1.

ऊधौ मन न भये दस बीस।।एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, कौ अवराधै ईस ॥इंद्री सिंथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के इंस।सूर हमारें नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस ॥

Answer»

[ हुतौ = हुआ करता था। अवराधै = आराधना करे। ईस = निर्गुण ब्रह्म। देही = शरीरधारी। बरीस = वर्ष। सखा = मित्र। जोग के ईस = योग के ज्ञाता, मिलन कराने में निपुण।]

प्रसंग–प्रस्तुत पद भ्रमर-गीत प्रसंग का एक सरस अंश है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियाँ अत्यधिक व्याकुल हैं। उद्धव जी गोपियों को योग का सन्देश देने मथुरा से गोकुल आये हैं। गोपियाँ योग की शिक्षा ग्रहण करने में अपने को असमर्थ बताती हैं और अपनी मनोव्यथा को उद्धव के समक्ष व्यक्त करती हैं।

व्याख्या-गोपियाँ उद्धव जी से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे मन दस-बीस नहीं हैं। सभी की तरह हमारे पास भी एक मन था और वह श्रीकृष्ण के साथ चला गया है; अत: हम मन के बिना तुम्हारे बताये गये निर्गुण ब्रह्म की आराधना कैसे करें? अर्थात् बिना मन के ब्रह्म की आराधना सम्भव नहीं है। श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो गयी हैं और हमारी दशा बिना सिर के प्राणी जैसी हो गयी है। हम कृष्ण के बिना मृतवत् हो  गयी हैं, जीवन के लक्षण के रूप में हमारी श्वास केवल इस आशा में चल रही है कि श्रीकृष्ण मथुरा से अवश्य लौटेंगे और हमें उनके दर्शन प्राप्त हो जाएँगे। श्रीकृष्ण के लौटने की आशा के सहारे तो हम करोड़ों वर्षों तक जीवित रह लेंगी। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! तुम तो कृष्ण के अभिन्न मित्र हो और सम्पूर्ण योग-विद्या तथा मिलन के उपायों के ज्ञाता हो। यदि तुम चाहो तो हमारा योग (मिलन) अवश्य करा सकते हो। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हम तुम्हें यह स्पष्ट बता देना चाहती हैं कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण को छोड़कर हमारा कोई आराध्य नहीं है। हम तो उन्हीं की परम उपासिका हैं।

काव्यगत सौन्दर्य-

(1) प्रस्तुत पद में गोपियों की विरह दशा और श्रीकृष्ण के प्रति उनके एकनिष्ठ प्रेम का मार्मिक वर्णन है।
(2) भाषा-सरल, सरस और मधुर ब्रज।
(3) शैली–उक्ति वैचित्र्यपूर्ण मुक्तक।
(4) छन्द-गेय पद।
(5) रस-श्रृंगार रस (वियोग)।
(6) अलंकार-‘सखा स्याम सुन्दर के’ में अनुप्रास ‘जोग’ में श्लेष तथा ‘ज्यौं देही बिनु सीस’ में उपमा
(7) गुण-माधुर्य।
(8) शब्दशक्ति–व्यंजना।
(9) इन्द्रियाँ दस होती हैं—

⦁    पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ–
⦁    नासिका
⦁    रसना
⦁    नेत्र
⦁    त्वचा
⦁    श्रवण

⦁    पाँच कर्मेन्द्रियाँ–
⦁    हाथ
⦁    पैर
⦁    वाणी
⦁    गुदा
⦁    लिंग

(10) एकनिष्ठ प्रेम का ऐसा ही भाव तुलसीदास ने भी व्यक्त किया है
एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ॥



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