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This section includes InterviewSolutions, each offering curated multiple-choice questions to sharpen your knowledge and support exam preparation. Choose a topic below to get started.

1.

संदर्भ समूह का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

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संदर्भ समूह से अभिप्राय उस समूह से है जिसको व्यक्ति अपना आदर्श स्वीकार करते हैं। जिसके सदस्यों के अनुरूप बनना चाहते हैं तथा जिसकी जीवन-शैली का अनुकरण करते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि हम संदर्भ समूहों के सदस्य नहीं होते हैं। हम संदर्भ समूहों से अपने आप को अभिनिर्धारित अवश्य करते हैं। आधुनिक समाजों में संदर्भ समूह संस्कृति, जीवन-शैली, महत्त्वाकांक्षाओं तथा लक्ष्य प्राप्ति के बारे में जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में अनेक मध्यमवर्गीय भारतीय अंग्रेजों को संदर्भ समूह मानते हुए अंग्रेजों की भाँति व्यवहार करने की आकांक्षा करते थे। वे अंग्रेजों की भाँति पोशाक धारण करना चाहते थे तथा उन्हीं की भाँति भोजन करना चाहते थे। समुदाय समूह के साथ सुप्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान रॉबर्ट के मर्टन का नाम जुड़ा हुआ है।

2.

अंतःसमूह एवं बाह्य समूह में अंतर स्पष्ट कीजिए।

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अंत:समूह एवं बाह्य समूह में पाए जाने वाले प्रमुख अंतर निम्न प्रकार हैं-

⦁    अंत:समूह को व्यक्ति अपना समूह मानता है अर्थात् इसके सदस्यों में अपनत्व की भावना पाई जाती है, जबकि बाह्य समूह को व्यक्ति पराया समूह मानता है अर्थात् इसके सदस्यों के प्रति अपनत्व की भावना का अभावं पाया जाता है।
⦁    अंत:समूह के सदस्यों में पाए जाने वाले संबंध घनिष्ठ होते हैं, जबकि बाह्य समूह के सदस्यों के प्रति घनिष्ठता नहीं पायी जाती है।
⦁    अंत:समूह के सदस्य अपने समूह के दु:खों एवं सुखों को अपना दु:ख एवं सुख मानते हैं, जबकि बाह्य समूह के प्रति इस प्रकार की भावना का अभाव होता है।
⦁    अंत:समूह के सदस्य प्रेम, स्नेह, त्याग व सहानुभूति के भावों से जुड़े होते हैं, जबकि बाह्य समूह के प्रति द्वेष, घृणी, प्रतिस्पर्धा एवं पक्षपात के भाव पाए जाते हैं।

3.

अंतःसमूह की संकल्पना किस विद्वान ने दी है?

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अंत: समूह की संकल्पना समनर ने दी है।

4.

निम्नलिखित में से कौन-सा द्वितीयक समूह है ?(क) पड़ोस(ख) नगर(ग) क्लब(घ) पति-पत्नी का समूह

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सही विकल्प है (ख) नगर

5.

निम्नलिखित में कौन-सी विशेषता प्राथमिक समूह की है ?(क) शारीरिक समीपता(ख) सदस्यों की अधिक संख्या(ग) बाह्य नियंत्रण की भावना(घ) अल्प अवधि

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सही विकल्प है (क) शारीरिक समीपता

6.

सर्वप्रथम किसने ‘सामाजिक नियन्त्रण’ शब्द का प्रयोग किया?(क) रॉस(ख) समनर(ग) कॉम्टे(घ) कुले

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सही विकल्प है (क) रॉस

7.

निम्नलिखित में से कौन-सा सामाजिक निर्यन्त्रण का साधन नहीं है ?(क) शिक्षा एवं निर्देशन(ख) शक्ति एवं पारितोषिक(ग) सामाजिक अंत:क्रिया(घ) अनुनय

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सही विकल्प है (ग) सामाजिक अंतःक्रिया

8.

अंतः समूह के सदस्य निम्न में से किस प्रकार के भावों से जुड़े होते हैं?(क) द्वेष(ख) घृणा(ग) स्नेह(घ) पक्षपात

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सही विकल्प है (ग) स्नेह

9.

रॉस ने सामाजिक नियन्त्रण में किसकी भूमिका को महत्त्वपूर्ण माना है ?(क) संदेह की ,(ख) विश्वास की(ग) भ्रम की(घ) शंका की

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सही विकल्प है (ख) विश्वास की

10.

“समूह अंतः क्रिया में संलग्न व्यक्तियों का एक संगठित संग्रह है।” यह कथन किसका है?(क) बोगार्ड्स(ख) हॉट एवं रेस(ग) मैकाइवर एवं पेज(ख) विलियम

Answer»

सही विकल्प है (ख) हॉट एवं रेस

11.

प्राथमिक समूह की संकल्पना के प्रतिपादक कौन हैं?याप्राथमिक समूह की संकल्पना के शिल्पी कौन हैं?याप्राथमिक समूह की संकल्पना किसने दी है?

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प्राथमिक समूह की संकल्पना के प्रतिपादक अथवा शिल्पी चार्ल्स कूले हैं।

12.

सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन निम्न में से क्या है ?(क) जनरीतियाँ(ख) कानून(ग) प्रथाएँ(घ) रूढ़ियाँ

Answer»

सही विकल्प है (ख) कानून

13.

सामाजिक नियन्त्रण का उद्देश्य है(क) व्यापार का विकास करना(ख) व्यक्ति की राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति(ग) सामाजिक सुरक्षा की स्थापना(घ) मनुष्य को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना

Answer»

सही विकल्प है (ग) सामाजिक सुरक्षा की स्थापना

14.

सामाजिक नियन्त्रण का औपचारिक साधन कौन-सा है ?(क) धर्म(ख) परिवार(ग) शिक्षा(घ) प्रथाएँ

Answer»

सही विकल्प है (ग) शिक्षा

15.

प्राथमिक समूह किसे कहते हैं?अथवाप्राथमिक समूह का अर्थ स्पष्ट कीजिए एवं चार विशेषताएँ लिखिए।

Answer»

प्राथमिक समूह वे समूह हैं जिनमें लघु आकार के कारण व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से भली प्रकार परिचित होते हैं। जिन समूहों में प्राथमिक संबंध पाए जाते हैं, उन्हें प्राथमिक समूह कहते हैं। इस प्रकार प्राथमिक समूहों के सदस्यों में परस्पर घनिष्ठता होती है और वे परस्पर एक-दूसरे से प्रत्यक्ष संबंध रखते हैं। व्यक्ति के लिए इनको अत्यधिक महत्त्व होता है, इस कारण प्रत्येक व्यक्ति इनके प्रति बहुत निष्ठा रखता है। लुण्डबर्ग के अनुसार, “प्राथमिक समूहों का तात्पर्य दो या दो से अधिक ऐसे व्यक्तियों से है जो घनिष्ठ, सहभागी और वैयक्तिक ढंग से एक-दूसरे से व्यवहार करते हैं।” प्राथमिक समूह की चार विशेषताएँ हैं-

⦁    भौतिक निकटता
⦁    समूह की लघुता
⦁    स्थायित्व
⦁    हम की भावना

16.

जाति एवं वर्ग में दो अंतर बताइए।

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जाति एवं वर्ग में दो अंतर निम्नलिखित हैं-

⦁    स्थायित्व में अंतर वर्ग में सामाजिक बंधन स्थायी व स्थिर नहीं रहते हैं। कोई भी सदस्य अपनी योग्यता से वर्ग की सदस्यता परिवर्तित कर सकता है। जाति में सामाजिक बंधन अपेक्षाकृत स्थायी वे स्थिर रहते हैं। जाति की सदस्यता किसी भी आधार पर बदली नहीं जा सकती है।

⦁    सामाजिक दूरी में अंतर वर्ग में अपेक्षाकृत सामाजिक दूरी कम पायी जाती है। कम दूरी के कारण ही विभिन्न वर्गों में खान-पान इत्यादि पर कोई विशेष प्रतिबंध नहीं पाए जाते हैं। विभिन्न जातियों में; विशेष रूप से उच्च एवं निम्न जातियों में अपेक्षाकृत अधिक सामाजिक दूरी पाई जाती है। इस सामाजिक दूरी को बनाए रखने हेतु प्रत्येक जाति अपने सदस्यों पर अन्य जातियों के सदस्यों के साथ खान-पान, रहन-सहन इत्यादि के प्रतिबंध लगाती है।

17.

भूमिका किसे कहते हैं?

Answer»

प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति का ध्यान रखकर समाज में कुछ-न-कुछ कार्य अवश्य करता है। इसी को भूमिका कहते हैं। भूमिका के आधार पर व्यक्ति को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। इस प्रकार, भूमिका प्रस्थिति का गत्यात्मक पक्ष है तथा प्रस्थिति के अनुसार व्यक्ति से जिस प्रकार के कार्य की आशा की जाती है, उसी को उसकी भूमिका कहा जाता है। यंग के अनुसार, “व्यक्ति जो करता है। या करवाता है उसे हम उसके कार्य कहते हैं।”

18.

सामाजिक नियंत्रण में दंड की भूमिका पर टिप्पणी लिखिए।

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दंड वह साधन है जिसके द्वारा अवांछनीय कार्य के साथ दु:खद भावना को संबंधित करके उसको दूर करने का प्रयास किया जाता है। सर्भी समाजों में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दंड-व्यवस्था का प्रचलन है। सामाजिक नियंत्रण में भी इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सभ्यता के आदिकाल में प्रतिशोध की अग्नि को शांत करने के लिए ही दंड दिया जाता था या दंड देने का उद्देश्य प्रतिशोध की भावना को समाप्त करना ही था। व्यक्ति सोचता है कि अगर वह गलत कार्य करेगा तो समाज प्रतिशोध की दृष्टि से उसे दंड देगा। आज अपराधी और बाल अपराधों को दंड देने के पीछे उस अपराधी को सुधारने का उद्देश्य होता है। दंड का भय नागरिकों को गलत कार्य करने से रोकता है। अनेक समाज-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि दंड का उद्देश्य मनोवैज्ञानिक ढंग से लोगों के मस्तिष्क पर प्रभाव डालना तथा उन्हें समाज की मान्यताओं के अनुकूल व्यवहार करने हेतु प्रेरित करना है। प्रत्येक समाज कानून के अनुसार दंड का भय देकर नागरिकों में अनुशासन स्थापित करने का प्रयास करता है। सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से नागरिकों में अनुशासन होना जरूरी है।

19.

प्राथमिक समूहों के विपरीत विशेषताओं वाले समूह को क्या कहा जाता है?

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प्राथमिक समूहों के विपरीत विशेषताओं वाले समूह को द्वितीयक समूह कहा जाता है।

20.

सामाजिक नियंत्रण में राज्य की भूमिका स्पष्ट कीजिए।

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सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधनों में राज्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राज्य को सर्वशक्तिमान माना जाता है क्योंकि इसे गंभीर अपराध हेतु व्यक्ति को प्राणदंड देने का अधिकार होता. है। सामाजिक नियंत्रण के सशक्त अभिकरण होने के नाते ही राज्य की व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। व्यक्ति राज्य द्वारा बनाए गए नियमों का पालन इसलिए करता है ताकि उसे अपराधी के रूप में सजा न मिल सके। राज्य अपनी सत्ता को सर्वोपरि बताकर, दबाव एवं कानून को राष्ट्रव्यापी बनाकर अधिकारों एवं कर्तव्यों की व्याख्या करके व्यक्तियों पर ‘ नियंत्रण रखता है। यही पारिवारिक कार्यों पर नियंत्रण रखता है। दंड व्यवस्था एवं कानून के निर्माण तथा उसमें संशोधन करके राज्य व्यक्तियों के व्यवहार को नियमित एवं नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राज्य द्वारा निर्मित कानून सामाजिक नियंत्रण के सबसे अधिक प्रभावशाली साधन माने जाते हैं। कानून का पालन करना हमारी इच्छा अथवा अनिच्छा पर निर्भर नहीं करता अपितु इसके पीछे राज्य की शक्ति होकी है जो हमें कानून का पालन करने हेतु बाध्य करती है। कानून आधुनिक समाजों में व्यक्तियों के व्यवहार को संगठित करने एवं उनका मार्गदर्शन करने में महत्त्वपूर्ण है।

21.

समाजशास्त्र में हमें विशिष्ट शब्दावली और संकल्पनाओं के प्रयोग की आवश्यकता क्यों होती हैं?

Answer»

प्रत्येक विषय की एक विशिष्ट शब्दावली होती है। यह शब्दावली कुछ संकल्पनाओं के रूप में होती है। संकल्पनाएँ न केवल विषयगत अर्थ को समझने में सहायक होती हैं, अपितु संबंधित विषय के ज्ञान को सामान्य ज्ञान से भिन्न भी करती हैं। समाजशास्त्र इसमें कोई अपवाद नहीं है। समाजशास्त्रीय अंवेषण एवं व्याख्या में संकल्पनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज, सामाजिक समूह, प्रस्थिति एवं भूमिका, सामाजिक स्तरीकरण, सामाजिक नियंत्रण, परिवार, नातेदारी, संस्कृति, सामाजिक संरचना इत्यादि समाजशास्त्र में प्रयोग की जाने वाली संकल्पनाएँ हैं जो संबंधित सामाजिक यथार्थता के अर्थ को स्पष्ट करती हैं। संकल्पनाएँ समाज में उत्पन्न होती हैं। जिस प्रकार समाज में विभिन्न प्रकार के व्यक्ति और समूह होते हैं, उसी प्रकार कई तरह की संकल्पनाएँ और विचार होते हैं। यदि माक्र्स के लिए वर्ग और संघर्ष समाज को समझने की प्रमुख संकल्पनाएँ थीं तो दुर्णीम के लिए सामाजिक एकता एवं सामूहिक चेतना मुख्य शब्द थे।

संकल्पना का अर्थ एवं परिभाषाएँ

संकल्पनाएँ प्रत्येक विषय में पाई जाती हैं तथा उनका प्रयोग समस्या के निर्माण करने और इसके समाधान के लिए किया जाता है। संकल्पना एक तार्किक रचना है जिसका प्रयोग एक अनुसंधानकर्ता आँकड़ों को व्यवस्थित करने एवं उनमें संबंधों का पता लगाने के लिए कार्य करता है। यह किसी अवलोकित घटना का भाववाचक अथवा व्यावहारिक रूप है। इन अमूर्त, रचनाओं अर्थात् संकल्पनाओं की सहायता से प्रत्येक विषय अपनी विषय-वस्तु समझने का प्रयास करता है। विभिन्न विद्वानों ने संकल्पना की परिभाषाएँ निम्नलिखित रूपों में प्रस्तुत की हैं-

मैक-क्लीलैण्ड (Me-Clelland) के अनुसार–-“विविध प्रकार के तथ्यों का एक आशुलिपि प्रतिनिधित्व हैं जिसका उद्देश्य अनेक घटनाओं को एक सामान्य शीर्षक के अंतर्गत मानकर, इस पर सोच-विचार कर कार्य सरल करना है।”
नान लिन (Nan Lin) के अनुसार–“संकल्पना वह शब्द है जिसे एक विशिष्ट अर्थ प्रदान किया गया है।”
गुड एवं हैट (Goode. and Hatt) के अनुसार-“अनेक बार यह भुला दिया जाता है कि संकल्पनाएँ इंद्रियों के प्रभाव, मानसिक क्रियाएँ अथवा काफी जटिल अनुभवों से निर्मित तार्किक रचनाएँ हैं।”
बर्नार्ड फिलिप्स (Bernard Philips) के अनुसार-“संकल्पनाएँ भाववाचक हैं जिनका प्रयोग एक वैज्ञानिक द्वारा प्रस्तावनाओं एवं सिद्धांतों के विकास के लिए निर्माण स्तंभों के रूप में किया जाता है। ताकि प्रघटनाओं की व्याख्या की जा सके तथा उनके बारे में भविष्यवाणी की जा सके। उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि संकल्पना किसी मूर्त प्रघटना का भाववाचक रूप है। अर्थात् संकल्पना स्वयं प्रघटना न होकर इसे (प्रघटना) समझने में सहायता देती है। एक संकल्पना कुछ प्रघटनाओं को चयन या प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्हें एक श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। यह चयन न ही तो वास्तविक है और न ही कृत्रिम, अपितु इसकी उपयोगिता वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के रूप में ऑकी जा सकती है। संकल्पना वास्तविक प्रघटना के कितनी निकटे हैं यह इस बात पर निर्भर करता है। कि सामान्यीकरण किस स्तर पर किया गया है। उच्च स्तर पर किए गए सामान्यीकरण को ही संकल्पना कहा गया है।

समाजशास्त्र में विशिष्ट शब्दावली और संकल्पनाओं के प्रयोग की आवश्यकता
समाजशास्त्र जैसे विषय में विशिष्ट शब्दावली और संकल्पनाओं के प्रयोग की आवश्यकता और भी अधिक है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इस विषय में हम उन सब पहलुओं का अध्ययन करते हैं जो हमारे लिए नवीन या अजनबी नहीं है। हम समझते हैं कि हमें विवाह, परिवार, जाति, धर्म इत्यादि शब्दों को पता है। हो सकता है कि इन शब्दों का जो अर्थ हमें पता हो वह इन शब्दों की समाजशास्त्रीय व्याख्या में मेल न खाता हो। इसलिए समाजशास्त्र की विशिष्ट शब्दावली एवं संकल्पनाएँ। समाजशास्त्रीय ज्ञान को ‘सामान्य बौद्धिक ज्ञान’ अथवा ‘प्रकृतिवादी व्याख्या’ से भिन्न भी करती हैं। यदि कोई किसी से पूछे कि परिवार क्या है? इस शब्द से परिचित होने के बावजूद इसका अर्थ सरलता से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इसे स्पष्ट करने के लिए समाजशास्त्रियों ने इसकी ऐसी परिभाषाएँ दी हैं जो विभिन्न प्रकार के परिवार होते हुए भी इसका अर्थ स्पष्ट करने में सक्षम हैं। ऐसे ही असंख्य शब्द समाजशास्त्र में विशिष्ट संकल्पनाओं के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इन सबका अर्थ हमारे सामान्य ज्ञान से भिन्न होता है। समाजशास्त्र जैसे विषय को सामान्यत: छात्र-छात्राओं द्वारा अन्य विषयों की तुलना में सरल समझने का कारण भी यही भ्रम है।

22.

चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों के कौन-कौन से तीन उदाहरण दिए हैं? इन समूहों को प्राथमिक समूह क्यों कहा जाता है?याप्राथमिक समूह की परिभाषा दीजिए। समाज में प्राथमिक समूह के महत्व को कैसे समझा जा सकता है?

Answer»

सामाजिक समूहों के जितने भी वर्गीकरण विद्वानों ने किए हैं, उनमें प्राथमिक और द्वितीयक समूह के वर्गीकरण को विशेष महत्त्व दिया जाता है, जिसका आधार सामाजिक संबंधों की प्रकृति है। इस वर्गीकरण के प्रतिपादक अमेरिकी समाजशास्त्री चार्ल्स हार्टन कूले (Charles Horton Cooley) हैं। उन्होंने 1909 ई० में अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘सोशल ऑर्गनाइजेशन’ (Social Organization) में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। प्राथमिक समूह के सदस्यों की संख्या सीमित होती है तथा उनके आपसी संबंध अधिक घनिष्ठ होते हैं। इसके विपरीत, द्वितीयक समूह के सदस्यों की संख्या अधिक होती है, परंतु उनके आपसी संबंध अधिक घनिष्ठ नहीं हो पाते।

प्राथमिक समूह का अर्थ एवं परिभाषाएँ

प्राथमिक समूह वे समूह हैं, जिनमें लघु आकार के कारण व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से भली प्रकार परिचित होते हैं। अन्य शब्दों में, जिसे समूह में प्राथमिक संबंध पाएँ जाते हैं, उसे प्राथमिक समूह कहते हैं। इस प्रकार प्राथमिक समूह के सदस्यों में परस्पर घनिष्ठता होती है और वे परस्पर एक-दूसरे के सम्मुख आकर मिलते-जुलते हैं। व्यक्ति के लिए इनका अत्यधिक महत्त्व होता है, इस कारण प्रत्येक . व्यक्ति इनके प्रति बहुत निष्ठा रखता है। परिवार खेल-समूह और स्थायी पड़ोस प्राथमिक समूह के
प्रमुख उदाहरण हैं।

प्रमुख विद्वानों ने प्राथमिक समूह को निम्नवत् परिभाषित किया है-

कूले (Cooley) के अनुसार-“प्राथमिक समूहों से तात्पर्य उन समूहों से है, जो आमने-सामने के संबंध एवं सहयोग द्वारा लक्षित हैं। ये अनेक दृष्टियों से प्राथमिक हैं, परंतु मुख्यतया इस कारण हैं कि ये एक व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति और आदर्शों के बनाने में मुख्य हैं। घनिष्ठ संबंधों के फलस्वरूप वैयक्तिकताओं का एक सामान्य समग्रता में इस प्रकार घुल-मिल जाना, जिससे कम-से-कम अनेक बातों के लिए एक सदस्य का उद्देश्य सारे समूह का सामान्य जीवन और उद्देश्य हो जाता है। संभवतः इस संपूर्णता का सरलतापूर्वक वर्णन ‘हमारा समूह’ कहकर किया जा सकता है। इसमें इस प्रकार की सहानुभूति और पारस्परिक अभिज्ञान है, जिसके लिए हम सबसे अधिक स्वाभाविक अभिव्यंजना है।”
यंग (Young) के अनुसार-“इसमें घनिष्ठ (आमने-सामने के) संपर्क होते हैं और सभी व्यक्ति समरूप कार्य करते हैं। ये ऐसे केंद्र-बिंदु हैं, जहाँ से व्यक्ति का व्यक्तित्व विकसित होता है।”
कुंडबर्ग (Lundberg) के अनुसार-“प्राथमिक समूहों का तात्पर्य दो या दो से अधिक ऐसे व्यक्तियों से है, जो घनिष्ठ, सहभागी और वयैक्तिक ढंग से एक-दूसरे से व्यहार करते हैं।”
जिसबर्ट (Gisbert) के अनुसार-“प्राथमिक या आमने-सामने के समू, प्रत्यक्ष व्यक्तिगत संबंधों पर
आधारित होते हैं, इनमें सदस्य परस्पर तुरंत व्यवहार करते हैं।” इस परिभाषा द्वारा स्पष्ट होता है कि प्राथमिक समूह के विभिन्न सदस्यों के आपसी संबंध प्रत्यक्ष तथा व्यक्तिगत होते हैं, उनमें औपचारिकता नहीं होती।
इंकलिस (Inkeles) के अनुसार—“प्राथमिक समूहों में सदस्यों के संबंध भी प्राथमिक होते हैं, जिनमें व्यक्तियों में आमने-सामने के संबंध होते हैं तथा सहयोग और सहवास की भावनाएँ इतनी प्रबल होती हैं, कि व्यक्ति का ‘अहम’, ‘हम’ की भावना में बदल जाता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि इन समूहों को प्राथमिक समूह इस कारण से कहा जाता है क्योंकि इन समूहों में परस्पर घनिष्ठता, सहयोग, एकता तथा प्रेम का अत्यंत स्वाभाविक रूप से विकास होता है। ये सदस्य अपने लिए ‘हम’ शब्द का प्रयोग करते हैं तथा इनके परस्पर संबंध प्रत्यक्ष होते हैं। प्राथमिक समूह में ही व्यक्ति अपने भावी जीवन के लिए पाठ पढ़ता है। प्रेम, न्याय, उदारता तथा सहानुभूति जैसे गुणों की जानकारी व्यक्ति को प्राथमिक समूहों में ही मिलती है। कूले ने परिवार, पड़ोस एवं क्रीड़ा समूह को प्रमुख प्राथमिक समूह माना है।

प्राथमिक समूह की प्रमुख विशेषताएँ

प्राथमिक समूह की विशेषताएँ दो भागों में विभाजित की जा सकती हैं-
(अ) बाह्य या भौतिक विशेषताएँ तथा
(ब) आंतरिक विशेषताएँ। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है–

(अ) बाह्य या भौतिक विशेषताएँ
⦁    भौतिक निकटता-प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे के सम्मुख होकर मिलते-जुलते और संपर्क स्थापित करते हैं। आमने-सामने देखने और परस्पर वार्तालाप करने से विचारों का आदान-प्रदान होता है और सदस्य एक-दूसरे के निकट आते हैं। इस प्रकार की भौतिक निकटता प्राथमिक समूहों के विकास में परम सहायक होती हैं। इसी भौतिक निकटता को किंग्सले डेविस जैसे विद्वानों ने शारीरिक समीपता’ कहा है।
⦁    समूह की लघुता–प्राथमिक समूह की दूसरी विशेषता उसका लघु स्वरूप है। समूह की लघुता के कारण ही सदस्यों में घनिष्ठता का निर्माण होता है। प्राथमिक समूह के छोटे होने से सदस्यों में परस्पर मिलने-जुलने और परस्पर निकट आने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं। प्राथमिक समुह के सदस्यों की संख्या कम होती है। कुले (Cooley) ने इसके सेर्दस्यों की संख्या 2 से 25 तक जबकि फेयरचाइल्ड ने 3-4 से लेकर 50-60 तक बताई है।
⦁    स्थायित्व प्राथमिक समूह अन्य समूहों की अपेक्षा अधिक स्थायी होते हैं। समूह के सदस्यों के संबंध की अवधि पर्याप्त दीर्घ होती है और इसी कारण उसमें अधिक घनिष्ठता होती है। घनिष्ठ संबंध अधिक समय तक बने रहते हैं, अत: प्राथमिक समूह अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होते हैं।

(ब) आंतरिक विशेषताएँ।
प्राथमिक समूह की आंतरिक विशेषताओं को संबंध उन प्राथमिक संबंधों से होता है, जो इन समूहों में पाए जाते हैं। इस वर्ग की मुख्य विशेषताएँ निम्नवर्णित है-

⦁    संबंधों की स्वाभाविकता—इन समूहों में संबंधों की स्थापना स्वेच्छा से होती है, बलपूर्वक | नहीं। ये संबंध स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं; उनमें कृत्रिमता नहीं होती।
⦁    संबंधों की पूर्णता-प्राथमिक समूहों में व्यक्ति पूर्णतयां भाग लेता है। इसका मूल कारण सदस्यों की परस्पर घनिष्ठता एवं एक-दूसरे के प्रति पूर्ण जानकारी है। संबंधों में पूर्णता के कारण सदस्यों में परस्पर प्रेम-भावना पर्याप्त मात्रा में विकसित हो जाती है।
⦁    वैयक्तिक संबंध–प्राथमिक समूहों के समस्त सदस्यों के परस्पर संबंध व्यक्तिगत होते हैं। वे एक-दूसरे से पूर्णतया परिचित होते हैं तथा एक-दूसरे के नाम तथा परिवार के बारे में भी पूर्ण ज्ञान रखते हैं।
⦁    उद्देश्यों में समानता–प्रत्येक प्राथमिक समूह के सदस्य एक ही स्थान पर रहते हैं अतः उनके जीवन के मुख्य उद्देश्यों में भी समानता रहती है।
⦁    हम की भावना-प्राथमिक समूह छोटे होते हैं, सदस्यों में घनिष्ठता होती है और उनके उद्देश्यों में समानता होती है अतः उनमें ‘हम की भावना का विकास हो जाता है। प्रत्येक सदस्य में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति होती है।
⦁    संबंध स्वयं साध्य होते हैं—प्राथमिक समूहों में कोई भी आदर्श या संबंध साधन के रूप में न होकर स्वयं साध्य होता है। यदि विवाह धन प्राप्ति के उद्देश्य से किया गया है तो वह विवाह न होकर अर्थ-पूर्ति का कार्य माना जाएगा। इन समूहों में संबंध किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए न होकर प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार यदि कोई मित्रता स्वार्थ पूर्ति के लिए करता है तो उसे हम मित्रता न कहकर स्वार्थपरता कहेंगे। इसी प्रकार संबंधों का कोई उद्देश्य न होकर वे स्वयं साध्य होते हैं।
⦁    सामाजिक नियंत्रण के साधन–प्राथमिक समूहों की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये सामाजिक नियंत्रण के प्रभावशाली साधन होते हैं। उनके द्वारा अनौपचारिक रूप से सामाजिक नियंत्रण लागू किया जाता है।

उपर्युक्त विवरण से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि प्राथमिक समूहों का हमारे जीवन में एक विशेष स्थान है। प्राथमिक समूह प्रत्येक व्यक्ति का समाजीकरण करते हैं तथा उसको मानसिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। व्यक्ति के बचपन में लालन-पालन का कार्य प्राथमिक समूह द्वारा ही होता है। व्यक्ति की अनेक भौतिक, शारीरिक एवं भावात्मक आवश्यकताएँ मुख्य रूप से प्राथमिक समूहों में ही पूरी होती हैं।

प्राथमिक समूहों को प्राथमिक कहे जाने के कारण

चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों के प्रमुख रूप से तीन उदाहरण दिए हैं–परिवार, पड़ोस तथा क्रीड़ा-समूह। इन्हें अनेक कारणों से प्राथमिक कहा जाता है, जिनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

⦁    समय की दृष्टि से प्राथमिक-प्राथमिक समूह समय की दृष्टि से प्राथमिक हैं, क्योंकि सर्वप्रथम बच्चा इन्हीं समूहों के सपंर्क में आता है।
⦁    महत्त्व की दृष्टि से प्राथमिक—प्राथमिक समूह महत्त्व की दृष्टि से प्राथमिक है, क्योंकि व्यक्तित्व के निर्माण में इनका विशेष योगदान रहता है।
⦁    मानव संघों का प्रतिनिधित्व करने में प्राथमिक–प्राथमिक समूह मौलिक मानव संघों का प्रतिनिधित्व करने की दृष्टि से भी प्राथमिक है तथा इसलिए मानव आवश्यकताओं की पूर्ति के | रूप में इनका इतिहास अति प्राचीन है।
⦁    समाजीकरण करने की दृष्टि से प्राथमिक–प्राथमिक समूह समाजीकरण की दृष्टि से प्राथमिक हैं, क्योंकि इन्हीं से बच्चे को सामाजिक परंपराओं व मान्यताओं का ज्ञान होता है।
⦁    संबंधों की प्रकृति की दृष्टि से प्राथमिक–प्राथमिक समूह संबंधों की प्रकृति के आधार पर भी प्राथमिक हैं, क्योंकि इन्हीं से व्यक्ति में सहिष्णुता, दया, प्रेम और उदारता की मनोवृत्ति जन्म लेती है।
⦁    आत्म-नियंत्रण की दृष्टि से प्राथमिक—प्राथमिक समूह आत्म-नियंत्रण कहा जाना पूर्णत: उचित है। यदि हम परिवार, पड़ोस तथा क्रीड़ा-समूह के उदाहरण को सामने रखें तो उपर्युक्त आधार इस बात की पुष्टि करते हैं।

प्राथमिक समूहों का महत्त्व
प्राथमिक समूह अपने सदस्यों के व्यवहार को सामाजिक मान्यताओं के अनुकूल नियंत्रित करने तथा उनके व्यक्तित्व का विकास करने में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके महत्त्व को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है—

⦁    व्यक्तित्व के विकास में सहायक प्राथमिक समूह में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता | है। मानव की अधिकांश सीख प्राथमिक समूहों की ही देन है। यह सदस्यों के लिए व्यक्तित्व विकास का प्रमुख अभिकरण है। उदाहरणार्थ-परिवार, पड़ोस तथा क्रीड़ा-समूह तीनों प्राथमिक समूह के रूप में व्यक्तित्व के विकास में सहायक हैं।
⦁    आवश्यकताओं की पूर्ति-ये समूह व्यक्ति की सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनका निर्माण किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता अपितु व्यक्तियों के सामान्य हितों की पूर्ति के लिए इनका निर्माण स्वतः ही होती है। ये व्यक्ति की अनेक | मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं (यथा मानसिक सुरक्षा, स्नेह आदि) की पूर्ति करते हैं।
⦁    समाजीकरण में सहायक प्राथमिक समूह व्यक्ति को समाज में रहने के योग्य बनाते हैं। इन समूहों में रहकर व्यक्ति समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों का पालन करता है और उन सबका ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। एच०ई० बार्ल्स का कथन है कि सामाजिक प्रक्रिया के विकास में प्राथमिक समूह अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं तथा वे स्वाभाविक रूप से व्यक्ति के समाजीकरण व स्थापित संस्थाओं के एकीकरण व सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण होते हैं।
⦁    कार्यक्षमता में वृद्धि–प्राथमिक समूह में व्यक्तियों को एक-दूसरे से सहायता, प्रेरणा तथा प्रोत्साहन मिलता है, जिससे व्यक्ति की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
⦁    सुरक्षा की भावना–प्राथमिक समूह व्यक्ति में सुरक्षा की भावना उत्पन्न करते हैं और उनमें पारस्परिक प्रेम की भावना उत्पन्न करके उनके व्यवहार को समाज के अनुकूल बना देते हैं।
⦁    सामाजिक नियंत्रण में सहायक प्राथमिक समूह सामाजिक नियंत्रण के प्रमुख साधन हैं। ये समूह प्रथाओं, कानूनों एवं परंपराओं तथा रूढ़ियों के द्वारा व्यक्तियों के सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करते हैं।
⦁    नैतिक गुणों का विकास–प्राथमिक समूह व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करते हैं, क्योंकि इन समूहों में रहकर व्यक्ति सदाचार, सहानुभूति एवं सहिष्णुता आदि गुणों को सीख जाता है। लैंडिस (Landis) ने इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि प्राथमिक समूहों में व्यक्ति में सहिष्णुता, दया, प्रेम और उदारता की मनोवृत्ति जन्म लेती है।
⦁    संस्कृति के हस्तांतरण में सहायक प्राथमिक समूह संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांरित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनसे सामाजिक विरासत की रक्षा ही नहीं होती अपितु हस्तांतरण द्वारा इसमें निरंतरता भी बनी रहती है।

उपर्युक्त विवेचन से प्राथमिक समूहों का महत्त्व स्पष्ट होता है। वास्तव में प्राथमिक समूह जीवन के प्रत्येक पक्ष से संबंधित है तथा व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करने तथा दिशा निर्देश देने में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इस संदर्भ में कूले ने ठीक ही कहा है कि “प्राथमिक समूहों द्वारा पाशविक प्रेरणाओं का मानवीकरण किया जाना ही संभवतः इनके द्वारा की जाने वाली प्रमुख सेवा है।”

23.

प्राथमिक समूहों के दो प्रमुख कार्य बताइए।

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प्राथमिक सूमहों के दो प्रमुख कार्य निम्नवत् हैं-

⦁    व्यक्तित्व के विकास में सहायक प्राथमिक समूह में व्यक्ति का विकास होता है। मानव की अधिकांश सीख प्राथमिक समूहों की ही देन है। यह सदस्यों के लिए व्यक्तित्व के विकास का प्रमुख अभिकरण है। उदाहरणार्थ-परिवार, पड़ोस तथा क्रीड़ा समूह तीनों प्राथमिक समूह के रूप में व्यक्तित्व विकास में सहायक हैं।
⦁    समाजीकरण में सहायक प्राथमिक समूह व्यक्ति को समाज में रहने के योग्य बनाते हैं। इन समूहों में रहकर व्यक्ति समाज में प्रचलित रीति-रिवाजों का पालन करता है और उन सबका ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। एच० ई० बार्ल्स का कथन है कि प्राथमिक समूह स्वाभाविक रूप से व्यक्ति के समाजीकरण में सहायता प्रदान करते हैं तथा स्थापित संस्थाओं के एकीकरण व सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण होते हैं।

24.

क्या जाति, वर्ग, महिलाएँ, जनजाति अथवा गाँव प्रारंभ में ही सामाजिक समूह थे?

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प्रारंभ में जाति, वर्ग, महिलाएँ, जनजाति या गाँव सामाजिक समूह नहीं थे क्योंकि इनमें सामाजिक समूह के तत्त्वों को अभाव पाया जाता था। उदाहरणार्थ-जाति या वर्ग ऐसे अर्द्ध-समूह हैं। जिनमें संरचना अथवा संगठन की कमी पाई जाती थी तथा जिसके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ अथवा कम जागरूक होते थे। लिंग के आधार पर जब महिलाओं ने अपनी स्वतंत्रता एवं समानता हेतु संगठन बनाकर आंदोलन प्रारंभ किए तब उनमें सामाजिक समूह के लक्षण विकसित होने लगे। इसी भाँति, जाति के आधार पर यदि किसी राजनीतिक दल का निर्माण होता है अथवा कोई जाति विरोधी आंदोलन प्रारंभ होता है तो जाति के सदस्यों में अपने समूह के प्रति चेतना विकसित होती है। तथा उनमें अपने हितों की रक्षा हेतु अंत:क्रियाओं के स्थिर प्रतिमान भी विकसित होते हैं। अपनत्व की भावना का विकास भी इसी का प्रतिफल माना जाता है। जनजाति सामाजिक समूह न होकर एक विशेष प्रकार का समूह है जिसे समाजशास्त्रीय शब्दावली में ‘समुदाय’ कहा जाता है। जनजाति के लोगों में वैयक्तिक, घनिष्ठ और चिरस्थायी संबंध पाए जाते हैं। इसी भाँति, गाँव भी एक समुदाय है। यदि ग्रामवासी पर्यावरण संबंधी किसी संगठन का निर्माण कर लेते हैं तो समुदाय के भीतर ही समूहों का विकास होना प्रारंभ हो जाता है।

25.

क्या लिंग समानता अधिक सामंजस्यपूर्ण अथवा अधिक विभाजक समाज बनाती है? 

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किसी भी अच्छे समाज के लिए असमानता का होना उचित नहीं माना जाता है। लिंग असमानता के परिणामस्वरूप विश्व की आधी जनसंख्या अर्थात् महिलाओं का विकास अवरुद्ध होता है। इससे समाज लिंग के आधार पर विभाजित हो जाता है तथा महिलाओं को आगे बढ़ने के उतने अवसर उपलब्ध नहीं हो पाते हैं जितने कि पुरुषों को होते हैं। इसलिए सभी देशों में महिलाएँ शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, प्रत्याशित आयु इत्यादि विकास के सूचकों में पुरुषों से कहीं पीछे हैं। आधुनिक युग में महिलाओं को घर की चहारदीवारी तक सीमित कर समाज का विकास संभव नहीं है। इसलिए लिंग असमानता कभी भी सामंजस्यपूर्ण नहीं हो सकती। जो इस प्रकार की असमानता का समर्थन करते हैं वे पुरुषप्रधान दृष्टिकोण से प्रभावित हैं। विश्व में पुरुषप्रधान दृष्टिकोण ही पुरुषों के महिलाओं पर प्रभुत्व को बनाए रखने तथा उन्हें पुरुषों के समान न ला पाने के लिए उत्तरदायी है। यह सही है कि पुरुषों एवं महिलाओं में शारीरिक दृष्टि से अंतर होता है। इस अंतर को सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर ऊँच-नीच में बदल देना अर्थात् पुरुषों को महिलाओं से ऊँचा स्थान देना ही लिंग असमानता कहलाता है जो कि समाज के विकास को अवरुद्ध करता है। चूंकि अतीत में लिंग असमानता समाज की व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक रही है, इसलिए कुछ लोग विभाजक नहीं मानते हैं। इस प्रकार, यह भी एक ऐसा मुद्दा है जिस पर समाज के विभिन्न समूहों अथवा व्यक्तियों की राय में मतभेद पाया जाता है। इस मतभेद के बावजूद आज सभी समाज लिंग असमानता को दूर करने अथवा कम-से-कम करने हेतु प्रयासरत हैं।

26.

क्या विकास के लिए लोकतंत्र एक सहायता अथवा एक रुकावट है? 

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समाज में सभी व्यक्ति एक समान सोच नहीं रखते, उनके दृष्टिकोणों एवं धारणाओं में काफी अंतर पाया जाता हैं। एक अच्छे समाज के निर्माण के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों एवं धारणाओं के बारे में चर्चा के परिणामस्वरूप बनी सहमति अनिवार्य होती है। विकास के लिए लोकतंत्र की भूमिका एक ऐसी ही धारणा है जिसके बारे में मतभेद पाए जाते हैं। अधिकांश विद्वानों का कहना है कि लोकतंत्र विकास का एक सर्वश्रेष्ठ अभिकरण है क्योंकि इसमें व्यक्ति को आगे बढ़ने के समान अवसर उपलब्ध होते हैं तथा किसी भी नागरिक के साथ जाति, प्रजाति, धर्म, लिंग इत्यादि जन्मजात गुणों के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है। इसी कारण से अमेरिका एवं पश्चिमी देशों में विकास अधिक हुआ है। प्रजातांत्रिक मूल्यों ने इन देशों के विकास में सहायता दी है। दूसरी ओर, ऐसे विद्वान भी हैं जो प्रजातंत्र को विकास में बाधक मानते हैं। उनका तर्क है कि प्रजातांत्रिक देशों में नौकरशाही भ्रष्ट हो जाती है, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार व्याप्त हो जाता है तथा विकास का लाभ पहले से ही धनी वर्गों को मिलता है। इसलिए अमीर तथा गरीब में अंतराल कम होने की बजाय बढ़ता जाता है। जिन देशों ने लोकतंत्र के स्थान पर शासन की किसी अन्य व्यवस्था को विकास हेतु अपनाया है, वहाँ पर विकास की गति धीमी रही है। इससे लोकतंत्र के विकास में बाधक होने का तर्क कमजोर दिखाई देता है।

27.

विरोधों को दूर करने के लिए दंड अथवा चर्चा में सर्वश्रेष्ठ तरीका कौन-सा है? 

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विरोधों को दूर करने हेतु दो तरीके हो सकते हैं—एक तो विरोधियों को चुप कराने हेतु दंड देने को तथा दूसरा उनके विचार सुनकर एक स्वच्छ चर्चा कर सहमति पर पहुँचने का। पहला तरीका किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है क्योंकि इसमें जिसके पास शक्ति है वह अन्यों को वास्तविक दंड देकर या दंड का भय दिखाकर उनसे अपनी बात मनवा सकता है अथवी’उनसे अनुपालन सुनिश्चित कर सकता है। यदि दंड देने की बजाए विरोधियों की राय भी सुन ली जाए अथवा उनसे विवादित मुद्दे पर खुली चर्चा की जाए तो हो सकता है बीच का कोई ऐसी सर्वसम्मत रास्ता निकल आए कि जिसमें बल प्रयोग करने की आवश्यकता ही न रहे। इसलिए यह दूसरा रास्ता अधिक अच्छा माना जाता है। किसी भी समाज में विभिन्न व्यक्तियों के विचारों में मतभेद होना स्वाभाविक है। इस मतभेद पर चर्चा द्वारा मतैक्य पर पहुँचना ही एक अच्छे समाज के निर्माण में सहायक होता है।

28.

सहभागी अवलोकन किसे कहते हैं?

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इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता उस समूह में जाकर बस जाता है, जिसका वह अध्ययन करता है। अनुसंधानकर्ता समूह की सभी क्रियाओं में सक्रिय भाग लेता है और अपने आप को समूह के सदस्य के रूप में स्वीकार होने योग्य बना देता है। इस प्रकार सहभांगी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह के लोगों से घुलमिलकर समूह की गतिविधियों व समस्या का अध्ययन करता है। किन्तु इस संबंध में अनुसंधानकर्ता को काफी सतर्क रहना पड़ता है। जिससे किसी भी स्तर पर समूह के सदस्यों को उस पर किसी प्रकार की शंका न होने पाए, अन्यथा समूह के सदस्यों के व्यवहार में औपचारिकता एवं कृत्रिमता आ जाएगी और अनुसंधानकर्ता अपने उद्देश्य की पूर्ति करने में असफल रहेगा। गुड तथा हैट के अनुसार, “इस प्रविधि का प्रयोग तभी किया जा सकता है जबकि अवलोकनकर्ता अपने उद्देश्य को प्रकट किए बिना उसी समूह का सदस्य मान लिया जाता है।”

29.

नियंत्रित तथा अनियंत्रित अवलोकन में अंतर स्पष्ट कीजिए।

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नियंत्रित तथा अनियंत्रित अवलोकन में निम्नलिखित प्रमुख अंतर पाए जाते हैं-

⦁    नियंत्रित अवलोकन में सामान्यतः यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन में यांत्रिक उपकरणों का प्रयोग नहीं होता है।
⦁    नियंत्रित अवलोकन में वास्तविक घटनाओं का अवलोकन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उसमें कृत्रिमता आ सकती है; जबकि अनियंत्रित अवलोकन में वास्तविक घटनाओं का अवलोकन किया जाता है।
⦁    नियंत्रित अवलोकन में अनुसंधान का विषय नियंत्रित होता है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन में अनुसंधान का विषय नियंत्रणहीन होता है।
⦁    नियंत्रित अवलोकन में पहले से ही योजना बना ली जाती है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन में पहले से ही कोई योजना नहीं बनाई जाती है।
⦁    नियंत्रित अवलोकन का उद्देश्य पूर्वनिर्धारित होता है, जबकि अनियंत्रित अवलोकन का उद्देश्य पूर्वनिश्चित नहीं होता है।
⦁    नियंत्रित अवलोकन की पुनरावृत्ति सम्भव होती है,जबकि अनियंत्रित अवलोकन की पुनरावृत्ति नहीं की जा सकती।
⦁    नियंत्रित अवलोकन सदैव क्रमबद्ध होता है, किन्तु अनियंत्रित अवलोकन क्रमबद्ध नहीं होता है।

30.

असहभागी अवलोकन के दो प्रमुख गुण बताइए।

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असहभागी अवलोकन के दो प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

⦁    मितव्ययिता-असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता कम समय में तथा कम खर्च करके अवलोकन का अपना कार्य पूरा करता है; अतः यह सहभागी अवलोकन की तुलना में कम खर्चीला प्रविधि है। अधिकांश अध्ययन इसी प्रविधि से पूरे कर लिए जाते हैं।
⦁    निष्पक्षता-असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता समूह का सदस्य नहीं होता इसलिए वह निष्पक्ष भाव से तथा वस्तुनिष्ठ रूप से समस्या का अध्ययन करता है तथा विश्वसनीय आँकड़े एकत्रित करता है। क्योंकि इसमें अवलोकनकर्ता एक तटस्थ प्रेक्षक के रूप में निरीक्षण करता है। तथा समूह के साथ किसी प्रकार का भावात्मक लगाव नहीं रखता; अतः इस प्रकार किया गया अध्ययन अधिक निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ होता है।

31.

असहभागी अवलोकन किसे कहते हैं?

Answer»

इस प्रकार के अवलोकन में अनुसंधानकर्ता अध्ययन किए जाने वाले समूह का सदस्य नहीं बनता और न वह उस समूह की क्रियाओं में कोई भाग ही लेता है। वह दूर से ही समूह की क्रियाओं का अध्ययन करता है और साथ-ही-साथ समूह के सदस्यों को अपना परिचय देकर यह भी बतला देता है। कि उसका उद्देश्य समूह की क्रियाओं का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भाव से अध्ययन करना है। इस प्रकार असहभागी अवलोकन सहभागी अवलोकन का विपरीत रूप है। पी०एच० मन के अनुसार, ‘असहभागी अवलोकन एक ऐसी विधि है जिसमें अवलोकन करने वाला अवलोकित से छिपा रहता है।’

32.

नियंत्रित अथवा व्यवस्थित अवलोकन किसे कहते हैं?

Answer»

नियंत्रित या व्यवस्थित अवलोकन में अनुसंधानकर्ता पर अनेक नियंत्रण लगे रहते हैं। यह नियंत्रण अनेक प्रविधियों के रूप में लगा होता है। दूसरे शब्दों में, नियंत्रित अवलोकन के अंतर्गत अनुसंधानकर्ता को अवलोकन कार्यों में अनेक सीमाओं का ध्यान रखना पड़ता है। ये सीमाएँ सामाजिक घटनाओं के लिए और साथ-ही-साथ अनुसंधानकर्ता के लिए लगाई जाती हैं। क्योंकि सामाजिक घटनाओं में घटना पर नियंत्रण रखना कठिन है, इसलिए अधिकांशतया अनुसंधानकर्ता को स्वयं पर ही नियंत्रण रखना पड़ता है। अनुसंधानकर्ता को अवलोकन करने की योजनाओं को बनाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अपनी डायरी में अवलोकित तथ्यों को लिखना पड़ता है या उन्हें टेपरिकॉर्डर द्वारा रिकॉर्ड करना पड़ता है। इस प्रकार नियंत्रित अवलोकन में अवलोकनकर्ता को निश्चित सिद्धांतों की सीमाओं में रहकर ही अवलोकन का कार्य करना पड़ता है।

33.

समाज के सदस्यों के रूप में आप समूहों में और विभिन्न समूहों के साथ अंतःक्रिया करते होंगे। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से इन समूहों को आप किस प्रकार देखते हैं?

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व्यक्ति समाज में अकेला नहीं रहता, अपितु अतीतकाल से ही विभिन्न प्रकार के समूहों में रहता है। व्यक्ति का जन्म समूह में होता है और समूहों में ही उसकी सामाजिक और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्य के जीवन में सामाजिक समूहों का विशेष महत्त्व है। इन्हीं समूहों के साथ अन्त:क्रिया के परिणामस्वरूप उसका व्यक्तित्व विकसित होता है। मानव एक सामाजिक प्राणी है। इसका अर्थ ही यह है कि वह अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर रहताहै। समूह में रहने से व्यक्ति को अनेक लाभ होते हैं; अर्थात् समूह में रहने से उसके अनेक कार्य सरलता से पूरे हो जाते हैं तथा उसकी अनेक मूलप्रवृत्तियाँ संतुष्ट हो जाती हैं। इन समूहों से ही समाज का निर्माण होता है।

समाजशास्त्र मानव के सामाजिक जीवन का अध्ययन करता है। मानवीय जीवन की एक पारिभाषिक विशेषता यह है कि मनुष्य परस्पर अंत:क्रिया एवं संवाद करते हैं तथा सामाजिक सामूहिकता का निर्माण करते हैं। समाज चाहे प्राचीन हो चाहे आधुनिक, सभी में समूहों एवं सामूहिकताओं के प्रकार अलग-अलग होते हैं। समाजशास्त्री ‘सामाजिक समूह’ शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थों में करते हैं। इसलिए सामाजिक समूह के समाजशास्त्रीय अर्थ को समझना आवश्यक है।

समाजशास्त्र में व्यक्तियों के संकलन मात्र को सामाजिक समूह नहीं कहा जा सकता है। व्यक्तियों को संकलन मात्र या समुच्चय या केवल ऐसे लोगों का जमावड़ा होता है जो एक ही स्थान पर होते हैं परंतु उनमें निश्चित संबंध नहीं पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ-रेलवे स्टेशन या बस अड्डे पर प्रतीक्षा कस्ते । यात्री या सिनेमा देखते दर्शक, समुच्चयों के उदाहरण है। ऐसे समुच्चय अर्द्ध-समूह तो हैं परन्तु इन्हें समाजशास्त्रीय शब्दावली में सामाजिक समूह नहीं कहा जा सकता। अर्द्ध-समूहों में संरचना अथवा संगठन का अभाव पाया जाता है तथा इनके सदस्य समूह के अस्तित्व के प्रति अनभिज्ञ होते हैं। सामाजिक वर्गों, प्रस्थिति, समूहों, आयु एवं लिंग समूहों, भीड़ इत्यादि अर्द्ध-समूह के उदाहरण हैं। जब कुछ व्यक्ति एक स्थान पर रहते हैं और उनमें किसी-न-किसी प्रकार की दीर्घकालीन एवं स्थायी । अंत:क्रिया (Interaction) होती है तो इन अंतःक्रियाओं के स्थिर प्रतिमान समूह का निर्माण करते हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से दीर्घकालीन एवं स्थायी अंत:क्रिया के अतिरिक्ति सामाजिक समूह के लिए। चार प्रमुख तत्त्वों का होना आवश्यक है–प्रथम सदस्यों में सामान्य रुचि के कारण पारस्परिक संबंध । या निकटता का होना, द्वितीय, सामान्य मूल्यों एवं प्रतिमानों को अपनाना, तृतीय, एक-दूसरे के प्रति पहचान एवं जागरूकता के कारण अपनत्व की भावना का होना तथा चतुर्थ, एक संरचना की विद्यमानता। एडवर्ड सापियर (Edward Sapir) का कथन है कि समूह का निर्माण इस तथ्य पर आधारित है कि कोई-न-कोई स्वार्थ उस समूह के सदस्यों को एकसूत्र में बाँधे रखता है। 

ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburm and Nimkoff) के अनुसार, “जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक साथ मिलकर रहें और एक-दूसरे पर प्रभाव डालने लगें तो हम कह सकते हैं कि उन्होंने समूह का निर्माण कर लिया है।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हम अनेक समूहों में अपना जीवन व्यतीत करते हैं तथा उनके सदस्यों के साथ अंतःक्रिया करते हैं। इस भाँति, समाजशास्त्र में सामाजिक समूहों को व्यक्तियों का संकलन मात्र या समुच्च या केवल ऐसे लोगों का जमावड़ा नहीं मानते हैं। यदि सदस्यों में स्थायी अंत:क्रिया हैं, अंतःक्रियाओं के स्थिर प्रतिमान हैं तथा सदस्यों में एक-दूसरे के प्रति चेतना है, तभी इसे सामाजिक समूह कहा जाएगा।

34.

पता लगाइए कि घर का नौकर और निर्माण करने वाला मजदूर किस प्रकार भूमिका संघर्ष का सामना करते हैं? 

Answer»

भूमिका संघर्ष से अभिप्राय एक से अधिक प्रस्थितियों से जुड़ी भूमिकाओं की असंगती से है। ये तब होता है जब दो या अधिक भूमिकाओं से विरोधी अपेक्षाएँ पैदा होती हैं। घरेलू नौकर अथवा निर्माण कार्य में लगा हुआ मजदूर भी इस प्रकार की भूमिका संघर्ष का शिकार हो सकता है। मालिक तो चाहता है कि उसको घरेलू नौकर सारा दिन जो काम उसे सौंपा गया है उसी की ओर ध्यान दें। वह घरेलू नौकर किसी का पिता एवं पति भी है अर्थात् उसका अपना परिवार भी है। परिवार के सदस्यों की अपेक्षा होती है कि वह कुछ समय उनको भी दे। हो सकता है कि वह इन दोनों प्रस्थितियों से संबंधित भूमिकाओं में संगति न रख पाए। यह भी हो सकता है कि मालिक उसे जो वेतन दे रहा है उससे उसके परिवार का गुजारा ही नहीं हो पा रहा हो। वह सोचता है कि वह मालिक के प्रति वफादार रहे या अपने परिवार के प्रति। यह दुविधा उसे भूमिका संघर्ष की ओर ले जाती है। लगभग यही स्थिति निर्माण करने वाले मजदूर की है जिसमें ठेकेदार या मालिक उससे अधिक घंटे काम की अपेक्षा करता है तथा कम मजदूरी मिलने के कारण उसके पारिवारिक दायित्व पूरे नहीं हो पाते।

35.

समाज के प्रभावशाली हिस्से द्वारा सामाजिक रूप से निर्धारित भूमिकाओं का उल्लंघनयाअतिक्रमण करने वाले लोगों को नियंत्रित व दंडित करने की कोशिश क्यों की जाती

Answer»

समाचार-पत्रों में प्रतिदिन ऐसी रिपोर्ट छपती है जिनमें समाज के प्रभावशाली हिस्से द्वारा सामाजिक रूप से निर्धारित भूमिकाओं का उल्लंघन करने वालों को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है। पुलिस द्वारा लड़कियों से छेड़छाड़ करने वाले लड़कों के विरुद्ध की गई दण्डात्मक कार्यवाही से संबंधित समाचार-पत्रों में प्रकाशित रिपोर्ट इसी का उदाहरण है। उन्हें दंड इसलिए दिया जा रहा है। अथवा दंड देने का प्रयास किया जा रहा है ताकि वे अपनी निर्धारित भूमिका का उल्लंघन या अतिक्रमण न करें। कई बार तो अनेक सामाजिक संगठन ही पुलिस की इस भूमिका को निभाना प्रारंभ कर देते हैं। यदि प्रभावशाली लोग सामाजिक रूप से निर्धारित भूमिकाओं का उल्लंघन या अतिक्रमण करने वाले लोगों को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करेंगे तो समाज से अव्यवस्था फैलने का डर रहता है। निर्धारित भूमिकाओं का उल्लंघन या अतिक्रमण करने वाले लोगों को नियंत्रित व दंडित करने संबंधी रिपोर्ट समाचार-पत्रों में इसलिए प्रकाशित होती है ताकि इनके परिणामों से ऐसा करने वाले लोग सचेत हो जाएँ।

36.

“जाति एक बंद वर्ग है।” यह किसका कथन है?(क) हॉबल,(ख) चार्ल्स कूले(ग) मजूमदार(घ) क्यूबर

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सही विकल्प है (ग) मजूमदार

37.

क्या आप अपने जीवन से ऐसे उदाहरणों के बारे में सोच सकते हैं कि ‘अशासकीय सामाजिक नियंत्रण किस प्रकार से कार्य करता है? 

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अशासकीय सामाजिक-नियंत्रण के अनगिनत उदाहरण हम अपने जीवन में देख सकते हैं। उदाहरणार्थ-यदि आपने अपनी कक्षा के किसी छात्र-छात्रा को अन्य छात्र-छात्राओं से भिन्न व्यवहार करते हुए तथा अन्य छात्र-छात्राओं द्वारा उसका मजाक उड़ाते देखा है तो आप इस प्रकार के नियंत्रण को सरलता से समझ सकते हैं। हो सकता है कि मजाक ही उसे संबंधित छात्र-छात्रा को अन्य। छात्र-छात्राओं की अपेक्षाओं के अनुकूल व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर दे। मजाक में कई बार दंड से भी ज्यादा शक्ति होती है तथा व्यक्ति इससे बचने के लिए अपनी प्रस्थिति के अनुकूल भूमिका का निष्पादन करने का भरसक प्रयास करता है। इसी भाँति, बच्चों के किसी गलत व्यवहार पर नियंत्रण हेतु माता-पिता द्वारा की गई डाँट-डपट भी अशासकीय नियंत्रण का ही उदाहरण है। हो सकता है यह डाँट-डपट उसे गलत कार्य करने से रोकने में सहायक हो।