InterviewSolution
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कान्ह भये बस बाँसुरी के, अब कौन सखी, हमकौं चहिहै ।निसद्यौस रहै सँग-साथ लगी, यह सौतिन तापन क्यौं सहिहै ॥जिन मोहि लियौ मनमोहन कौं, रसखानि सदा हमकौं दहिहै ।मिलि आओ सबै सखि, भागि चलें अब तो ब्रज मैं बँसुरी रहिहै ॥ |
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Answer» [चहिहै = चाहेगा। निसद्यौस = रात-दिन। तापन = सन्तापों को। सहिहै = सहन करेगी। मोहि लियौ = मोहित कर लिया है। दहिहै = जलाती है। प्रसंग-इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण के वंशी-प्रेम एवं गोपियों के उसके प्रति सौतिया डाह का सजीव वर्णन किया गया है। व्याख्या–एक गोपी अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! श्रीकृष्ण अब बाँसुरी के वश में हो गये हैं, अब हमसे कौन प्रेम करेगा? श्रीकृष्ण हमसे बहुत प्रेम करते थे, किन्तु अब वे इस दुष्ट बाँसुरी से प्रेम करने लगे हैं। यह बाँसुरी रात-दिन उनके साथ लगी रहती है। यह अब गोपीरूपी सौत की ईष्र्या के सन्ताप को क्यों सहन करेगी? जिस बाँसुरी ने हमारे मन को मोहने वाले कृष्ण को अपने प्रेम से मोहित कर लिया है, वह हमें सदी ईर्ष्या से जलाती रहेगी। हे सखी! आओ हम सब मिलकर ब्रज छोड़कर अन्यत्र चलें; क्योंकि यहाँ अब केवल बाँसुरी ही रह सकेगी अर्थात् कृष्ण के प्रेम से वंचित होकर हमारा अब ब्रज में निर्वाह नहीं हो सकता। काव्यगत सौन्दर्य- सखी री, मुरली लीजै चोरि । |
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| 2. |
जा दिन तें वह नंद को छोहरा, या बन धेनु चराई गयी है।मोहिनी ताननि गोधन गावत, बेनु बजाइ रिझाइ गयौ है ॥वा दिन सो कछु टोना सो कै, रसखानि हियै मैं समाई गयी है।कोऊ न काहू की कानि करै, सिगरो ब्रज बीर बिकाइ गयौ है । |
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Answer» [ छोहरा = पुत्र। धेनु = गाय। बेनु = वंशी। टोना = जादू। सिगरो = सम्पूर्ण।] | प्रसंग-इस पद्य में ब्रज की गोपियों पर श्रीकृष्ण के मनमोहक प्रभाव का सुन्दर चित्रण हुआ है। व्याख्या–एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी! जिस दिन से वह नन्द का लाड़ला बालक इस वन में आकर गायों को चरा गया है तथा अपनी मोहनी तान सुनाकर और वंशी बजाकर हम सबको रिझा गया है, उसी दिन से ऐसा जान पड़ता है कि वह कोई जादू-सा करके हमारे मन में बस गया है। इसलिए अब कोई भी गोपी किसी की मर्यादा का पालन नहीं करती है, उन्होंने तो अपनी लज्जा एवं संकोच सब कुछ त्याग दिया है। ऐसा मालूम पड़ता है कि सम्पूर्ण ब्रज ही उस कृष्ण के हाथों बिक गया है, अर्थात् उसके वशीभूत हो गया है। | काव्यगत सौन्दर्य- ⦁ यहाँ गोपियों पर कृष्ण-प्रेम के जादू का सजीव वर्णन किया गया है। |
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| 3. |
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी ।खेलत खात फिरै अँगनी, पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी ॥वा छबि को रसखानि बिलोकत, वारत काम कला निज कोटी ।काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सों लै गयौ माखन-रोटी ॥ |
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Answer» [ बनी = सुशोभित। पैंजनी = पायजेब। पीरी = पीला। कछोटी = कच्छा। सजनी = सखी।] | प्रसंग–इसे पद्य में कवि ने बालक कृष्ण के मोहक रूप का चित्रण किया है। श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को देखकर एक गोपी अपनी सखी से उनके सौन्दर्य का वर्णन करती है। व्याख्या–हे सखी! श्यामवर्ण के कृष्ण धूल से धूसरित हैं और अत्यधिक शोभायमान हो रहे हैं। वैसे ही उनके सिर पर सुन्दर चोटी सुशोभित हो रही है। वे खेलते और खाते हुए अपने घर के आँगन में विचरण कर रहे हैं। उनके पैरों में पायल बज रही है और वे पीले रंग की छोटी-सी धोती पहने हुए हैं। रसखान कवि कहते हैं कि उनके उस सौन्दर्य को देखकर कामदेव भी उन पर अपनी कोटि-कोटि कलाओं को न्योछावर करता है। हे सखी! उस कौवे के भाग्य का क्या कहना, जो कृष्ण के हाथ से मक्खन और रोटी छीनकर ले गया। भाव यह है कि कृष्ण की जूठी मक्खन-रोटी खाने का अवसर जिसको प्राप्त हो गया, वह धन्य है। काव्यगत सौन्दर्य- |
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| 4. |
आजु गयी हुती भोर ही हौं, रसखानि रई बहि नंद के भौनहिं ।।वाको जियौ जुग लाख करोर, जसोमति को सूख जात कह्यौ नहिं॥तेल लगाइ लगाई कै अँजन, भौंहैं बनाई बनाई डिठौनहिं ।डारि हमेलनि हार निहारत बारत ज्यौं पुचकारत छौनहिं ॥ |
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Answer» [ हुती = थी। भोर = प्रात:काल। हौं = मैं। रई बहि = प्रेम में डूब गयी। भौनहिं = भवन में। वाको = उसका, यशोदा का। जुग = युग। डिठौनहिं == काला टीका। हमेलनि = हमेल (सोने का एक आभूषण) को। निहारत = देख रही थी। बारत = न्योछावर करते हुए। पुचकारत = पुचकार रही थी। छौनहिं = पुत्र को।] प्रसंग-इसे पद्य में कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति यशोदा के वात्सल्य भाव का चित्रण किया है। व्याख्या-एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी ! आज प्रात:काल के समय श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्न हुई मैं नन्द जी के घर गयी थी। मेरी कामना है कि उनका पुत्र श्रीकृष्ण लाखों-करोड़ों युगों तक जीवित रहे। यशोदा के सुख के बारे में कुछ कहते नहीं बनता है; अर्थात् उनको अवर्णनीय सुख की प्राप्ति हो रही है। वे अपने पुत्र का श्रृंगार कर रही थीं। वे श्रीकृष्ण के शरीर में तेल लगाकर आँखों में काजल लगा रही थीं। उन्होंने उनकी सुन्दर-सी भौंहें सँवारकर बुरी नजर से बचाने के लिए माथे पर टीका (डिठौना) लगा दिया था। वे उनके गले में सोने का हार डालकर और एकाग्रता से उनके रूप को निहारकर अपने जीवन को न्योछावर कर रही थीं और प्रेमावेश में बार-बार अपने पुत्र को पुचकार रही थीं। काव्यगत सौन्दर्य- |
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मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन ।जौ पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन ॥पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर-धारन ।जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन ॥ |
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Answer» [ मानुष = मनुष्य। ग्वारन = ग्वाले। धेनु = गाय। मॅझारन = मध्य में। पाहन = पाषाण, पत्थर। पुरंदर = इन्द्रा खग = पक्षी। बसेरो करौं = निवास करू। कालिंदी-कूल = यमुना का किनारा। डारन = डाल पर, शाखा पर।] प्रसंग-इस पद्य में रसखान ने पुनर्जन्म में विश्वास व्यक्त किया है और अगले जन्म में श्रीकृष्ण की जन्म-भूमि (ब्रज) में जन्म लेने एवं उनके समीप ही रहने की कामना की है। व्याख्या-रसखान कवि कहते हैं कि हे भगवान्! मैं मृत्यु के बाद अगले जन्म में यदि मनुष्य के रूप में जन्म प्राप्त करू तो मेरी इच्छा है कि मैं ब्रजभूमि में गोकुल के ग्वालों के मध्य निवास करूं। यदि मैं पशु योनि में जन्म ग्रहण करू, जिसमें मेरा कोई वश नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि मैं नन्द जी की गायों के बीच विचरण करता रहूँ। यदि मैं अगले जन्म में पत्थर ही बना तो भी मेरी इच्छा है कि मैं उसी गोवर्धन पर्वत का पत्थर बनें, जिसे आपने इन्द्र का घमण्ड चूर करने के लिए और जलमग्न होने से गोकुल ग्राम की रक्षा करने के लिए अपनी अँगुली पर छाते के समान उठा लिया था। यदि मुझे पक्षी योनि में भी जन्म लेना पड़ा तो भी मेरी इच्छा है कि मैं यमुना नदी के किनारे स्थित कदम्ब वृक्ष की शाखाओं पर ही निवास करू। काव्यगत सौन्दर्य- |
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निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा रस है, उसके स्थायी भाव का नाम लिखिए(क) तेल लगाइ लगाह के अंजन, भाँहँ बनाइ बनाइ डिठौनहिं ।(ख) जिन मोहि लियौ मनमोहन , रसखानि सदा हम दहिहै ।मिलि आओ सबै सखि भागि चलें अब तो ब्रज में बँसुरी रहिहै ।। |
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Answer» (क) रसवात्सल्य, स्थायी भाव-स्नेह (रति)। (ख) रस-श्रृंगार, स्थायी भाव–रति। |
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गोरज बिराजै भाल लहलही बनमाल,आगे गैयाँ पाछे ग्वाल गावै मृदु बानि री।तैसी धुनि बाँसुरी की मधुर-मधुर जैसी,बंक चितवन मंद मंद मुसंकानि री ॥कदम बिटप के निकट तटिनी के तट,अटा चढ़ि चाहि पीत पट फहरानि री ।रस बरसावै तन-तपनि बुझावै नैन,प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री ॥ |
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Answer» [ गोरज = गायों के पैरों से उड़ी हुई धूल। लहलही = शोभायमान हो रही है। बानि = वाणी। बंक = टेढ़ी। तटिनी = (यमुना) नदी। तन-तपनि = शरीर की गर्मी।] प्रसंग-इन पंक्तियों में सायं के समय वन से गायों के साथ लौटते हुए कृष्ण की अनुपम शोभा का वर्णन एक गोपी अपनी सखी से कर रही है। व्याख्या-गोपी कहती है कि हे सखी! वन से गायों के साथ लौटते हुए कृष्ण के मस्तक पर गायों के चलने से उड़ी धूल सुशोभित हो रही है। उनके गले में वन के पुष्पों की माला पड़ी हुई है। कृष्ण के आगे-आगे गायें चल रही हैं और पीछे मधुर स्वर में गाते हुए ग्वाल-बाल चल रहे हैं। जितनी मधुर और बाँकी श्रीकृष्ण की चितवन है, उतनी ही बाँकी उनकी धीमी-धीमी मुस्कान हैं। उनकी इस मधुर छवि के अनुरूप ही उनकी वंशी की मधुर-मधुर तान है। हे सखी! कदम्ब वृक्ष के पास यमुना नदी के किनारे खड़े कृष्ण के पीले वस्त्रों का फहराना, जरा अटारी पर चढ़कर तो देख लो। रस की खान वह श्रीकृष्ण चारों ओर सौन्दर्य और प्रेम-रस की वर्षा करते हुए शरीर और मन की जलन को शान्त कर रहे हैं। उनका सौन्दर्य नेत्रों की प्यास को बुझा रहा है और प्राणों को अपनी ओर खींचकर रिझा रहा है। काव्यगत सौन्दर्य- ⦁ प्रस्तुत छन्द में गोचारण से लौटते हुए श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का मोहक चित्रण हुआ है। |
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मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरें पहिरौंगी।ओढिपितम्बर लै लकुटी, बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी॥भावतो वोहि मेरो रसखानि, सो तेरे कहै सब स्वाँग करौंगी।या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरींगी ॥ |
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Answer» [ मोर-पखा = मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट गरें = गले में। पितम्बर = पीताम्बर, पीला वस्त्र। लकुटी = छोटी लाठी। स्वाँग = श्रृंगार अभिनय। अधरान = होंठों पर। अधरा न= होंठों पर नहीं प्रसंग-प्रस्तुत सवैये में कृष्ण के वियोग में व्याकुल गोपियों की मनोदशा का मोहक वर्णन किया गया है। कृष्ण-प्रेम में मग्न गोपियाँ कृष्ण का वेश धारणकर अपने हृदय को सान्त्वना देती हैं। व्याख्या-एक गोपी अपनी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! मैं तुम्हारे कहने से अपने सिर पर मोर के पंखों से बना मुकुट धारण करूंगी, अपने गले में गुंजा की माला पहन लूंगी, कृष्ण की तरह पीले वस्त्र पहनकर और हाथ में लाठी लिये हुए ग्वालों के साथ गायों को चराती हुई वन-वने घूमती रहूंगी। ये सभी कार्य मुझे अच्छे लगते हैं और तेरे कहने से मैं कृष्ण के सभी वेश भी धारण कर लूंगी, परन्तु उनके होठों पर रखी हुई बाँसुरी का अपने होठों से स्पर्श नहीं करूंगी। तात्पर्य यह है कि कृष्ण गोपियों के प्रेम की परवाह न करके दिनभर बाँसुरी को साथ रखते हैं और उसे अपने होंठों से लगाये रहते हैं; अत: गोपियाँ उसे सौत मानकर उसका स्पर्श भी नहीं करना चाहती हैं; क्योंकि वह श्रीकृष्ण के ज्यादा ही मुँह लगी हुई है। काव्यगत सौन्दर्य- |
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