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‘त्यागपथी’ खण्डकाव्य के आधार पर राज्यश्री का चरित्र-चित्रण (चरित्रांकन) कीजिए। या‘त्यागपथी’ के प्रमुख नारी-पात्र राज्यश्री की चारित्रिक विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए/लिखिए। या‘त्यागपथी’ में निरूपित राज्यश्री की चारित्रिक छवि पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।

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राज्यश्री सम्राट हर्षवर्द्धन की छोटी बहन है। हर्षवर्द्धन के चरित्र के बाद राज्यश्री का चरित्र ही ऐसा है, जो पाठकों के हृदय एवं मस्तिष्क पर छा जाता है। राज्यश्री के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

(1) माता-पिता की लाडली-राज्यश्री अपने माता-पिता को प्राणों से भी प्यारी है। कवि कहता है|

माँ की ममता की मूर्ति राज्यश्री सुकुमारी।
थी सदा पिता को, माँ को प्राणोपम प्यारी ॥

(2) आदर्श नारी–राज्यश्री आदर्श पुत्री, आदर्श बहन और आदर्श पत्नी के रूप में हमारे समक्ष आती है। वह यौवनावस्था में विधवा हो जाती है तथा गौड़पति द्वारा बन्दिनी बना ली जाती है। भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद वह कारागार से भाग जाती है और वन में भटकती हुई एक दिन आत्मदाह के लिए उद्यत हो जाती है; किन्तु अपने भाई हर्षवर्द्धन द्वारा बचा लेने पर वह तन-मन-धन से प्रजा की सेवा में ही अपना जीवन अर्पित कर देती है। हर्ष द्वारा राज्य सौंपे जाने पर भी वह राज्य स्वीकार नहीं करती। यही है उसका आदर्श रूप, जो सबको आकर्षित करता है–

विपुल साम्राज्य की अग्रज सहित वह शासिका थी,
अभ्यन्तर से तथागत की अनन्य उपासिका थी।

(3) देश-भक्त एवं जन-सेविका–राज्यश्री के मन में देशप्रेम और लोक-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। हर्ष के समझाने पर वह अपने वैधव्य का दु:ख झेलती हुई भी देश-सेवा में लगी रहती है। देशप्रेम के कारण राज्यश्री संन्यासिनी बनने का विचार भी छोड़ देती है तथा शेष जीवन को देशसेवा में ही लगाने का व्रत लेती है-

करूंगी साथ उनके मैं हमेशा राष्ट्र-साधन
अहिंसा नीति का होगा सभी विधिपूर्ण पालन ॥
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प्रजा के हित समर्पित है व्रती जीवन तुम्हारा।
सभी का हित सभी को सुख, तुम्हें दिन-रात प्यारा ।।

(4) करुणामयी नारी–राज्यश्री ने माता-पिता की मृत्यु तथा पति और बड़े भाई की मृत्यु के अनेक दुःख झेले। इन दुःखों ने उसे करुणा की मूर्ति बना दिया। अपने अग्रज हर्षवर्द्धन से मिलते समय उसकी कारुणिक दशा अत्यन्त मार्मिक प्रतीत होती है–

सतत बिलखती थी बहिन माता-पिता की याद कर ।
ले नाम सखियों का, उमड़ती थी नदी-सी वारि भर ॥
था साखु अग्रज धैर्य देता माथ उसका ढाँपकर ।
रोती रही अविरल बहिन बेतस लता-सी काँपकर ।।

(5) त्यागमयी नारी–राज्यश्री का जीवन त्याग की भावना से आलोकित है। भाई हर्षवर्द्धन द्वारा कन्नौज का राज्य दिये जाने पर भी वह उसे स्वीकार नहीं करती। वह कहती है–

स्वीकार न मुझको कान्यकुब्ज सिंहासन।
बैठो उस पर तुम करो शौर्य से शासन ।।

वह राज्य-कार्य के बन्धन में पड़ना नहीं चाहती; क्योंकि वह मन से संन्यासिनी है। हर्षवर्द्धन के समझाने पर भी वह नाममात्र की ही शासिका बनी रहती है। प्रयाग महोत्सव के समय हर्षवर्द्धन के साथ राज्यश्री भी अपना सर्वस्व प्रजा के हितार्थ त्याग देती है–

लुटाती थी बहन भी पास का सब तीर्थस्थल में,
पहिन दो वस्त्र केवल दीपती थी छवि विमल में ।।

(6) सुशिक्षिता एवं ज्ञान-सम्पन्न राज्यश्री सुशिक्षिता एवं शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न है। जब आचार्य दिवाकर मित्र संन्यास धर्म का तात्त्विक विवेचन करते हुए उसे मानव-कल्याण के कार्य में लगने का उपदेश देते हैं तब राज्यश्री इसे स्वीकार कर लेती है और आचार्य की आज्ञा का पूर्णरूपेण पालन करती है।

इस प्रकार राज्यश्री का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। उसके पातिव्रत-धर्म, देश-धर्म, करुणा और कर्तव्यनिष्ठा के आदर्श निश्चय ही अनुकरणीय हैं।



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