बढ़ता गया तो पृथ्वी ग्रह मनुष्य के रहने योग्य नहीं बचेगा मानव-व्यवहार पर ताप-प्रदूषण के निम्नलिखित प्रभाव दृष्टिगोचर होते है

(1) बौद्धिक प्रखरता पर प्रभाव- तापमान वृद्धि बौद्धिक प्रखरता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। ताप प्रदूषण में आदमी सुस्त, थका हुआ और निष्क्रिय महसूस करने लगता है, जबकि कम तापमान व्यक्ति की कुशलता में वृद्धि करता है। |

(2) गर्म-जलवायु और आक्रामक-व्यवहार– गोरान्सन तथा किंग ने अपने अनुसन्धान में पाया कि अधिकांशतः व्यावहारिक विकार गर्मी के महीनों में ज्यादा देखने को मिलते हैं। फ्रांस के सामाजिक चिन्तक दुर्णीम ने कुछ देशों के अपराधों के आँकड़ों का अध्ययन करके यह पाया कि गर्मियों में मानव शरीर के प्रति अपराध ज्यादा होते हैं; जैसे—मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि; जबकि जाड़ों में सम्पत्ति के प्रति अपराध; जैसे-चोरी, डकैती आदि अधिक होते हैं। ग्रिफिट तथा वीच ने कमरों के तापमान में वृद्धि करके देखा कि अधिक गर्मी में रहने वाले व्यक्ति ठण्डे कमरों में रहने वाले व्यक्तियों से अधिक आक्रामक थे।

(3) चन्द्रमा की चक्रीय क्रिया का मानव- व्यवहार पर प्रभाव-यह सर्वविदित है कि समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा, की चक्रीय क्रिया अर्थात् क्रमागत घटने-बढ़ने से आते हैं। मानव-शरीर में भी जल-विद्यमान है। वह भी चन्द्रमा के चक्रीय प्रभाव से वंचित नहीं हैं। प्राचीनकाल से ही यौन-वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन से सिद्ध किया है कि चन्द्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं का मनुष्य; विशेषकर महिलाओं की यौन-इच्छाओं, यौन-उत्तेजनाओं तथा यौन-व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है।

(4) तापमान एवं शारीरिक स्वास्थ्य- बढ़ता हुआ तापमान मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इससे अधिक चर्म रोग उत्पन्न हो जाते हैं। बहुत ठण्ड में अत्यधिक शीतप्रधान क्षेत्रों में भी मनुष्य की त्वचा विदीर्ण एवं मस्सों वाली हो जाती है।

(5) तापमान वृद्धि के सामाजिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव– तापमान वृद्धि के कुछ अप्रत्यक्ष कुप्रभाव जानने में आये हैं। इससे फसलों और पौधों को नुकसान होता है, भूमि में जल-स्तर नीचे चला जाता है, पेयजल का संकट उत्पन्न हो जाता है और समूचा सामाजिक जीवन ही अस्त-व्यस्त हो जाता है।



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