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51.

अधिकार क्या हैं और वे महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार क्या हो सकते हैं?

Answer»

‘अधिकार’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के दो शब्दों ‘अधि’ और ‘कार’ से मिलकर हुई है। जिनका क्रमशः अर्थ है ‘प्रभुत्व’ और ‘कार्य’। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में अधिकार का अभिप्राय उस कार्य से है, जिस पर व्यक्ति का प्रभुत्व है। मानव एक सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज के अन्तर्गत ही व्यक्तित्व के विकास के लिए उपलब्ध सुविधाओं का उपभोग करता है। इन सुविधाओं अथवा अधिकारों के उपयोग से ही व्यक्ति, अपने शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक विकास का अवसर प्राप्त करता है। संक्षेप में, अधिकार मनुष्य के जीवन की यह अनिवार्य परिस्थिति है, जो विकास के लिए आवश्यक है तथा जिसे राज्य और समाज द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है।
अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार निम्नलिखित हो सकते हैं-

⦁    सम्मान और गरिमापूर्ण जीवन बसर करने के लिए अधिकारों का दावा किया जा सकता है।
⦁    अधिकारों की दावेदारी का दूसरा आधार यह है कि वे हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं।

52.

किन्हीं चार राजनीतिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए।

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नागरिकों के चार प्रमुख राजनीतिक अधिकार निम्नलिखित हैं

⦁     मतदान का अधिकार- लोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था में नागरिकों को प्रदत्त मतदान का अधिकार अन्य अधिकारों में सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस अधिकार द्वारा नागरिक अपने प्रतिनिधियों को निर्वाचित करके विधायिकाओं में भेजते हैं।
⦁     निर्वाचित होने का अधिकार– प्रत्येक नागरिक को निर्वाचित होने का अधिकार प्राप्त होता है। जब तक नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक वे शासन-संचालन में भाग नहीं ले सकते हैं। इस अधिकार की प्राप्ति की लिंग, जाति, सम्प्रदाय, धर्म आदि का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
⦁     सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार-  प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता, क्षमता तथा अनुभव के आधार पर सरकारी पद प्राप्त करने का समान अवसर एवं अधिकार होना चाहिए। इसमें किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए।
⦁     प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार- इस अधिकार के आधार पर नागरिक असुविधा, कष्ट अथवा असामान्य परिस्थितियों में प्रार्थना-पत्र द्वारा राज्य का ध्यान अपनी समस्याओं की ओर आकृष्ट कर सकते हैं।

53.

अधिकारों के अस्तित्व के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।

Answer»

यह बात सर्वमान्य है कि व्यक्ति अपने अधिकारों का प्रयोग सामाजिक पृष्ठभूमि में करता है। अधिकारों की अवधारणा के मूल में यह बात स्पष्टयता परिलक्षित होती है कि व्यक्ति अधिकारों का प्रयोग अपने हित में करने के साथ-साथ सामाजिक हितों में भी करे। जब तक कोई अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत नहीं है, तब तक वह अस्तित्वहीन ही रहता है; उदाहरणार्थ-नागरिक को अपनी इच्छानुसार जीवन-यापन करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन साथ-ही-साथ उसका यह कर्तव्य भी बन जाता है कि उसकी यह स्वेच्छा सामाजिक एवं नैतिक मानदण्डों को पूरा करती है कि नहीं। यदि आपके अधिकार सामाजिक व नैतिक मर्यादा का उल्लंघन करते हैं, तो इन्हें सामाजिक स्वीकृति नहीं दी जा सकती। इस पर अधिकारों के अस्तित्व के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। समाज कभी भी व्यक्ति के जुआ खेलने, मद्यपान करने, वेश्यावृत्ति करने तथा दूसरे का अहित करने के अधिकार को मान्यता प्रदान नहीं करता है। समाज केवल उन्हीं अधिकारों को स्वीकृति प्रदान करता है जो समाज में सहयोग, भाई-चारे तथा सामंजस्य की भावना को सुदृढ़ करते हैं।

54.

किन्हीं चार महत्त्वपूर्ण सामाजिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

व्यक्ति के चार महत्त्वपूर्ण सामाजिक अधिकार निम्नलिखित हैं

⦁     जीवन-सुरक्षा का अधिकार- प्रत्येक मनुष्य को जीवन का अधिकार है। यह अधिकार | मौलिक तथा आधारभूत है, क्योंकि इसके अभाव में अन्य अधिकारों का अस्तित्व महत्त्वहीन है।
⦁     समानता का अधिकार- समानता का तात्पर्य है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति के रूप में व्यक्ति का समान रूप से सम्मान किया जाए तथा उसे उन्नति के समान अवसर प्रदान किए जाएँ।
⦁     स्वतन्त्रता का अधिकार- स्वतन्त्रता का अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में अपरिहार्य है। स्वतन्त्रता के अधिकार के आधार पर व्यक्ति अपनी इच्छा से बिना किसी बाह्य बन्धन के अपने जीवन के विकास का ढंग निर्धारित कर सकता है।
⦁     सम्पत्ति का अधिकार- समाज में व्यक्ति वैध तरीकों से सम्पत्ति का अर्जन करता है। अत: उसे यह अधिकार होना चाहिए कि वह स्वतन्त्र रूप से अर्जित किए हुए धने का उपयोग स्वेच्छा से अपने व्यक्तित्व विकास के लिए कर सके।

55.

राजनीतिक अधिकारों से क्या तात्पर्य है? प्रमुख राजनीतिक अधिकार कौन-से हैं?

Answer»

राजनीतिक अधिकार
डॉ० बेनीप्रसाद के अनुसार, “राजनीतिक अधिकारों का तात्पर्य उन व्यवस्थाओं से है, जिनमें नागरिकों को शासन कार्य में भाग लेने का अवसर प्राप्त होता है अथवा नागरिक शासन प्रबन्ध को प्रभावित कर सकते हैं।” राजनीतिक अधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित अधिकारों की गणना की जा सकती है|

⦁     मत देने का अधिकार- अपने प्रतिनिधियों के निर्वाचन के अधिकार को ही मताधिकार कहते हैं। यह अधिकार लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली के अन्तर्गत प्राप्त होने वाला महत्त्वपूर्ण अधिकार है। और इस अधिकार का प्रयोग करके नागरिक अप्रत्यक्ष रूप से शासन प्रबन्ध में भाग लेते हैं। आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में विक्षिप्त, दिवालिये और अपराधियों को छोड़कर अन्य वयस्क नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त है। सामान्यतया 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके भारतीय नागरिकों को मताधिकार प्राप्त है।
⦁     निर्वाचित होने का अधिकार- मताधिकार की पूर्णता के लिए प्रत्येक नागरिक को निर्वाचित होने का अधिकार भी प्राप्त होता है। निर्धारित अर्हताओं को पूरा करने पर कोई भी नागरिक किसी भी राजनीतिक संस्था के निर्वाचित होने के लिए चुनाव लड़ सकता है।
⦁     सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार- व्यक्ति का तीसरा राजनीतिक अधिकार सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार है। राज्य की ओर से नागरिकों को योग्यतानुसार उच्च सरकारी पद प्राप्त करने की सुविधा होनी चाहिए। इस अधिकार के अन्तर्गत किसी भी नागरिक को धर्म, वर्ण तथा जाति के आधार पर सरकारी पदों से वंचित नहीं किया जाएगा। डॉ० बेनीप्रसाद के अनुसार, “इस अधिकार का यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को सरकारी पद प्राप्त हो। जाएगा, वरन् इसका यह अर्थ है कि उन सभी व्यक्तियों को सरकारी पद की प्राप्ति होगी, जो उस पद को पाने की योग्यता रखते हैं।”
⦁     आवेदन-पत्र देने का अधिकार- प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए कि | वह आवेदन-पत्र देकर सरकार का ध्यान अपनी समस्याओं की ओर आकर्षित कर सके।
⦁     विदेशों में सुरक्षा का अधिकार- राज्य को चाहिए कि वह अपने उन नागरिकों, जो विदेशों में जाते हैं, की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करे।

56.

अधिकारों के तत्त्व अथवा लक्षणों की विवेचना कीजिए।

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अधिकार के तत्त्व अथवा लक्षण
अधिकार के अनिवार्य तत्त्वों, लक्षणों अथवा विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित हैं
⦁     अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं- अधिकार के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। जब किसी माँग को समाज स्वीकार कर लेता है, तब वह अधिकार बन जाती है। प्रो० आशीर्वादी लाल के अनुसार, “प्रत्येक अधिकार के लिए समाज की स्वीकृति अनिवार्य होती है। ऐसी स्वीकृति के अभाव में अधिकार केवल कोरे दावे रह जाते हैं।”
⦁     सार्वभौमिक– अधिकार सार्वभौमिक होते हैं अर्थात् अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रदान किए जाते हैं। अधिकारों की सार्वभौमिकता ही कर्तव्यों को जन्म देती है।
⦁     राज्य का संरक्षण- अधिकारों को राज्य का संरक्षण मिलना भी अनिवार्य है। राज्य के संरक्षण में ही व्यक्ति अपने अधिकारों का समुचित उपभोग कर सकता है। बार्कर के शब्दों में, “मानव चेतना स्वतन्त्रता चाहती है, स्वतन्त्रता में अधिकार निहित हैं तथा अधिकार राज्य की माँग करते हैं।”
⦁     अधिकारों में सामाजिक हित की भावना निहित होती है— अधिकारों में व्यक्तिगत स्वार्थ के साथ-साथ सार्वजनिक हित की भावना भी विद्यमान होती है।
⦁     कल्याणकारी स्वरूप- अधिकारों का सम्बन्ध मुख्यतः व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है। इस कारण अधिकार के रूप में केवल वे ही स्वतन्त्रताएँ और सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक होती हैं। इस प्रकार अधिकारों का स्वरूप कल्याणकारी होता है।
⦁    समाज की स्वीकृति- अधिकार उन कार्यों की स्वतन्त्रता का बोध कराता है जो व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए उपयोगी होते हैं। समाज की स्वीकृति का यह अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने अधिकारों का प्रयोग समाज के अहित में नहीं कर सकता।

57.

अधिकार की परिभाषा देते हुए उसका वर्गीकरण कीजिए।याअधिकार से क्या तात्पर्य है? अधिकार के प्रकार लिखिए।

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अधिकार मुख्यतया हकदारी अथवा ऐसा दावा है जिसका औचित्य सिद्ध हो। अधिकार की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

ऑस्टिन के अनुसार, “अधिकार व्यक्ति की वह क्षमता है, जिसके द्वारा वह अन्य व्यक्ति अथवा व्यक्तियों से कुछ विशेष प्रकार के कार्य करा लेता है।”
ग्रीन के अनुसार, “अधिकार मानव-जीवन की वे शक्तियाँ हैं, जो नैतिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति को अपना कार्य पूरा करने के लिए आवश्यक हैं।”
बोसांके के अनुसार, “अधिकार वह माँग है, जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य क्रियान्वित करता है।”
हॉलैण्ड के अनुसार, “अधिकार किसी व्यक्ति की वह क्षमता है, जिससे वह अपने बल पर नहीं, अपितु समाज के बल से दूसरों के कार्यों को प्रभावित कर सकता है।”
प्रो० लॉस्की के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं, जिनके अभाव में सामान्यतः कोई व्यक्ति अपने उच्चतम स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता।”
गार्नर के अनुसार, “नैतिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के व्यवसाय की पूर्ति के लिए आवश्यक शक्तियों को अधिकार कहा जाता है।”
श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “अधिकार समुदाय के कानून द्वारा स्वीकृत वह व्यवस्था, नियम या रीति है, जो नागरिक के सर्वोच्च नैतिक कल्याण में सहायक हो।”
डॉ० बेनीप्रसाद के अनुसार, “अधिकार वे सामाजिक दशाएँ हैं, जो मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-
⦁     अधिकार सामाजिक दशाएँ हैं।
⦁     अधिकार व्यक्ति के विकास के लिए आवश्यक तत्त्व हैं।
⦁     अधिकारों द्वारा ही व्यक्तिगत और सामाजिक प्रगति सम्भव है।
⦁     अधिकारों को समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है।

अधिकारों का वर्गीकरण (रूप अथवा प्रकार)

साधारण रूप से अधिकारों को निम्नलिखित रूपों अथवा प्रकारों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है

⦁     प्राकृतिक अधिकार- प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं, जो प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों को प्राप्त थे। परन्तु ग्रीन ने प्राकृतिक अधिकारों को आदर्श अधिकारों के रूप में माना है। उसके | अनुसार, ये वे अधिकार हैं, जो व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए आवश्यक हैं और जिनकी प्राप्ति समाज में ही सम्भव है।
⦁     नैतिक अधिकार- ये वे अधिकार हैं, जिनका सम्बन्ध मानव के नैतिक आचरण से होता है। इनका स्वरूप अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्य-पालन में अधिक निहित होता है।
⦁     कानूनी अधिकार- कानूनी अधिकार वे हैं, जिनकी व्यवस्था राज्य द्वारा की जाती है और जिनका उल्लंघन कानून द्वारा दण्डनीय होता है। लीकॉक के अनुसार, “कानूनी अधिकार के विशेषाधिकार हैं, जो एक नागरिक को अन्य नागरिकों के विरुद्ध प्राप्त होते हैं तथा जो राज्य की सर्वोच्च शक्ति द्वारा प्रदान किए जाते हैं और (उसी के द्वारा) रक्षित होते हैं।”

कानूनी अधिकार दो प्रकार के लेते हैं
(i) सामाजिक या नागरिक अधिकार (social or Civil Rights) तथा
(ii) राजनीतिक अधिकार (Political Rights)।

58.

राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के अधिकार को स्पष्ट कीजिए।

Answer»

राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार
राज्य के प्रति निष्ठा एवं भक्ति रखना और राज्य की आज्ञाओं का पालन करना व्यक्ति का कानूनी दायित्व होता है। अतः व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नहीं सकता, परन्तु व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य प्राप्त होता है। शासन के अस्तित्व का उद्देश्य सामान्य जनता का हित सम्पादित करना होता है। जब शासन जनता के हित में कार्य न करे, तब व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का केवल नैतिक अधिकार ही प्राप्त नहीं है, वरन् । यह उसका नैतिक कर्त्तव्य भी है। इस सम्बन्ध में सुकरात का मत था कि यदि व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है तो राज्य द्वारा प्रदान किए गए दण्ड को भी स्वीकार करना उसका कर्तव्य है। व्यक्तिवादी तथा अराजकतावादी विचारकों ने व्यक्ति द्वारा राज्य का विरोध करने के अधिकार का समर्थन किया है।

गांधी जी के अनुसार, “व्यक्ति का सर्वोच्च कर्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति होता है।” अत: अन्तरात्मा की आवाज पर राज्य का विरोध भी किया जा सकता है। राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इस अधिकार का प्रयोग राज्य एवं समाज के हित से सम्बन्धित सभी बातों पर विचार करके तथा विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को शासन की आलोचना करने एवं अपना दल बनाने का भी अधिकार होता है। लोकतान्त्रिक देशों में राज्य के प्रति विरोध का अधिकार जनता की इस भावना से परिलक्षित होता है कि वह राज्य के प्रति अपना दायित्व निष्ठापूर्वक न निभा रहे प्रतिनिधियों को आगे सत्ती का अवसर प्रदान नहीं करती।

59.

अधिकार राज्य की सत्ता पर, कुछ सीमाएँ लगाते हैं। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।

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अधिकार राज्य को कुछ विशिष्ट तरीकों से कार्य करने के लिए वैधानिक दायित्व सौंपते हैं। प्रत्येक अधिकार निर्देशित करता है कि राज्य के लिए क्या करने योग्य है और क्या नहीं। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति के जीवन जीने का अधिकार राज्य को ऐसे कानून बनाने के लिए बाध्य करता है। जो दूसरों के द्वारा क्षति पहुँचाने से उसे बचा सके। यह अधिकार राज्य से माँग करता है कि वह व्यक्ति को चोट या नुकसान पहुँचाने वालों को दण्डित करे। यदि कोई समाज अनुभव करता है कि जीने के अधिकार को आशय अच्छे स्तर के जीवन का अधिकार है, तो वह राज्य से ऐसी नीतियों के अनुपालन की अपेक्षा करता है, जो स्वस्थ जीवन के लिए स्वच्छ पर्यावरण और अन्य आवश्यक निर्धारकों का प्रावधान करे।

अधिकार केवल यह ही नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है, वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार कहता है कि राज्य केवल । अपनी मर्जी से उसे गिरफ्तार नहीं कर सकता। अगर वह गिरफ्तार करना चाहता है तो उसे इस । कार्यवाही को उचित ठहराना पड़ेगा, उसे किसी न्यायालय के समक्ष इस व्यक्ति की स्वतन्त्रता में कटौती करने का कारण स्पष्ट करना होगा। इसलिए किसी व्यक्ति को पकड़ने के लिए पहले गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाना पुलिस के लिए आवश्यक होता है, इस प्रकार अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ लगाते हैं।

दूसरों शब्दों में, कहा जाए तो हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतन्त्रता की मर्यादा का उल्लंघन किए बिना काम करे। राज्य सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न सत्ता हो सकता है, उसके द्वारा निर्मित कानून बलपूर्वक लागू किए जा सकते हैं, लेकिन सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य का अस्तित्व अपने लिए नहीं बल्कि व्यक्ति के हित के लिए होता है। इसमें जनता का ही अधिक महत्त्व है औ सत्तात्मक सरकार को उसके ही कल्याण के लिए काम करना होता है। शासक अपनी कार्यवाहियों के लिए जबावदेह है और उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि कानून लोगों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए ही होते हैं।

60.

“अपने कर्तव्य का पालन करो, अधिकार स्वतः तुम्हें प्राप्त हो जाएँगे।” यह किसका कथन |(क) महात्मा गांधी(ख) बेनीप्रसाद(ग) श्रीनिवास शास्त्री(घ) ग्रीन

Answer»

सही विकल्प है (क) महात्मा गांधी।

61.

अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त क्या है? संक्षेप में लिखिए।

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अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त
इसे सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार वे बाह्य साधन तथा दशाएँ हैं, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इस सिद्धान्त का समर्थन थॉमस हिल ग्रीन, बैडले, बोसांके आदि विचारक ने किया है।

इस सिद्धान्त की अग्रलिखित मान्यताएँ हैं
⦁    अधिकार व्यक्ति की माँग है।
⦁     यह माँग समाज द्वारा स्वीकृत होती है।
⦁     अधिकारों का स्वरूप नैतिक होता है।
⦁     अधिकारों का उद्देश्य समाज का वास्तविक हित है।
⦁     अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक साधन हैं।

आलोचना- इस सिद्धान्त के कतिपय दोष निम्नलिखित हैं
⦁     यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है; क्योंकि व्यक्तित्व का विकासे व्यक्तिगत पहलू है तथा राज्य एवं समाज जैसी संस्थाओं के लिए यह जानना बहुत कठिन है कि किसके विकास के लिए क्या आवश्यक है।
⦁     यह व्यक्ति के हितों पर अधिक बल देता है तथा समाज का स्थान गौण रखता है। अतः व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए समाज के हितों के विरुद्ध कार्य कर सकता है।
⦁     मानव-जीवन के विकास की आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं, इनका निर्णय कौन करेगा तथा ये किस-किस प्रकार उपलब्ध होंगी-इन बातों का स्पष्टीकरण नहीं होता है। अतः इस सिद्धान्त की आधारशिला ही अवैज्ञानिक है।

निष्कर्ष- अध्ययनोपरान्त हम कह सकते हैं कि अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ही सर्वोपयुक्त है, क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों की उत्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व | के सर्वांगीण विकास के लिए है। राज्य तथा समाज तो केवल व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यवस्था करने के साधन मात्र हैं। व्यक्ति समाज के कल्याण में ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।