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उत्पादन लागत से आप क्या समझते हैं ? उत्पादन लागत के प्रकार बताइए।यामौद्रिक लागत, वास्तविक लागत एवं अवसर लागत को संक्षेप में समझाइए।यालागत से आप क्या समझते हैं? स्थिर लागत तथा परिवर्तनशील लागत में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

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उत्पादन लागत का अर्थ
प्राय: बोलचाल की भाषा में उत्पादन लागत से तात्पर्य उन समस्त भुगतानों से होता है, जिनको एक उत्पादक किसी वस्तु के उत्पादन में प्रयोग आने वाले विभिन्न साधनों को उसके उत्पादन में सहयोग देने के बदले में पुरस्कार के रूप में देता है। इस प्रकार सामान्य बोलचाल की भाषा में वस्तु की लागत में उत्पादक द्वारा अन्य व्यक्तियों को किये गये भुगतानों को ही सम्मिलित किया जाता है तथा उन साधनों या वस्तुओं को जिनको वह अपने पास से दे देता है, उनका पुरस्कार या पारिश्रमिक उस वस्तु की उत्पादन लागत में सम्मिलित नहीं किया जाता है। परन्तु अर्थशास्त्र में वस्तु की उत्पादन-लागत के अन्तर्गत केवल अन्य व्यक्तियों को किये गये भुगतान नहीं रहते हैं, बल्कि उत्पादक द्वारा स्वयं दिये गये उपादानों का पुरस्कार और वस्तुओं का मूल्य तथा उसका स्वयं अपना लाभ भी सम्मिलित रहता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उत्पादन लागत = भूमि का लगान + कच्चे माल की कीमत + मजदूरों की पूँजी पर ब्याज + संगठनों का वेतन + उद्यमी का सामान्य लाभ।

उत्पादन लागत की परिभाषाएँ
प्रो० मार्शल के शब्दों में, “उत्पादन लागते वह समस्त मौद्रिक (द्राव्यिक) लागत है जो उद्यमी को अपने व्यवसाय में उत्पादकों को विभिन्न उपादानों को आकर्षित करने के लिए लगानी पड़ती है। इसमें कच्चे माल की कीमत, मजदूरी और वेतन, पूँजी पर ब्याज, लगान, प्रबन्धक सम्बन्धी सामान्य आयकरों का भुगतान तथा अन्य व्यापारिक काम आदि सम्मिलित होते हैं।”
उम्ब्रेट, हण्ट तथा किण्टर के अनुसार, “उत्पादन लागत में वे समस्त भुगतान सम्मिलित होते हैं। जो कि अन्य व्यक्तियों को उनकी वस्तुओं एवं सेवाओं के उपयोग के बदले में किये जाते हैं। इसमें मूल्य ह्रास तथा प्रचलन जैसे भेद भी सम्मिलित रहते हैं। इसमें उत्पादक द्वारा प्रदत्त सेवाओं के लिए अनुमानित मजदूरी तथा उसके द्वारा प्रदत्त पूँजी व भूमि का पुरस्कार भी सम्मिलित रहता है।”

उत्पादन लागत के प्रकार
उत्पादन लागत के प्रकार निम्नलिखित हैं
⦁    मौद्रिक लागत
⦁     वास्तविक लागत
⦁    अवसर लागत

1. मौद्रिक लागत – उत्पत्ति के साधनों के प्रयोग के लिए जो धन व्यय किया जाता है, वह उसकी मौद्रिक लागत होती है या किसी वस्तु के उत्पादन पर द्रव्य के रूप में उत्पादन के उपादानों पर जो व्यय किया जाता है उसे मौद्रिक या द्राव्यिक लागत कहा जाता है।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार उत्पादक की मौद्रिक लागत में निम्नलिखित तत्त्व सम्मिलित होते हैं
(क) स्पष्ट लागते (Explicit Costs) – इनके अन्तर्गत वे सब लागतें सम्मिलित की जाती हैं, जो उत्पादक के द्वारा स्पष्ट रूप से विभिन्न उपादानों को खरीदने (क्रय करने) के लिए व्यय की जाती हैं।

(ख) अस्पष्ट लागते (Implicit Costs) – इनके अन्तर्गत उन साधनों एवं सेवाओं का मूल्य सम्मिलित होता है, जो उत्पादक के द्वारा प्रयोग की जाती हैं, किन्तु जिनके लिए वह प्रत्यक्ष रूप से भुगतान नहीं करता। उत्पादन में प्रयोग किये जाने वाले कुछ साधनों का स्वामी व्यवसायी स्वयं हो सकता है। इसलिए वह उनके लिए प्रत्यक्ष रूप से भुगतान नहीं करता। उद्यमी के स्वयं के साधनों के बाजार दर पर पुरस्कारों को अस्पष्ट लागतें कहा जाता है।
उपर्युक्त स्पष्ट लागतें एवं अस्पष्ट लागतों से स्पष्ट होता है कि मौद्रिक लागत के अन्तर्गत निम्नलिखित दो बातें सम्मिलित होती हैं
⦁    वस्तु के उत्पादन हेतु आवश्यक उपादानों की क्रय-कीमत या उन्हें किया गया भुगतान।
⦁    फर्म के मालिक द्वारा लगाये जाने वाले उपादानों की अनुमानित कीमत एवं सामान्य लाभ सम्मिलित रहते हैं।
2. वास्तविक लागत – वास्तविक लागत का विचार तो परम्परावादी अर्थशास्त्रियों द्वारा ही प्रस्तुत कर दिया गया था, परन्तु इसकी विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या प्रो० मार्शल द्वारा की गयी। उन्होंने कहा कि  – “वस्तु के निर्माण में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से लगाये गये विभिन्न प्रकार के श्रमिकों का श्रम इसके साथ वस्तुओं को उत्पन्न करने में प्रयोग आने वाली उस पूँजी को बचाने में जो संयम अथवा प्रतीक्षा आवश्यक होती है, वे समस्त प्रयत्न और त्याग मिलकर वस्तु की वास्तविक लागत कहलाते हैं।”
कहने का आशय यह है कि वास्तविक लागत उन प्रयत्नों तथा त्यागों की माप होती है जो समाज को उसे उत्पन्न करने हेतु सहन करने पड़ते हैं। इसी कारण इसको ‘सामाजिक लागत’ के नाम से भी पुकारते हैं। वास्तविक लागत में निम्नांकित दो बातें सम्मिलित रहती हैं
⦁    विभिन्न प्रकार के श्रमिकों के शारीरिक एवं मानसिक प्रयत्न जो उत्पादन क्रिया में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भाग लेते हैं।
⦁    पूँजी को संचय करने के कारण उत्पन्न होने वाले कष्ट एवं त्याग।
ये समस्त प्रयत्न एवं त्याग मिलकर वस्तु की वास्तविक लागत’ कहलाते हैं। जिस कार्य को करने में श्रमिकों को अधिक कष्ट होता है, उसकी वास्तविक लागत अधिक होती है। इसके विपरीत, जिस कार्य को करने में श्रमिकों को कम कष्ट होता है, उसकी वास्तविक लागत कम होती है।
3. अवसर लागत – आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने वास्तविक लागत के विचार के स्थान पर अवसर लागत का विचार दिया है। अवसर लागत को हस्तान्तरण आय’ या ‘विकल्प लागत’ भी कहते हैं।
अवसर लागत से अभिप्राय है कि किसी एक वस्तु के उत्पादन में किसी साधन के प्रयोग किये जाने का अभिप्राय यह है कि उस साधन को अन्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए प्रयोग नहीं किया जा रहा है। अतः किसी वस्तु को उत्पन्न करने की सामाजिक लागत उन विकल्पों के रूप में व्यक्त की जा सकती है जो उस वस्तु को उत्पादित करने के लिए हमें त्यागने होते हैं।

प्रो० मार्शल ने उद्यमकर्ता के दृष्टिकोण से उत्पादन लागत का विभाजन निम्न प्रकार से किया है
⦁    प्रधान लागत अथवा परिवर्तनशील लागत।
⦁     पूरक लागत या स्थिर लागत।

(i) प्रधान लागत अथवा परिवर्तनशील लागत – प्रधान लागत वह लागत है जो उत्पादन की मात्रा के साथ-साथ बढ़ती रहती है। इस कथन को और अधिक अच्छी तरह इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं कि “यदि उत्पादन की मात्रा में कमी हो जाती है तो प्रधान लागत में भी वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत, यदि उत्पादन की मात्रा में कमी हो जाती है तो प्रधान लागत में भी कमी हो जाती है। इस प्रकार से उत्पादन की मात्रा और प्रधान लागत में प्रत्यक्ष तथा लगभग आनुपातिक सम्बन्ध होता है। उदाहरणार्थ-एक चीनी मिल को लीजिए। चीनी बनाने के लिए गन्ने के साथ-ही-साथ बिजली व श्रम-शक्ति की भी आवश्यकता पड़ती है। गन्ना-मजदूरी और बिजली पर होने वाला व्यय चीनी के उत्पादन की मात्रा के साथ-साथ घटता-बढ़ता रहता है। यदि मिल का मालिक चीनी का उत्पादन कम कर देता है तो उपर्युक्त तीनों मदों पर व्यय स्वत: ही कम हो जाता है। इसके विपरीत, यदि वह चीनी के उत्पादन की मात्रा में वृद्धि कर देता है तो उपर्युक्त तीनों मदों पर होने वाले व्यय में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार व्यय का उत्पादन की मात्रा के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध होने के कारण ही इसे ‘प्रधान लागत अथवा ‘अस्थिर उत्पादन लागत’ भी कहते हैं। मिल के बन्द हो जाने पर अथवा उत्पादन शून्य हो जाने पर प्रधान लागत भी शून्य हो जाती है।
(ii) पूरक लागत या स्थिर लागत – पूरक लागत वह लागत होती है जो उत्पादन की मात्रा के साथ घटती-बढ़ती नहीं है। पूरक लागत को स्थिर लागत’ भी कहते हैं। अन्य शब्दों में इसको इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि यदि मिल में उत्पादन की मात्रा को पहले से दुगुना अथवा आधा कर दिया जाए तो पूरक लागत पूर्ववत् ही रहेगी। सरल शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि प्रत्येक उत्पादक को कुछ व्यय अनिवार्य रूप से ऐसे करने होते हैं जो उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर भी पूर्ववत् ही रहते हैं; जैसे – भवन व जमीन का किराया, पूँजी पर दिया जाने वाला ब्याज, बीमा शुल्क, मशीनों व यन्त्रों का मूल्य ह्रास, व्यवस्थापकों को वेतन आदि। यदि कारखाने में उत्पादन की मात्रा में एक सीमा तक वृद्धि की जाती है तो पूरक लागत में वृद्धि नहीं होती है, परन्तु जब उत्पत्ति उस सीमा को पार कर जाती है तो पूरक लागत में भी वृद्धि होने लगती है।



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