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This section includes InterviewSolutions, each offering curated multiple-choice questions to sharpen your knowledge and support exam preparation. Choose a topic below to get started.

1.

उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त कुल कितने न्यायाधीश होते हैं?(क) 23(ख) 24(ग) 30(घ) 26

Answer»

सही विकल्प है (ग) 30.

2.

परिवार न्यायालय की स्थापना क्यों की गई ?

Answer»

देश में बढ़ते विवाह यो दहेज़ संबंधी मामले तथा नाबालिग बच्चों से संबंधित मामलों को सुलझाने के लिए परिवार न्यायालय की स्थापना की गई।

3.

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए (भरकर)-(क) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ___ वर्ष की आयु तक ही कार्य कर सकता है।(ख) जिला न्यायाधीश की नियुक्ति उसे राज्य के ____ द्वारा की जाती है।(ग) उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत हर भारतीय ____ को संरक्षण दिया जाता है।(घ) मारपीट के मामले ____ मुकदमे कहलाते हैं।

Answer»

(क) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक ही कार्य कर सकता है।
(ख) जिला न्यायाधीश की नियुक्ति उसे राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाती है।
(ग) उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत हर भारतीय उपभोक्ता को संरक्षण दिया जाता है।
(घ) मारपीट के मामले फौजदारी मुकदमे कहलाते हैं।

4.

उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश के पदच्युति का प्रस्ताव करने के लिए संविधान में क्या आधार बताए गए हैं?

Answer»

केवल ‘प्रमाणित कदाचार तथा ‘असमर्थता की स्थिति में ही उसके विरुद्ध पदच्युति का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जा सकता है।

5.

संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की कार्यवाहियों की अधिकृत भाषा है(क) केवल अंग्रेजी(ख) अंग्रेजी तथा हिन्दी(ग) अंग्रेजी तथा कोई भी क्षेत्रीय भाषा(घ) अंग्रेजी तथा आठवीं सूची में निर्दिष्ट भाषा

Answer»

सही विकल्प है (क) केवल अंग्रेजी।

6.

लोक अदालत में किस प्रकार के मुकदमे सुलझाए जाते हैं ?

Answer»

लोक अदालतों में वाहन दुर्घटना, पेंशन संबंधी मुकदमे, भूमि अधिग्रहण संबंधी मुकदमे, विवाह/पारिवारिक मुकदमे तथा उपभोक्ता आदि से संबंधित मुकदमे सुलझाए जाते हैं।

7.

क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों

Answer»

भारतीय न्यायपालिका को न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति प्राप्त है जिसके आधार पर न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी आदेशों की संवैधानिक वैधता की जाँच कर सकती है, अगर ये संविधान के विपरीत पाए जाते हैं तो न्यायपालिका उन्हें अवैध घोषित कर सकती है। परन्तु न्यायपालिका नीतिगत विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकती। विगत कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने अपनी इस सीमा को तोड़ा है व कार्यपालिका के कार्यों में निरन्तर हस्तक्षेप व बाधा कर रही है जिसे राजनीतिक क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता कहा जाता है जिसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका व न्यायपालिका में टकराव उत्पन्न हो गया है।

8.

न्यायपालिका किसके प्रति जवाबदेह है

Answer»

न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतान्त्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

9.

न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?

Answer»

न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से पूर्ण रूप से जुड़ी है। इसने मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को भी काफी विस्तृत कर दिया है। न्यायपालिका ने जीने के अधिकार का अर्थ यह लिया है–सम्मानपूर्ण जीवन, शुद्ध वायु, शुद्ध पानी तथा शुद्ध वातावरण में जीने का अधिकार। इसीलिए न्यायपालिका में पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने, प्रदूषण को रोकने, नदियों को साफ-सुथरा रखे जाने, उद्योगों को आवासीय क्षेत्र से बाहर निकाले जाने, आवासीय क्षेत्रों से दुकानों को हटाए जाने आदि के कितने ही आदेश दिए हैं। इस प्रकार न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को काफी व्यापक बनाया है।

10.

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में क्या व्यवस्था की गई है?

Answer»

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में कुछ व्यवस्थाएँ की गई हैं। इस सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार संविधान द्वारा संसद को दिया गया है और जिन बातों पर संविधान और संसद ने कोई व्यवस्था न की हो, ऐसी बातों पर स्वयं न्यायालय की अनुमति से कानून बन सकता है। उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई हैं –

(1) जिन विषयों का सम्बन्ध संविधान की व्याख्या के साथ हो या जिनमें कोई संवैधानिक प्रश्न उपस्थित होता हो यो कानून के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो या जिन विषयों पर विचार करने का कार्य राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय को सौंपा गया हो उनकी सुनवाई उच्चतम न्यायालय के कम-से-कम 5 न्यायाधीशों द्वारा की जाएगी।

(2) उच्चतम न्यायालय के सम्मुख किसी ऐसे मुकदमे की अपील भी पेश की जा सकती है जिसकी सुनवाई के पश्चात् यह अनुभव किया जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या करना अनिवार्य है। या कानून के अभिप्राय को तात्त्विक रूप से प्रकट करना होगा। इसी प्रकार के मुकदमे आरम्भ में 5 से कम न्यायाधीशों के सम्मुख प्रस्तुत किए जा सकते हैं। परन्तु यदि यह स्पष्ट हो जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या का स्पष्टीकरण होना आवश्यक है तो उसको भी कम-से-कम 5 न्यायाधीशों के सम्मुख उपस्थित किया जाएगा और उसकी व्याख्या के अनुसार उसका निर्णय किया जाएगा।

(3) उच्चतम न्यायालय के सभी निर्णय खुले तौर पर सम्पन्न होते हैं।

(4) उच्चतम न्यायालय के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे। परन्तु यदि निर्णय से कोई न्यायाधीश सहमत नहीं है तो वह अपना पृथक् निर्णय दे सकती है परन्तु बहुमत से हुआ निर्णय ही मान्य समझा जाएगा।

11.

जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) के अर्थ एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए।याजनहित याचिका से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय-व्यवस्था में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।

Answer»

जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) का अर्थ

न्याय के प्रसंग में परम्परागत धारणा यह रही है कि न्यायालय से न्याय पाने को हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसे स्वयं या जिसके पारिवारिक जन को कोई पीड़ा पहुँची है, किन्तु आज की परिस्थितियों में न्यायिक सक्रियतावाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने आंग्ल विधि के उपर्युक्त नियम को परिवर्तित करते हुए यह व्यवस्था की है कि कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानून या संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से दलित लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ (मुकदमा) ला सकता है। न्यायालय अपने सारे तकनीकी और कार्यविधि सम्बन्धी नियमों की परवाह किये बिना ‘वाद’ लिखित रूप में देने मात्र से ही कार्यवाही करेगा। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार, ‘वाद कारण’ और ‘पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही और लोकहित में कार्यवाही की व्यापक धारणा ने ले लिया है। ऐसे मामले व्यक्तिगत मामलों से भिन्न होते हैं। वैयक्तिक मामलों में ‘वादी’ और ‘प्रतिवादी होते हैं, जब कि जनहित संरक्षण से सम्बन्धित मामले किसी एक व्यक्ति के बजाय ऐसे समूह के हितों की रक्षा पर बल देते हैं जो कि शोषण और अत्याचार का शिकार होता है और जिसे संवैधानिक और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने गरीब और असहाय लोगों की ओर से जनहित में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मुकदमा लड़ने का अधिकार दे दिया है। इस प्रकार के मुकदमे के लिए जो . प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया जाता है, वह जनहित याचिका’ है तथा इस प्रकार का मुकदमा जनहित अभियोग है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व
जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नलिखित रूप में बताया जा सकता है –

1. समाज के निर्धन व्यक्तियों और कमजोर वर्गों को न्याय प्राप्त होना – भारत में करोड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो राजव्यवस्था और समाज के धनी-मानी व्यक्तियों के अत्याचार भुगत रहे हैं, जिनका शोषण हो रहा है, लेकिन उनके पास न्यायालय में जाने के लिए आवश्यक जानकारी, समझ और साधन नहीं हैं। जनहित याचिकाओं के माध्यम से अब समाज के शिक्षित और साधन सम्पन्न व्यक्ति इन कमजोर वर्गों की ओर से न्यायालय में जाकर इनके लिए न्याय प्राप्त कर सकते हैं। जनहित याचिकाओं की विशेष बात यह है कि ‘वाद’ प्रस्तुत करने के लिए कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना आवश्यक नहीं होता और इन मुकदमों में न्यायालय पीड़ित पक्ष के लिए आवश्यकतानुसार नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था भी करता है।
2. कानूनी न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल – जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत संविधान की भावना को दृष्टि में रखते हुए इस विचार को अपनाया गया कि देश के दीन और दलित जनों के प्रति न्यायालयों का विशेष दायित्व है। अतः इन न्यायालयों को कानूनी न्याय से आगे बढ़कर आर्थिक-सामाजिक न्याय प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के हरिजनों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं उनकी आर्थिक-सामाजिक दशाओं को जाँचने के लिए एक आयोग गठित किया आयोग की जाँच रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हरिजनों का धन्धा ठेके पर दिये जाने से उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में इस बात का प्रतिपादन किया कि यदि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दी जाती है तो इसे संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन और बेगार मानेंगे। इस प्रकार बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार’ विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बँधुआ मुक्ति मोर्चा संस्था के पत्र को रिट मानकर आयोग नियुक् कर जाँच करवाई और जाँच में जब पाया कि ‘मजदूर अमानवीय दशा में कार्यरत हैं तब न्यायालय ने इन मजदूरों की मुक्ति के आदेश दिये।
3. शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण – जनहित याचिकाओं का एक रूप और प्रयोजन शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण है। संविधान और कानून के अन्तर्गत उच्च कार्यपालिका अधिकारियों को कुछ ‘स्वविवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। इस पृष्ठभूमि में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का प्रतिपादन किया कि विवेकात्मक शक्तियों के अन्तर्गत सरकार की कार्यवाही विवेक सम्मत होनी चाहिए तथा इस कार्यवाही को सम्पन्न करने के लिए जो कार्यविधि अपनायी जाए, वह कार्यविधि भी विवेक सम्मत, उत्तम और न्यायपूर्ण होनी चाहिए।
4. शासन को आवश्यक निर्देश देना – 1993-2003 के वर्षों में तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर समस्त राजनीतिक व्यवस्था में पहले से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्राप्त कर ली। इन न्यायालयों ने जब यह देखा कि जाँच एजेन्सियाँ उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध जाँच कार्य में ढिलाई बरत रही हैं तब न्यायालयों ने विभिन्न जाँच एजेन्सियों को अपना कार्य ठीक ढंग से करने के लिए निर्देश दिये और इस बात का प्रतिपादन किया कि व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो, कानून उससे ऊपर है’ तथा सरकारी एजेन्सी को अपना कार्य निष्पक्षता के साथ करना चाहिए। पिछले 20 वर्षों में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायालयों ने बन्धुआ मजदूरी और बाल श्रम की स्थितियाँ समाप्त करने, कानून और व्यवस्था बनाये रखते हुए निर्दोष नागरिकों के जीवन की रक्षा करने, प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी संविधान के प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने, बस दुर्घटनाओं को रोकने की दृष्टि से व्यवस्था करने, सफाई की व्यवस्था कर महामारियों की रोकथाम करने, सरसों के तेल और अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने और पर्यावरण की रक्षा आदि के प्रसंग में समय-समय पर अनेक आदेश-निर्देश जारी किये हैं।

12.

न्यायपालिका की संरचना का वर्णन कीजिए।

Answer»

भारत में न्यायपालिका का बड़ा महत्व है। यह कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका से बिल्कुल अलग है तथा स्वतंत्र रूप से कार्य करती है। भारत में नीचे से लेकर ऊपर तक सभी न्यायालय एक ही व्यवस्था में संगठित हैं। जिला न्यायालय, उसके ऊपर राज्यों के उच्च न्यायालय तथा सबसे ऊपर भारत का उच्चतम (सर्वोच्च) न्यायालय होता है।

13.

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें-(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश-प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।

Answer»

उपर्युक्त कथनों में 

(ग) बेमेल कथन है जिसमें यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

14.

क्या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। 

Answer»

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय यह बिल्कुल नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह न हो, न्यायपालिका भी संविधान को ही भाग है, वह संविधान के ऊपर नहीं है। न्यायपालिका भी संविधान के अनुसार ही कार्य करेगी। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका बिना किसी अनावश्यक हस्तक्षेप के अपना कार्य करे व इसके निर्णयों को सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह भी है कि न्यायाधीश अपनी नियुक्ति के लिए, सेवाकाल के लिए, सेवाशर्ती व सेवा सुविधाओं के लिए कार्यपालिका व विधायिका पर निर्भर न हो। न्यायाधीश को हटाने का तरीका भी पक्षपातरहित हो। भारत में न्यायपालिका स्वतन्त्र है तथा उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त है।

15.

संसद व न्यायपालिका का मौलिक अधिकारों के संशोधन को लेकर टकराव, संक्षेप में। समझाइए।

Answer»

संविधान में संशोधन विशेषकर मौलिक अधिकारों में संशोधन को लेकर न्यायपालिका का संसद से निरन्तर टकराव बना रहा है। प्रारम्भ में शंकरी प्रसाद प्रकरण में न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद संविधान के किसी भी भाग में, यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है। सन् 1967 में गोलकनाथ केस में न्यायालय ने अपने इस निर्णय को बदलते हुए नया निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती। इससे न्यायपालिका व संसद में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई। संसद में गोलकनाथ केस के निर्णय को समाप्त करने के उद्देश्य से 38 व 39वाँ संविधान संशोधन किया जिन्हें 1973 में केशवानन्द भारती केस में चुनौती दी गई जिसमें यह निर्णय हुआ कि संसद, संविधान के किसी भी भाग में यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है परन्तु संविधान की मौलिक रचना में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार न्यायपालिका व संसद में टकराव होता रहा है।

16.

स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।यलोकतन्त्र में न्यायपालिका को महत्त्व इंगित कीजिए।

Answer»

स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व अथवा लाभ

न्यायपालिका अपने विविध कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है, जब वह स्वतन्त्र रूप से कार्य करे। स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है –

1. नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका ही ागरिकों की स्वतन्त्रता और मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सकती है। चान्सलर कैण्ट के अनुसार, “जहाँ कानूनों की व्याख्या करने, उन्हें लागू करने तथा अधिकारों को अमल में लाने के लिए कोई न्याय विभाग न हो, वहाँ स्वयं अपनी शक्तिहीनता के कारण शासन का विनाश हो जाएगा अथवा शासन के दूसरे विभाग के आदेशों का पालन करने के लिए उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर नागरिक स्वतन्त्रता का सर्वनाश कर देंगे।”
2. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति – निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति कराना न्यायपालिका का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है। न्यायपालिका को अपने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के सम्पादन के लिए स्वतन्त्र होना आवश्यक है। उसके कार्यों में व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका को कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
3. लोकतंत्र की सुरक्षा – लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है। लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानती हैं। अतः नागरिकों को स्वतन्त्रता और समानता के अवसर उसी समय प्राप्त हो सकेंगे, जब न्यायपालिका निष्पक्षता के साथ अपने कार्य का सम्पादन करेगी।
4. संविधान की सुरक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षक होती है। न्यायपालिका संविधान-विरोधी कानूनों को अवैध घोषित करके रद्द कर देती है। अतः संविधान के स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।
5. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण – स्वतन्त्र न्यायपालिको व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखकर शासन की कार्यकुशलता में वृद्धि करती है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रत्येक देश की शासन-प्रणाली में बहुत अधिक महत्त्व है। लोकतन्त्रात्मक शासन के लिए तो स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। वस्तुत: स्वतन्त्र न्यायपालिका के बिना एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।

17.

न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।या“आधुनिक काल में न्यायपालिका के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो गई है। इस कथन के आलोक में न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।याआधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा कीजिए।यान्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?याआधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कार्यों एवं उसकी बढ़ती हुई महत्ता की व्याख्या कीजिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने हेतु क्या व्यवस्था की जानी चाहिए?याआधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्यायपालिका के कार्यों तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन कीजिए।

Answer»

न्यायपालिका के कार्य

आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं –

1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। कार्यपालिका कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकदमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं तथा उन पर अपना न्यायपूर्ण निर्णय देती
2. कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका विधानमण्डल में बनाये हुए कानूनों की व्याख्या के साथ-साथ उन कानूनों की व्याख्या भी करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका के द्वारा की गयी कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इंकार नहीं कर सकता।
3. कानूनों का निर्माण – साधारणतया कानून-निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कानून के कई नये अर्थों को जन्म देते हैं, जिससे कानूनों का स्वरूप ही बदल जाता है और एक नये कानून का निर्माण हो जाता है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकदमे भी आते हैं, जहाँ उपलब्ध कानूनों के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं।
4. संविधान का संरक्षण – संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका पर होता है। यदि व्यवस्थापिका कोई ऐसा कानून बनाये, जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इसे शक्ति को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का नाम दिया गया है संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त होता है। इसी प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है।
5. संघ का संरक्षण – जिन देशों ने संघात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया है, वहाँ न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन-प्रणाली में कई बार केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इनका निर्णय न्यायपालिका द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के कार्य में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के कार्यों में।
6. नागरिक अधिकारों का संरक्षण – लोकतन्त्र को जीवित रखने के लिए नागरिकों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की जाती तो कार्यपालिका निरंकुश और तानाशाह बन सकती है। नागरिकों की स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अनेक राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का संविधान में उल्लेख कर दिया गया है जिससे उन्हें संविधान और न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह सदैव यह दृष्टि में रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके।
7. परामर्श देना – कई देशों में न्यायपालिका कानून सम्बन्धी परामर्श भी देती है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है, परन्तु इस सलाह को मानना या न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर है।
8. प्रशासनिक कार्य – कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासकीय नियंत्रण रहता है।
9. आज्ञा-पत्र जारी करना – न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे अमुक कार्य नहीं कर सकते और यह किसी कार्य को करवा भी सकती है। यदि वे कार्य न किये जाएँ तो न्यायालय बिना अभियोग चलाये दण्ड दे सकता है अथवा मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।
10. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड के कार्य – न्यायपालिका कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड को भी कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकदमों के निर्णयों तथा सरकार को दिये गये परामर्शो का रिकॉर्ड भी रखना पड़ता है। इन निर्णयों तथा परामर्शो की प्रतियाँ किसी भी समय, प्राप्त की जा सकती हैं।

न्यायपालिका का महत्त्व

व्यक्ति एक विचारशील प्राणी है और इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उसके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन-कार्य करते हुए शासक वर्ग अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके। इन कार्यों को करने वाली सत्ता का नाम ही न्यायपालिका है।

राज्य के आदिकाल से लेकर आज तक किसी-न-किसी रूप में न्याय विभाग का अस्तित्व सदैव ही रहा है और सामान्य जनता के दृष्टिकोण से न्यायिक कार्य का सम्पादन सर्वाधिक महत्त्व रखता है। राज्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी ही पूर्ण और श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय करने में पक्षपात किया जाता है, अनावश्यक व्यय और विलम्ब होता है या न्याय विभाग में अन्य किसी प्रकार का दोष है तो जनजीवन नितान्त दु:खपूर्ण हो जाएगा। न्याय विभाग के सम्बन्ध में बाइस ने अपनी श्रेष्ठ शब्दावली में कहा है, “न्याय विभाग की कुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता की दूसरी कोई भी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और चीज से नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता है, जितना कि उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र व अपक्षपाती न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है। वर्तमान समय में तो न्यायपालिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योंकि अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ न्यायपालिका संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाये रखने हेतु उपाय

स्वतन्त्र न्यायपालिका उत्तम शासन की कसौटी है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का संगठन और कार्यविधि ऐसी हो जिससे वह बिना किसी भय और दबाव के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके। स्वतन्त्र न्यायपालिका बनाये रखने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था होनी चाहिए –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल – अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल का निर्धारण कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है। नियुक्ति का आधार योग्यता और प्रतिभा को बनाया जाता है।
2. न्यायाधीशों का वेतन – न्यायाधीशों को वेतन के रूप में अच्छी धनराशि मिलनी चाहिए। उचित वेतन होने पर ही वे निष्पक्षता और ईमानदारी से काम कर पाएँगे।
3. न्यायाधीशों की पदोन्नति – न्यायाधीशों की पदोन्नति के भी निश्चित नियम होने चाहिए। योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही न्यायाधीशों की पदोन्नति होनी चाहिए। पदोन्नति का अधिकार नियुक्त करने वाली संस्था या कार्यपालिका को न होकर उच्चतम न्यायालय को होना चाहिए।
4. न्यायाधीशों को हटाना – न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। न्यायाधीशों को भ्रष्ट या अयोग्य होने पर ही उनके पद से हटाया जाना। चाहिए।
5. न्याय तथा शासन सम्बन्धी कार्यों का विभाजन – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी अनिवार्य है कि शासन तथा न्याय विभाग दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हों। यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका पृथक् नहीं हैं तो न्यायाधीश अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अपनी न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं।
6. न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देने से अलग रखा जाना – सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायाधीश को अन्य किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
7. न्यायाधीशों के निर्णयों, कार्यों और चरित्र की अनुचित आलोचना पर प्रतिबन्ध –  न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों के कार्यकाल में कोई भी उनके वैयक्तिक चरित्र अथवा कार्यों पर टिप्पणी न करे और उनके निर्णयों की आलोचना न करे।

18.

“सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक ही नहीं बल्कि उसे न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति भी प्राप्त है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।

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सर्वोच्च न्यायालय संविधान की पवित्रता की रक्षा भी करता है। यदि संसद संविधान का अतिक्रमण करके कोई कानून बनाती है तो उच्चतम न्यायालय उस कानून को अवैध घोषित कर सकता है। संक्षेप में, सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है, जो संविधान के विपरीत हों। इसी प्रकार वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के संविधान का अतिक्रमण करने वाले आदेशों को भी अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला (Interpreter) अन्तिम न्यायालय है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का अधिकार है, क्योंकि इसे कानूनों की वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति प्राप्त है। इस शक्ति के आधार पर न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार का अतिक्रमण करने वाले अनेक कानूनों को गोलकनाथ केस, सज्जनसिंह केस तथा केशवानन्द भारती केस में अवैध घोषित किया है।

19.

लोकतन्त्र में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।यान्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए।यान्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए।

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न्यायपालिका की स्वतन्त्रता

न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं –

1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।
2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतन्त्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

20.

न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।यालोकतन्त्रात्मक शासन में स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए।

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किसी लोकतन्त्रात्मक शासन में एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है –

1. लोकतन्त्र की रक्षा हेतु – लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतन्त्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता-इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतन्त्र न्यायपालिका को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ कहा जाता है।
2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।
3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतन्त्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।
4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका को स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य – न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं –
1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।
2. लेख जारी करना – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालये उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।