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1.

भारत में स्थानीय स्व-शासन की प्रकृति की व्याख्या कीजिए। यापंचायती राज व्यवस्था के महत्त्व का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

Answer»

स्व-शासन की माँग की. तो ब्रिटिश सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र में पंचायत और नगर क्षेत्र में नगरपालिका स्तर पर स्व-शासन की शक्तियाँ देना प्रारम्भ किया। कालान्तर में भारत शासन अधिनियम में प्रान्तीय विधानमण्डलों को स्थानीय स्व-शासन’ की बाबत विधान अधिनियमित करने की शक्ति प्रदान की गयी। परन्तु स्वतन्त्र भारत के संविधान-निर्माता इन विद्यमान अधिनियमों से सन्तुष्ट न थे। इसलिए 1949 के संविधान में अनुच्छेद 40 के रूप में एक निर्देश समाविष्ट किया गया। इसके अनुसार, “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठायेगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।’
किन्तु अनुच्छेद 40 में इस निर्देश के होते हुए भी पूरे देश में ही इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि प्रतिनिधिक लोकतन्त्र की इकाई के रूप में इन स्थानीय इकाइयों के लिए निर्वाचन कराए जाएँ।

संविधान 73वाँ संशोधन और. 74वाँ संशोधन अधिनियम, 1992 ने इस दिशा में एक गति प्रदान की। अब नयी प्रणाली के अन्तर्गत कुछ नयी बातों का समावेश किया गया; जैसे – जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन, महिलाओं के लिए आरक्षण, निर्वाचनों के संचालन के लिए निर्वाचन आयोग तथा वित्त आयोग जिससे ये संस्थाएँ वित्त की दृष्टि से आत्म निर्भर रह सकें।

वर्तमान स्थानीय स्व-शासन के ढाँचे के स्वरूप एवं प्रवृत्ति को निम्नलिखित रूप में लिपिबद्ध किया जा सकता है –

⦁    ग्राम स्तर, ग्राम पंचायत, जिला स्तर पर जिला पंचायत। अन्तर्वर्ती पंचायत जो ग्राम और जिला पंचायतों के बीच होगी।
⦁    पंचायत के सभी स्थान पंचायत क्षेत्र के निर्वाचन क्षेत्र में प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुने गये व्यक्तियों द्वारा भरे जाएँ।
⦁    अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण सुविधा के उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा।
⦁    प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों में से स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

2.

पंचायत के अधिकारों का उल्लेख संविधान की किस अनुसूची में किया गया है?

Answer»

पंचायत के अधिकारों का उल्लेख संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में किया गया है।

3.

पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था क्या है ?

Answer»

पंचायती राज की तीन स्तरीय व्यवस्था के अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों के लिए तीन इकाइयों का प्रावधान किया गया है –

⦁    ग्राम पंचायत
⦁    पंचायत समिति तथा
⦁    जिला परिषद्।

4.

संविधान की ग्यारहवीं सूची के अनुसार पंचायतों के क्षेत्राधिकार में कुछ कितने विषयों को रखा गया है(क) 27(ख) 28(ग) 29(घ) 30

Answer»

सही विकल्प है  (ग) 29

5.

नगरपालिका परिषद् का ऐच्छिक कार्य है –(क) नगरों में रोशनी का प्रबन्ध करना(ख) नगरों में पेयजल की व्यवस्था करना कर(ग) नगरों में स्वच्छता का प्रबन्ध करना(घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना

Answer»

 (घ) प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर शिक्षा की व्यवस्था करना

6.

नगर-निगम की अध्यक्ष कौन होता है ?

Answer»

नगर-निगम का अध्यक्ष नगर प्रमुख होता है।

7.

पंचायती राज के गुण-दोषों का उल्लेख कीजिए।यापंचायती राज की उपलब्धियों तथा दोषों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

पंचायती राज की उपलब्धियाँ (गुण) –

⦁    पंचायती राज पद्धति के फलस्वरूप ग्रामीण भारत में जागृति आयी है।
⦁    पंचायतों द्वारा गाँवों में कल्याणकारी कार्यों के कारण गाँव की हालत सुधरी है।
⦁    पंचायतों द्वारा संचालित प्राथमिक और वयस्क विद्यालयों के फलस्वरूप गाँवों में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार हुआ है।
⦁    पंचायतों ने सफलतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं की ओर अधिकारियों का ध्यान खींचा है।
पंचायती राज के दोष – पंचायती राज पद्धति के कारण गाँवों के जीवन में निम्नलिखित बुराइयाँ भी आयी हैं –

⦁    पंचायतों के लिए होने वाले चुनावों में हिंसा, भ्रष्टाचार और जातिवाद का बोलबाला रहता है। यहाँ तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी इससे परे नहीं होते।
⦁    यह भी कहा जाता है कि पंचायती राज के सदस्य चुने जाने के पश्चात् लोग अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से नहीं करते।
⦁    यहाँ रिश्वतखोरी चलती है और धन का बोलबाला रहता है। धनी आदमी पंचों को खरीद लेते हैं।
⦁    स्वयं पंच लोग अनपढ़ होते हैं, इसलिए वे विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की योग्यता ही नहीं रखते।
⦁    पंच लोग पार्टी-लाइनों पर चुने जाते हैं, इसलिए वे सभी लोगों को निष्पक्ष होकर न्याय नहीं दे सकते।
संक्षेप में, भारत में पंचायती राज एक मिश्रित वरदान है।

 

8.

नगरपालिका (परिषद्) की रचना तथा उसके कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।याअपने प्रदेश में (क्षेत्र) नगरपालिका परिषद का गठन किस प्रकार होता है ? नगर के विकास के लिए वे कौन-कौन-से कार्य करती हैं?

Answer»

उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 ई०’ के अनुसार 1 लाख से 5 लाख तक की जनसंख्या वाले नगर को ‘लघुत्तर नगरीय क्षेत्र का नाम दिया गया है। तथा इनके प्रबन्ध के लिए नगरपालिका परिषद् की व्यवस्था का निर्णय लिया गया है।

गठन – नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और तीन प्रकार के सदस्य होंगे। ये तीन प्रकार के सदस्य निम्नलिखित हैं –
1. निर्वाचित सदस्य – नगरपालिका परिषद् में जनसंख्या के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की संख्या 25 से कम और 55 से अधिक नहीं होगी। राज्य सरकार सदस्यों की यह संख्या निश्चित करके सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित करेगी।
2. पदेन सदस्य – (i) इसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें पूर्णतया अथवा अंशतः वे नगरपालिका क्षेत्र सम्मिलित होते हैं।
(ii) इसमें राज्यसभा और विधान परिषद् के ऐसे समस्त सदस्य सम्मिलित होते हैं, जो उस नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत निर्वाचक के रूप में पंजीकृत हैं।
3. मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान अथवा अनुभव हो। ऐसे सदस्यों की संख्या 3 से कम और 5 से अधिक नहीं होगी। इन मनोनीत सदस्यों को नगरपालिका परिषद् की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों के समान (सभासद) नगरपालिका परिषद् के सदस्यों को भी सभासद’ ही कहा जाएगा।

सभासदों का निर्वाचन व निर्वाचन हेतु अर्हताएँ – प्रत्येक ‘लघुत्तर नगरीय क्षेत्र को लगभग समान जनसंख्या वाले ‘प्रादेशिक क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है तथा ऐसे प्रत्येक प्रादेशिक क्षेत्र को ‘कक्ष’ कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष ‘एक सदस्य निर्वाचन क्षेत्र’ होता तथा ऐसे प्रत्येक कक्ष के वयस्क मताधिकार और प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर एक सभासद निर्वाचित होता है।
सभासद निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित अर्हताएँ होनी चाहिए –
⦁    उसका नाम नगर की मतदाता सूची में हो।
⦁    वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
⦁    वह राज्य सरकार, संघ सरकार तथा नगरपालिका परिषद् के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।
आरक्षण हेतु प्रावधान – अनुसूचित जातियों तथा जनजातियो के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात नगरपालिका परिषद् में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानो की संख्या में यथासम्भव वही होता है, जो अनुपात नगरपालिका परिषद् क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये हैं। इन आरक्षित स्थानों से कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं। इसमें आरक्षण की चक्रानुक्रम व्यवस्था का प्रावधान है। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।

पदाधिकारी – प्रत्येक नगरपालिका परिषद् में एक अध्यक्ष और एक ‘उपाध्यक्ष’ होगा। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में या पद रिक्त होने पर उपाध्यक्ष के द्वारा अध्यक्ष के रूप में कार्य किया जाता है। अध्यक्ष का निर्वाचन 5 वर्ष के लिए समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है। उपाध्यक्ष का निर्वाचन नगरपालिका परिषद् के सभासदों द्वारा एक वर्ष की अवधि के लिए किया जाता है।
अधिकारी और कर्मचारी – उपर्युक्त के अतिरिक्त परिषद् के कुछ वैतनिक अधिकारी व कर्मचारी भी होते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी’ (Executive Officer) होता है। जिन परिषदों में प्रशासनिक अधिकारी न हों, वहाँ परिषद् विशेष प्रस्ताव द्वारा एक या एक से अधिक ‘सचिव नियुक्त करती है।

परिषद की समितियाँ – नगरपालिका परिषद अपने कार्यों के सम्पादन के लिए विभिन्न समितियाँ बना लेती है और प्रत्येक समिति को एक विशिष्ट विभाग का कार्य सौंप दिया जाता है। इसकी प्रमुख समितियाँ हैं –
⦁    स्थायी समिति
⦁    जल समिति
⦁    अर्थ अथवा वित्त समिति
⦁    शिक्षा समिति आदि। इन समितियों में स्थायी समिति सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।
कार्य – नगरपालिका अपनी समितियों के माध्यम से नगरों के विकास के लिए निम्नलिखित कार्य करती है –
(I) अनिवार्य कार्य – नगरपालिका परिषद् को निम्नलिखित कार्य अनिवार्य रूप से करने पड़ते हैं।
⦁    सड़कों का निर्माण करना तथा उनकी मरम्मत व सफाई करवाना।
⦁    नगरों में जल की व्यवस्था करना।
⦁    नगरों में प्रकाश की व्यवस्था करना।
⦁    सड़कों के किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाना।
⦁    नगर की सफाई का प्रबन्ध करना।
⦁    औषधालयों का प्रबन्ध करना तथा संक्रामक रोगों से बचने के लिए टीके लगवाना।
⦁    शवों को जलाने एवं दफनाने की उचित व्यवस्था करना।
⦁    जन्म एवं मृत्यु का विवरण रखना।
⦁    नगरों में शिक्षा की व्यवस्था करना।
⦁    आग बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की व्यवस्था करना।
⦁    सड़कों तथा मोहल्लों का नाम रखनी व मकानों पर नम्बर डलवाना।
⦁    बूचड़खाने बनवाना तथा उनकी व्यवस्था करना।
⦁    अकाल के समय लोगों की सहायता करना।
(II) ऐच्छिक कार्य – नगरपालिका परिषद् निम्नलिखित ऐच्छिक कार्यों को भी स्वेच्छा से पूरा करती है –
⦁    नगर को सुन्दर तथा स्वच्छ बनाये रखना।
⦁    पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर व विश्रामगृहों की स्थापना करना।
⦁    प्रारम्भिक शिक्षा से ऊपर की शिक्षा की व्यवस्था करना।
⦁    पागलखाना और कोढ़ियों के रखने के स्थानों आदि की व्यवस्था करना।
⦁    बाजार तथा पैंठ की व्यवस्था करना।
⦁    पागल तथा आवारा कुत्तों को पकड़वाना।
⦁    अनाथों के रहने तथा बेकारों के लिए रोजी का प्रबन्ध करना।
⦁    नगर में नगर-बस सेवा चलवाना।
⦁    नगर में नये-नये उद्योगधन्धे विकसित करने के लिए सुविधाएँ प्रदान करना।

9.

नगर-निगम की रचना और उसके कार्यों पर प्रकाश डालिए।

Answer»

उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन-विधि (संशोधन), 1994 के अन्तर्गत 5 लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर को वृहत्तर नगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया है तथा ऐसे प्रत्येक नगर में स्वायत्त शासन के अन्तर्गत नगर निगम की स्थापना का प्रावधान किया गया है। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कानपुर, आगरा, वाराणसी, मेरठ, इलाहाबाद, गोरखपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़, गाजियाबाद, सहारनपुर, मथुरा, झाँसी व बरेली नगरों में नगर-निगम स्थापित कर दिये गये हैं। उत्तर प्रदेश के दो नगरों-कानपुर और लखनऊ-की जनसंख्या 10 लाख से अधिक है, अत: इन्हें महानगर तथा इनका प्रबन्ध करने वाली संस्था को ‘महानगर निगम’ की संज्ञा दी गयी है। वर्तमान में कुछ और नगर–आगरा, वाराणसी, मेरठ-भी ‘महानगर निगम’ बनाये जाने के लिए प्रस्तावित हैं।

गठन – नगर-निगम के गठन हेतु नगर प्रमुख, उप-नगर प्रमुख व तीन प्रकार के सदस्य क्रमश: निर्वाचित सदस्य, मनोनीत सदस्य व पदेन सदस्यों को प्रावधान किया गया है। ये तीन प्रकार के सदस्य इस प्रकार हैं –
1. निर्वाचित सदस्य – नगर निगम के निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाता है। सभासदों की संख्या कम-से-कम 60 व अधिक-से-अधिक 110 निर्धारित की गयी है। यह संख्या राज्य सरकार द्वारा सरकारी गजट में दी गयी विज्ञप्ति के आधार पर निश्चित की जाती है।
निर्वाचन – नगर निगम के सभासदों का चुनाव नगर के वयस्क नागरिकों द्वारा होता है। चुनाव के लिए नगर को अनेक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है, जिन्हें ‘कक्ष’ (ward) कहा जाता है। प्रत्येक कक्ष से संयुक्त निर्वाचन पद्धति के आधार पर एक सभासद का चुनाव होता है।
योग्यता – नगर-निगम के सभासद के निर्वाचन में भाग लेने हेतु निम्नलिखित योग्यताएँ अथवा अर्हताएँ होनी चाहिए –
⦁    सभासद के निर्वाचन में भाग लेने के लिए नगर-निगम क्षेत्र की मतदाता सूची (निर्वाचन सूची) में उसका नाम अंकित होना चाहिए।
⦁    आयु 21 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।
⦁    वह व्यक्ति राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की सभी योग्यताएँ व उपबन्ध पूर्ण करता हो।
विशेष – जो स्थान आरक्षित श्रेणियों के लिए आरक्षित किये गये हैं, उन पर आरक्षित वर्ग का व्यक्ति ही निर्वाचन में भाग ले सकेगा।
स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक निगम में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये जाएँगे। इस प्रकार से आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात; निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात नगर-निगम क्षेत्र की कुल जनसंख्या में इन जातियों का है। प्रत्येक नगर-निगम में प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने वाले स्थानों का 27 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया जाएगा। इन आरक्षित स्थानों में कम-सेकम एक तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों को सम्मिलित करते हुए, प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक तिहाई स्थान, महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। इन आरक्षित स्थानों में मनोनीत सदस्यों के स्थान भी सम्मिलित हैं। उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण की चक्रानुक्रम व्यवस्था का प्रावधान है।
2. मनोनीत सदस्य – नगर-निगम में राज्य सरकार द्वारा ऐसे सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा जिन्हें नगर निगम प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव हो। इन सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी। मनोनीत सदस्यों को नगर-निगम की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा। इनकी संख्या 5 व 10 के मध्य होगी।
3. पदेन सदस्य –
⦁    लोकसभा और राज्य विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें नगर पूर्णतः अथवा अंशतः समाविष्ट है।
⦁    राज्यसभा और विधान परिषद् के वे सदस्य, जो उस नगर में निर्वाचक के रूप में पंजीकृत
⦁    उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम, 1965 ई० के अधीन स्थापित समितियों के वे अध्यक्ष जो नगर निगम के सदस्य नहीं हैं।
कार्यकाल – नगर-निगम का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार धारा 538 के अन्तर्गत निगम को इसके पूर्व भी विघटित कर सकती है।
समितियाँ – नगर-निगम की दो प्रमुख समितियाँ होंगी – (1) कार्यकारिणी समिति तथा (2) विकास समिति। इसके अतिरिक्त नगर-निगम में निगम विद्युत समिति, नगर परिवहन समिति और इसी प्रकार की अन्य समितियाँ भी गठित की जा सकती हैं; परन्तु इन समितियों की संख्या 12 से अधिक नहीं होनी चाहिए। अधिनियम, 1994 के अन्तर्गत नगर-निगम को नगर निगम क्षेत्र में वे ही कार्य करने का निर्देश दिया गया है जो कार्य नगरपालिका परिषद् को नगरपालिका क्षेत्र में करने का निर्देश है।
पदाधिकारी – नगर-निगम में दो प्रकार के अधिकारी होते हैं – निर्वाचित एवं स्थायी। निर्वाचित अधिकारी अवैतनिक तथा स्थायी अधिकारी वैतनिक होते हैं।

(I) निर्वाचित अधिकारी निर्वाचित अधिकारी मुख्य रूप से निम्नवत् होते हैं –
नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक नगर प्रमुख होता है। नगर प्रमुख का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है। इस अवधि से पहले अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा ही नगर प्रमुख को पद से हटाया जा सकता है। इस पद के लिए वही व्यक्ति प्रत्याशी हो सकता है, जो नगर का निवासी हो और जिसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष हो। नगर प्रमुख का पद अवैतनिक होता है; उसका निर्वाचन नगर के समस्त मतदाताओं द्वारा वयस्क मताधिकार तथा प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता है।
उप-नगर प्रमुख – प्रत्येक नगर-निगम में एक ‘उप-नगर प्रमुख भी होता है। नगर प्रमुख की अनुपस्थिति अथवा पद रिक्त होने पर उप-नगर प्रमुख ही नगर प्रमुख के कार्यों का सम्पादन करता है। इसका चुनाव एक वर्ष के लिए सभासद करते हैं।

(II) स्थायी अधिकारी – ये अधिकारी निम्नवत् हैं –
मुख्य नगर अधिकारी – प्रत्येक नगर-निगम का एक मुख्य नगर अधिकारी होता है। यह अखिल भारतीय शासकीय सेवा (I.A.S.) का उच्च अधिकारी होता है। राज्य सरकार इसी अधिकारी के माध्यम से नगर-निगम पर नियन्त्रण रखती है।
अन्य अधिकारी – मुख्य नगर अधिकारी के अतिरिक्त एक या अधिक ‘अपर मुख्य नगर अधिकारी भी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ प्रमुख अधिकारी भी होते हैं; जैसे—मुख्य अभियन्ता, नगर स्वास्थ्य अधिकारी, मुख्य नगर लेखा परीक्षक, सहायक नगर अधिकारी आदि अनेक वैतनिक अधिकारी भी होते हैं।
नगर निगम का कार्य-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। उत्तर प्रदेश के निगमों को 41 अनिवार्य और 43 ऐच्छिक कार्य करने होते हैं; यथा –

अनिवार्य कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत नगर में सफाई की व्यवस्था करना, सड़कों एवं गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करना, अस्पतालों एवं औषधालयों का प्रबन्ध करना, इमारतों की देखभाल करना, पेयजल का प्रबन्ध करना, संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना, जन्ममृत्यु का लेखा रखना, प्राथमिक एवं नर्सरी शिक्षा का प्रबन्ध करना, नगर नियोजन एवं नगर सुधार कार्यों की व्यवस्था करना आदि विभिन्न कार्य सम्मिलित किये गये हैं।

ऐच्छिक कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत निगम को पुस्तकालय, वाचनालय, अजायबघर आदि की व्यवस्था के साथ-साथ समय-समय पर लगने वाले मेलों और नुमाइशों की व्यवस्था भी करनी होती है। इन ऐच्छिक कार्यों में ट्रक, बस आदि चलाना एवं कुटीर उद्योगों का विकास करना आदि भी सम्मिलित हैं। इस प्रकार नगर-निगम लगभग उन्हीं समस्त कार्यों को बड़े पैमाने पर सम्पादित करता है, जो छोटे नगरों में नगरपालिका करती है।

10.

उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्वशासन के लिए क्या व्यवस्था की गयी है? संक्षेप में प्रकाश डालिए।

Answer»

भारतीय संविधान के 74वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर उत्तर प्रदेश के राज्य विधानमण्डल ने उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन अधिनियम, 1994′ पारित किया था तथा इसी के आधार पर प्रदेश में नगरीय स्वायत्त शासन की व्यवस्था की गयी। 1994 ई० के इस अधिनियम से पूर्व उत्तर प्रदेश राज्य के नगरीय क्षेत्रों हेतु स्थानीय स्वायत्त शासन की पाँच संस्थाएँ थीं, परन्तु इस अधिनियम द्वारा अब केवल निम्नलिखित तीन संस्थाएँ ही शेष रह गयी हैं –

⦁    वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगर निगम’।
⦁    लघुत्तर क्षेत्र के लिए नगरपालिका परिषद्
⦁    संक्रमणशील क्षेत्र के लिए नगर पंचायत’।

11.

भारत में सनीय संस्थाओं का क्या महत्त्व है ?

Answer»

भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में स्थानीय स्वशासी संस्थाओं का देश की राजनीति और प्रशासन में विशेष महत्व है। किसी भी गाँव या कस्बे की समस्याओं का सबसे अच्छा ज्ञान उस गाँव या कस्बे के निवासियों को ही होता है। इसलिए वे अपनी छोटी सरकार का संचालन करने में समर्थ तथा सर्वोच्च होते हैं। इन संस्थाओं का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है –

⦁    इनके द्वारा गाँव तथा नगर के निवासियों की प्रशासन में भागीदारी सम्भव होती है।
⦁    ये संस्थाएँ प्रशासन तथा जनता के मध्य अधिकाधिक सम्पर्क बनाये रखने में सहायक होती हैं। इसके फलस्वरूप जिला प्रशासन को अपना कार्य करने में आसानी होती है।
⦁    स्थानीय विकास तथा नियोजन की प्रक्रियाओं में भी ये संस्थाएँ सहायक सिद्ध होती हैं।

12.

नगर पंचायत के संगठन और उसके कार्यों का वर्णन कीजिए।

Answer»

उत्तर प्रदेश नगरीय स्वायत्त शासन विधि (संशोधन), 1994 के अनुसार 30 हजार से 1 लाख की जनसंख्या वाले क्षेत्र को ‘संक्रमणशील क्षेत्र घोषित किया गया है, अर्थात् जिन स्थानों पर टाउन एरिया कमेटी’ थी, उन स्थानों को अब ‘टाउन एरिया’ नाम के स्थान पर नगर पंचायत नाम दिया गया है। ये स्थान ऐसे हैं जो ग्राम के स्थान पर नगर बनने की ओर अग्रसर हैं।

संरचना – प्रत्येक नगर पंचायत में एक अध्यक्ष व तीन प्रकार के सदस्य होंगे। सदस्य क्रमशः इस प्रकार होंगे
1. निर्वाचित सदस्य, 2. पदेन सदस्य तथा 3. मनोनीत सदस्य।
1. निर्वाचित सदस्य – नगर पंचायतों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कम-से-कम 10 और अधिक-से-अधिक 24 होगी। नगर पंचायत के सदस्यों की संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाएगी तथा यह संख्या सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा प्रकाशित की जाएगी। निर्वाचित सदस्यों को सभासद कहा जाएगा। सभासद के निर्वाचन के लिए नगर को लगभग समान जनसंख्या वाले क्षेत्रों (वार्ड) में विभक्त किया जाएगा। वार्ड एक सदस्यीय होगा। प्रत्येक सभासद का निर्वाचन वार्ड के वयस्क मताधिकार प्राप्त नागरिकों के द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति के आधार पर किया जाएगा।
सभासद की योग्यता –
⦁    सभासद का नाम नगर की मतदाता सूची में पंजीकृत होना चाहिए।
⦁    उसकी आयु कम-से-कम 21 वर्ष होनी चाहिए।
⦁    वह राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने के सभी उपबन्ध पूरे करता हो (केवल आयु के अतिरिक्त)।
⦁    जो स्थान आरक्षित हैं, उन स्थानों से आरक्षित वर्ग का स्त्री/पुरुष ही चुनाव लड़ सकता है।
आरक्षण – जनसंख्या के अनुपात में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए वार्ड का आरक्षण होगा। पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत वार्ड आरक्षित होंगे, जिनमें अनुसूचित जाति/जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के आरक्षण की एक-तिहाई महिलाएँ सम्मिलित होंगी।
2. पदेन सदस्य – लोकसभा व विधानसभा के वे सभी सदस्य पदेन सदस्य होंगे, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें पूर्णतया या अंशतया वह नगर पंचायत क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त राज्यसभा व विधान परिषद् के ऐसे सभी सदस्य, जो उस नगर पंचायत क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में पंजीकृत हैं, पदेन सदस्य होंगे।
3. मनोनीत सदस्य – प्रत्येक नगर पंचायत में राज्य सरकार द्वारा ऐसे 2 या 3 सदस्यों को मनोनीत किया जाएगा, जिन्हें नगरपालिका प्रशासन का विशेष ज्ञान व अनुभव होगा। ये मनोनीत सदस्य नगर पंचायत की बैठकों में मत नहीं दे सकेंगे।
कार्यकाल – नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा। राज्य सरकार नगर पंचायत का विघटन भी कर सकती है, परन्तु नगर पंचायत के विघटन के दिनांक से 6 माह की अवधि के अन्दर पुनः चुनाव कराना अनिवार्य होगा।
कार्य – नगर पंचायत मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करेगी –
⦁    सर्वसाधारण की सुविधा से सम्बन्धित कार्य करना – इनमें सड़कें बनवाना, वृक्ष लगवाना, सार्वजनिक स्थानों का निर्माण कराना, अकाल, बाढ़ या अन्य विपत्ति के समय जनता की सहायता करना आदि प्रमुख हैं।
⦁    स्वास्थ्य-रक्षा सम्बन्धी कार्य करना – इनमें संक्रामक रोगों से बचाव के लिए टीके लगवाना, खाद्य-पदार्थों का निरीक्षण करना, अस्पताल, औषधियों तथा स्वच्छ जल की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।
⦁    शिक्षा-सम्बन्धी कार्य करना – इनमें प्रारम्भिक शिक्षा के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था करना, वाचनालय और पुस्तकालय बनवाना तथा ज्ञानवर्द्धन के लिए प्रदर्शनी लगाना आदि प्रमुख हैं।
⦁    आर्थिक कार्य करना – इनमें जल और विद्युत की पूर्ति करना, यातायात के लिए बसों की तथा मनोरंजन के लिए सिनेमा-गृहों (छवि-गृहों) या मेलों की व्यवस्था करना आदि प्रमुख हैं।
⦁    सफाई-सम्बन्धी कार्य करना – इनमें सड़कों, गलियों तथा नालियों की सफाई कराना, सड़कों पर पानी का छिड़काव कराना आदि प्रमुख हैं।

13.

नगर-निगम किन नगरों में स्थापित की जाती है ? उत्तर प्रदेश में नगर-निगम का गठन किन-किन स्थानों पर किया गया है ?

Answer»

पाँच लाख से दस लाख तक की जनसंख्या वाले नगरों में नगर-निगम स्थापित की जाती हैं। उत्तर प्रदेश के आगरा, वाराणसी, इलाहाबाद, बरेली, मेरठ, अलीगढ़, मुरादाबाद, गाजियाबाद, सहारनपुर, झाँसी, मथुरा, लखनऊ, कानपुर तथा गोरखपुर में नगर-निगम कार्यरत हैं। कानपुर तथा लखनऊ में महानगर निगम स्थापित हैं।

14.

इस राज्य की आय के चार साधनों का उल्लेख कीजिए।

Answer»

उत्तर प्रदेश की आय के चार साधन निम्नलिखित हैं –

⦁    स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा लगाई गई विभिन्न चुंगी व कर।
⦁    केन्द्र द्वारा दी गई अनुदान राशि तथा अनुग्रह।
⦁    प्रान्त के भीतर विक्रय किए जाने वाले पदार्थों व वस्तुओं पर लगाया गया वाणिज्य-कर।
⦁    आबकारी (मादक द्रव्यों) पर लगाया गया शुल्क व नीलामी से प्राप्त राजस्व।

15.

नगर पंचायत के प्रमुख कार्य बताइए।

Answer»

नगर पंचायत अपने क्षेत्र में वे सभी कार्य करती है जो कार्य नगरपालिका परिषद् द्वारा अपने क्षेत्र में किए जाते हैं। नगर पंचायत के प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं –

⦁    सार्वजनिक सड़कों, स्थानों व नालियों की सफाई तथा रोशनी का प्रबन्ध।
⦁    पर्यावरण की रक्षा।
⦁    श्मशान-स्थलों की व्यवस्था।
⦁    शुद्ध तथा स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति।
⦁    जन्म तथा मृत्यु का पंजीयन।
⦁    प्रसूति केन्द्रों तथा शिशु-गृहों की व्यवस्था
⦁    पशु चिकित्सालयों तथा प्राथमिक स्कूलों की व्यवस्था।
⦁    अग्नि-शमन की व्यवस्था तथा समय-समय पर कानून द्वारा सौंपे गए अन्य समस्त दायित्वों की पूर्ति

16.

स्थानीय प्रशासन से आप क्या समझते हैं ? स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता तथा महत्त्व बताइए।

Answer»

भारत में केन्द्र व राज्य सरकारों के अतिरिक्त, तीसरे स्तर पर एक ऐसी सरकार है। जिसके सम्पर्क में नगरों और ग्रामों के निवासी आते हैं। इस स्तर की सरकार को स्थानीय स्वशासन कहा जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था स्थानीय निवासियों को अपना शासन-प्रबन्ध करने का अवसर प्रदान करती है। इसके अन्तर्गत मुख्यतया ग्रामवासियों के लिए पंचायत और नगरवासियों के लिए नगरपालिका उल्लेखनीय हैं। इन संस्थाओं द्वारा स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रयास किये जाते हैं। व्यावहारिक रूप में वे सभी कार्य जिनका सम्पादन वर्तमान समय में ग्राम पंचायतों, जिला पंचायतों, नगर पालिकाओं, नगर निगम आदि के द्वारा किया जाता है, वे स्थानीय स्वशासन के अन्तर्गत आते हैं।

स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व
स्थानीय स्वशासन की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है –

1, लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने में सहायक – भारत में स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं को स्थापित करने के लिए स्थानीय स्वशासन व्यवस्था ठोस आधार प्रदान करती है। उसके माध्यम से शासन-सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथ में चली जाती है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्वशासन-व्यवस्था, स्थानीय निवासियों में लोकतान्त्रिक संगठनों के प्रति रुचि उत्पन्न करती है।
2. भावी नेतृत्व का निर्माण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ भारत के भावी नेतृत्व को तैयार करती हैं। ये विधायकों और मन्त्रियों को प्राथमिक अनुभव एवं प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, जिससे वे भारत की ग्रामीण समस्याओं से अवगत होते हैं। इस प्रकार ग्रामों में उचित नेतृत्व का निर्माण करने एवं विकास कार्यों में जनता की रुचि बढ़ाने में स्थानीय स्वशासन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।
3. जनता और सरकार के पारस्परिक सम्बन्ध – भारत की जनता स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के माध्यम से शासन के बहुत निकट पहुँच जाती है। इससे जनता और सरकार में एक-दूसरे की कठिनाइयों को समझने की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त दोनों में सहयोग भी बढ़ता है, जो ग्रामीण उत्थान एवं विकास के लिए आवश्यक है।
4. स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी – ग्राम पंचायतों के कार्यकर्ता और पदाधिकारी स्थानीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। इन स्थानीय पदाधिकारियों के सहयोग के अभाव में नतो राष्ट्र के निर्माण का कार्य सम्भव हो पाता है और नही सरकारी कर्मचारी अपने दायित्व का समुचित रूप से पालन कर पाते हैं।
5. प्रशासकीय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ केन्द्रीय व राज्य सरकारों को स्थानीय समस्याओं के भार से मुक्त करती हैं। स्थानीय स्वशासन की इकाइयों के माध्यम से ही शासकीय शक्तियों एवं कार्यों का विकेन्द्रीकरण किया जा सकता है। लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया में शासन-सत्ता कुछ निर्धारित संस्थाओं में निहित होने के स्थान पर, गाँव की पंचायत के कार्यकर्ताओं के हाथों में पहुँच जाती है। भारत में इस व्यवस्था से प्रशासन की कार्यकुशलता में पर्याप्त वृद्धि हुई है।
6. नागरिकों को निरन्तर जागरूक बनाये रखने में सहायक – स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ लोकतन्त्र की प्रयोगशालाएँ हैं। ये भारतीय नागरिकों को अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग की शिक्षा तो देती ही हैं, साथ ही उनमें नागरिकता के गुणों का विकास करने में भी सहायक होती हैं।
7. लोकतान्त्रिक परम्पराओं के अनुरूप – लोकतन्त्र का आधारभूत तथा मौलिक सिद्धान्त यह है कि सत्ता का अधिक-से-अधिक विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। स्थानीय स्वशासन की इकाइयाँ इस सिद्धान्त के अनुरूप हैं।
8. नौकरशाही की बुराइयों की समाप्ति – स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी से प्रशासन में नौकरशाही, लालफीताशाही तथा भ्रष्टाचार जैसी बुराइयाँ उत्पन्न नहीं होती हैं।
9. प्रशासनिक अधिकारियों की जागरूकता – स्थानीय लोगों की शासन में भागीदारी के कारण प्रशासन उस क्षेत्र की आवश्यकताओं के प्रति अधिक सजग तथा संवेदनशील हो जाता है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि स्थानीय स्वशासन लोकतन्त्र का आधार है। यह लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण (Democratic Decentralisation) की प्रक्रिया पर आधारित है। यदि प्रशासन को जागरूक तथा अधिक कार्यकुशल बनाना है तो उसका प्रबन्ध एवं संचालन स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप स्थानीय संस्थाओं के द्वारा ही सम्पन्न किया जाना चाहिए।

17.

न्याय पंचायत के पंचों की नियुक्ति किस प्रकार होती है ?

Answer»

ग्राम पंचायत के सदस्यों में से विहित प्राधिकारी न्याय पंचायत के उतने ही पंच नियुक्त करता है जितने कि नियत किये जाएँ। ऐसे नियुक्त किये गये व्यक्ति ग्राम पंचायत के सदस्य नहीं रहेंगे।

18.

ग्रामीण भारत के विकास में ग्राम पंचायतों की भूमिका बताइए। याग्राम पंचायतों के गठन एवं कार्यों का वर्णन कीजिए। यापंचायती राज-व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों का वर्णन कीजिए।याभारत में पंचायती राज-व्यवस्था की कार्यप्रणाली का परीक्षण कीजिए।

Answer»

भारत गाँवों का देश है। ब्रिटिश राज में गाँवों की आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था शोचनीय हो गयी थी; अत: स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद देश में पंचायती राज व्यवस्था द्वारा गाँवों में राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण का प्रयास किया गया। बलवन्त राय मेहता समिति ने पंचायती राज व्यवस्था के लिए त्रि-स्तरीय योजना का परामर्श दिया। इस योजना में सबसे निचले। स्तर पर ग्राम सभा और ग्राम पंचायतें हैं। स्तर पर क्षेत्र समितियाँ तथा उच्च स्तर पर जिला परिषदों की व्यवस्था की गयी थी।
भारतीय गाँवों में बहुत पहले से ही ग्राम पंचायतों की व्यवस्था रही है। उत्तर प्रदेश सरकार ने संयुक्त प्रान्तीय पंचायत राज कानून बनाकर पंचायतों के संगठन सम्बन्धी उल्लेखनीय कार्य को किया था। सन् 1947 ई० के इस कानून के अनुसार ग्राम पंचायत के स्थान पर ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत की व्यवस्था की गयी थी। अब उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 के अनुसार भी ग्राम सभा, ग्राम पंचायत तथा न्याय पंचायत की ही व्यवस्था को रखा गया है।

ग्राम पंचायत के कार्य तथा शक्तियाँ
प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम सभा’ होती है। गाँव का प्रत्येक वयस्क व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है। ग्राम पंचायत को चयन ग्राम सभा के द्वारा किया जाता है। ग्राम पंचायत के चुनाव गुप्त मतदान के द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर किये जाते हैं। पंचायत के सरपंच का चुनाव पंचायत के सम्पूर्ण निर्वाचित मण्डल द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। ग्राम पंचायत, पंचायती राज-व्यवस्था की सबसे छोटी आधारभूत इकाई है। यह ग्राम सरकार की कार्यपालिका के रूप में कार्य करती है।

ग्राम पंचायत के कार्यों तथा शक्तियों की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है-
1. सार्वजनिक कार्य – सार्वजनिक कार्यों के अन्तर्गत
⦁    गाँव की सफाई की व्यवस्था करना
⦁    रोशनी का प्रबन्ध करना
⦁    संक्रामक रोगों की रोकथाम करना
⦁    गाँव एवं गाँव की इमारतों की रक्षा करना
⦁    जन्म-मरण का लेखा-जोखा रखना
⦁    बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना
⦁    खेलकूद की व्यवस्था करना
⦁    कृषि की उन्नति का प्रयत्न करना
⦁    श्मशान भूमि की व्यवस्था करना
⦁    सार्वजनिक चरागाहों की व्यवस्था करना
⦁    आग बुझाने का प्रबन्ध करना
⦁    जनगणना और पशुगणना करना
⦁    प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध करना
⦁    खाद एकत्र करने के लिए स्थान निश्चित करना
⦁    जल मार्गों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना
⦁    प्रसूति-गृह खोलना
⦁    कानून द्वारा सौंपा गया कोई और कार्य करना
⦁    आदर्श नागरिकता की भावना को प्रोत्साहन देना तथा
⦁    ग्रामीण जनता को शासन व्यवस्था से परिचित कराना आदि कार्य आते हैं।
2. व्यवसाय – सम्बन्धी कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत
⦁    अस्पताल खुलवाना
⦁    पुस्तकालय एवं वाचनालयों की व्यवस्था करना
⦁    पार्क बनवाना
⦁    गृह-उद्योगों को उन्नत करने का प्रयत्न करना
⦁    पशुओं की नस्ल सुधारना
⦁    स्वयंसेवक दल का संगठन करना
⦁    सहकारी समितियों का गठन करना
⦁    सहकारी ऋण प्राप्त करने में किसानों की सहायता करना
⦁    अकाल या अन्य विपत्ति के समय गाँव वालों की सहायता करना
⦁    सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना आदि कार्य सम्मिलित होते हैं।
3. न्याय-सम्बन्धी कार्य – इन कार्यों के अन्तर्गत, ग्राम पंचायत के कुछ सदस्य न्याय पंचायत के रूप में कार्य करते हुए अपने गाँव के छोटे-छोटे झगड़ों का निपटारा भी करते हैं। दीवानी के मामलों में ये हैं 500 के मूल्य तक की सम्पत्ति के मामलों की सुनवाई कर सकते हैं तथा फौजदारी के मुकदमों में इसे ₹ 250 तक का जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त है।
भारतीय संविधान में किये गये 73वें संशोधन के द्वारा ग्राम पंचायत को व्यापक अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। साथ ही ग्राम पंचायत के कार्य-क्षेत्र को भी व्यापक बनाया गया है। जिसके अन्तर्गत 29 नियमों से युक्त एक विस्तृत सूची को रखा गया है।

आय के स्रोत – ग्राम पंचायतों की आय के मुख्य स्रोत हैं-सरकार से मिलने वाले अनुदान, भवनों व गाड़ियाँ आदि पर कर, पशुओं व वस्तुओं पर चुंगी, यात्री कर, वाणिज्यिक फसलों पर कर, सरकार द्वारा अनुमोदित कोई भी राज्य कर, कर्ज, उपहार आदि। पंचायतों को भूमि, तालाब और बाजार से भी कुछ आये हो जाती है। कुछ विशेष प्रकार के कर लगाने के लिए पंचायतों को राज्य सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है। |

महत्त्व – आज के प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था के युग में ग्राम पंचायतों का बहुत महत्त्व है। ये संस्थाएँ जनता को जनतन्त्र की शिक्षा प्रदान करती हैं। नागरिक गुणों के विकास के लिए ग्राम पंचायतें प्रारम्भिक पाठशालाओं का काम करती हैं और जनता में अपने अधिकारों तथा स्वतन्त्रता की भावना को जाग्रत करने में सहायक होती हैं। ये जनता में सहज बुद्धि, न्यायशीलता, निर्णय-शक्ति और सामाजिकता का भी विकास करती हैं। ग्राम पंचायत स्थानीय स्तर की समस्याओं का समाधान समुचित रूप से कर लेती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई तथा मार्गों का निर्माण कराकर ये संस्थाएँ जनहित के कार्यों में संलग्न रहती हैं। गाँवों के आर्थिक विकास में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वस्तुतः ग्राम पंचायतें ग्राम सभाओं की कार्यकारिणी के रूप में कार्य करती हैं।

19.

किन संविधान संशोधनों द्वारा पंचायतों और नगरपालिकाओं से सम्बन्धित उपबन्धों का संविधान में उल्लेख किया गया ?

Answer»

⦁    उत्तर प्रदेश पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा जिला पंचायत की व्यवस्था।
⦁    उत्तर प्रदेश नगर स्वायत्त शासन विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 द्वारा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था।

20.

क्षेत्र पंचायत किस प्रकार गठित की जाती है? यह अपने क्षेत्र के विकास के लिए कौन-कौन से कार्य करती है?याक्षेत्र पंचायत (पंचायत समिति के संगठन, कार्यों तथा शक्तियों पर प्रकाश डालिए

Answer»

उत्तर प्रदेश पंचायत (संशोधन) अधिनियम, 1994′ के सेक्शन 7(1) के द्वारा क्षेत्र समिति का नाम बदलकर क्षेत्र पंचायत कर दिया गया है। यह ग्राम पंचायत के ऊपर के स्तर की इकाई होती है। राज्य सरकार गजट में अधिसूचना द्वारा प्रत्येक खण्ड के लिए एक क्षेत्र पंचायत स्थापित करेगी। पंचायत का नाम खण्ड के नाम पर होगा।
संगठन – क्षेत्र पंचायत एक प्रमुख और निम्नलिखित प्रकार के सदस्यों से मिलकर बनेगी
⦁    खण्ड की सभी ग्राम पंचायतों के प्रधान।
⦁    निर्वाचित सदस्य-ये पंचायती क्षेत्र के 2000 जनसंख्या वाले प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा निर्वाचित किये जाएँगे।
⦁    लोकसभा और विधानसभा के ऐसे सदस्य, जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पूर्णतः अथवा अंशत: उस खण्ड में सम्मिलित हैं।
⦁    राज्यसभा तथा विधान परिषद् के ऐसे सदस्य, जो खण्ड के अन्तर्गत निर्वाचकों के रूप में पंजीकृत हैं।
उपर्युक्त सदस्यों में केवल निर्वाचित सदस्यों को ही प्रमुख अथवा उप-प्रमुख के निर्वाचन तथा उनके विरुद्ध अविश्वास के मामलों में मत देने का अधिकार होगा।
योग्यता – क्षेत्र पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए व्यक्तियों में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –
⦁    उसका नाम क्षेत्र पंचायत की प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की निर्वाचक नामावली में हो।
⦁    वह विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
⦁    उसकी आयु 21 वर्ष हो।
⦁    वह किसी लाभ के सरकारी पद पर न हो।
स्थानों का आरक्षण – प्रत्येक क्षेत्र पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे। क्षेत्र पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में आरक्षित स्थानों का अनुपात यथासम्भव वही होगा जो उस खण्ड में अनुसूचित जातियों अथवा जनजातियों की या पिछड़े वर्गों की जनसंख्या का अनुपात उस खण्ड की कुल जनसंख्या में है। पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।
अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

पदाधिकारी – क्षेत्र पंचायत में निर्वाचित सदस्यों द्वारा अपने में से ही एक प्रमुख, एक ज्येष्ठ उप-प्रमुख तथा एक कनिष्ठ उप-प्रमुख चुने जाते हैं। राज्य में क्षेत्र पंचायतों के प्रमुखों के पद अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये हैं।
कार्यकाल – क्षेत्र पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष है, परन्तु राज्य सरकार 5 वर्ष की अवधि से पहले भी क्षेत्र पंचायत को विघटित कर सकती है। प्रमुख, उपप्रमुख अथवा क्षेत्र पंचायत का कोई भी सदस्य 5 वर्ष की अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र देकर अपना पद त्याग सकता है। प्रमुख तथा उप-प्रमुख के द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन न करने की स्थिति में उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें पदच्युत किया जा सकता है। क्षेत्र पंचायत के विघटन के छ: माह की अवधि के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य है।
अधिकारी – क्षेत्र पंचायत का सबसे प्रमुख अधिकारी ‘खण्ड विकास अधिकारी’ (Block Development Officer) होता है। इस पर समस्त प्रशासन का उत्तरदायित्व होता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारी भी होते हैं।
अधिकार और कार्य – क्षेत्र पंचायत के प्रमुख अधिकार और कार्य निम्नलिखित हैं –
⦁    कृषि, भूमि विकास, भूमि सुधार और लघु सिंचाई सम्बन्धी कार्यों को करना।
⦁    सार्वजनिक निर्माण सम्बन्धी कार्य करना।
⦁    कुटीर और ग्राम उद्योगों तथा लघु उद्योगों का विकास करना।
⦁    पशुपालन तथा पशु सेवाओं में वृद्धि करना।
⦁    स्वास्थ्य तथा सफाई सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
⦁    शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास से सम्बद्ध कार्य कराना।
⦁    पेयजल, ईंधन और चारे की व्यवस्था करना।
⦁    ग्रामीण आवास की व्यवस्था करना।
⦁    चिकित्सा तथा परिवार कल्याण सम्बन्धी कार्यों की देखभाल करना।
⦁    बाजार तथा मेलों की व्यवस्था करना।
⦁    प्राकृतिक आपदाओं में सहायता प्रदान करना।
क्षेत्र पंचायत जल-कर तथा विद्युत-कर लगाती है। इनके अतिरिक्त क्षेत्र पंचायत ऐसा भी कोई कर लगा सकती है, जिसके सम्बन्ध में राज्य सरकार ने क्षेत्र पंचायत को अधिकृत कर दिया है।

21.

जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य बताइए।

Answer»

जिला पंचायत के चार अनिवार्य कार्य हैं –

⦁    पीने के पानी की व्यवस्था करना
⦁    प्राथमिक स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना
⦁    जन-स्वास्थ्य के लिए महामारियों की रोकथाम तथा
⦁    जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।

22.

जिला पंचायत का गठन किस प्रकार होता है? इसके प्रमुख कार्य तथा आय के साधन लिखिए।

Answer»

त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई जिला पंचायत होती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने पंचायत विधि (संशोधन) अधिनियम, 1994 पारित करके जिला परिषद् का नाम बदलकर जिला पंचायत कर दिया है। जिला पंचायत का नाम जिले के नाम पर होता है तथा प्रत्येक जिला पंचायत एक नियमित निकाय होती है। यह जिले के सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्र का प्रबन्ध करती है।

गठन – जिला पंचायत के गठन में निम्नलिखित दो प्रकार के सदस्य होते हैं –
(क) निर्वाचित सदस्य निर्वाचित सदस्यों की सदस्य-संख्या राज्य सरकार द्वारा निश्चित की जाती है। साधारणतया 50,000 से अधिक की जनसंख्या पर एक सदस्य निर्वाचित किया जाता है। यह निर्वाचन वयस्क मतदान द्वारा होता है।
(ख) अन्य सदस्य – अन्य सदस्यों में कुछ पदेन सदस्य होते हैं, जो कि निम्नवत् हैं –
⦁    जनपद की सभी क्षेत्र पंचायतों के प्रमुख।
⦁    लोकसभा तथा विधानसभा के वे सदस्य जो उन निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें जिला पंचायत क्षेत्र का कोई भाग समाविष्ट है।
⦁    राज्यसभा तथा विधान परिषद् के वे सदस्य जो उस जिला पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत हैं।
आरक्षण – प्रत्येक जिला पंचायत में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए नियमानुसार स्थान आरक्षित रहेंगे। आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, जिला अनुपात में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले कुल स्थानों की संख्या में यथासम्भव वही होगा, जो अनुपात इन जातियों, वर्गों की जनसंख्या का जिला पंचायत क्षेत्र की समस्त जनसंख्या में है। संशोधित प्रावधानों के अन्तर्गत पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण कुल निर्वाचित स्थानों की संख्या के 27% से अधिक नहीं होगा।
अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान; इन जातियों और वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे। प्रत्येक जिला पंचायत में निर्वाचित स्थानों की कुल संख्या के कम-से-कम एक-तिहाई स्थान; महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगे।
योग्यता – जिला पंचायत का सदस्य निर्वाचित होने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ अपेक्षित हैं –
⦁    ऐसे सभी व्यक्ति, जिनका नाम उस जिला पंचायत के किसी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के लिए निर्वाचक नामावली में सम्मिलित है।
⦁    जो राज्य विधानमण्डल का सदस्य निर्वाचित होने की आयु सीमा के अतिरिक्त अन्य सभी योग्यताएँ रखता है।
⦁    जिसने 21 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
अधिकारी – प्रत्येक जिला पंचायत में दो अधिकारी होते हैं – अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष, जिनका चुनाव निर्वाचित सदस्यों द्वारा गुप्त मतदान प्रणाली के आधार पर होता है। अध्यक्ष बनने के लिए यह आवश्यक है कि वह जिले में रहता हो, उसकी आयु 21 वर्ष से कम न हो तथा उसका नाम मतदाता सूची में हो। इन दोनों का निर्वाचन पाँच वर्ष के लिए किया जाता है। राज्य सरकार पाँच वर्ष की अवधि से पूर्व भी इन्हें पदच्युत कर सकती है। ये पद भी अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित होते हैं। अध्यक्ष पंचायतों की बैठकों का सभापतित्व करता है, पंचायत के कार्यों का निरीक्षण करता है एवं कर्मचारियों पर नियन्त्रण रखता है। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसका पद- भार उपाध्यक्ष सँभालता है।
इन अधिकारियों के अतिरिक्त छोटे-बड़े, स्थायी-अस्थायी अनेक वैतनिक कर्मचारी भी होते हैं, जो इन अधिकारियों के प्रति जिम्मेदार होते हैं तथा जिला पंचायत का कार्य निष्पादित करते हैं।

कार्य – जिले के समस्त ग्रामीण क्षेत्र की व्यवस्था तथा विकास का उत्तरदायित्व जिला पंचायत पर है। इस दायित्व को पूरा करने के लिए जिला परिषद् निम्नलिखित कार्य करती है –
⦁    सार्वजनिक सड़कों, पुलों तथा निरीक्षण-गृहों का निर्माण एवं मरम्मत करवाना।
⦁    प्रबन्ध हेतु सड़कों का ग्राम सड़कों, अन्तर्याम सड़कों तथा जिला सड़कों में वर्गीकरण करना।
⦁    तालाब, नाले आदि बनवाना।
⦁    पीने के पानी की व्यवस्था करना।
⦁    रोशनी का प्रबन्ध करना।
⦁    जनस्वास्थ्य के लिए महामारियों और संक्रामक रोगों की रोकथाम की व्यवस्था करना।
⦁    अकाल के दौरान सहायता हेतु राहत कार्य चलाना।
⦁    क्षेत्र समिति एवं ग्राम पंचायत के कार्यों में तालमेल स्थापित करना।
⦁    ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्र समितियों के कार्यों का निरीक्षण करना।
⦁    प्राइमरी स्तर से ऊपर की शिक्षा का प्रबन्ध करना।
⦁    सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना।
⦁    कांजी हाउस तथा पशु चिकित्सालय की व्यवस्था करना।
⦁    जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना।
⦁    परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू करना।
⦁    अस्पताल खोलना तथा मनोरंजन के साधनों की व्यवस्था करना।
⦁    पुस्तकालय-वाचनालय का निर्माण एवं उनका अनुरक्षण करना।
⦁    कृषि की उन्नति के लिए उचित प्रबन्ध करना।
⦁    खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकना आदि।

आय के साधन – जिला पंचायत अपने कार्यों को पूर्ण करने के लिए इन साधनों से आय प्राप्त करती है –
⦁    हैसियत एवं सम्पत्ति कर
⦁    स्कूलों से प्राप्त फीस
⦁    अचल सम्पत्ति से कर
⦁    लाइसेन्स कर
⦁    नदियों के पुलों तथा घाटों से प्राप्त उतराई कर
⦁    कांजी हाउसों से प्राप्त आय
⦁    मेलों, हाटों एवं प्रदर्शनियों से प्राप्त आय तथा
⦁    राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।

23.

नगरपालिका के अध्यक्ष का चुनाव होता है –(क) एक वर्ष के लिए(ख) पाँच वर्ष के लिए(ग) चार वर्ष के लिए।(घ) तीन वर्ष के लिए

Answer»

सही विकल्प है (ख) पाँच वर्ष के लिए

24.

जिला परिषद् की आय का साधन है –(क) भूमि पर लगान(ख) चुंगी कर(ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर(घ) आयकर

Answer»

सही विकल्प है (ग) हैसियत एवं सम्पत्ति कर

25.

भारतीय संविधान के किस संशोधन ने पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया (क) 71वें संशोधन द्वारा(ख) 72वें संशोधन द्वारा(ग) 73वें संशोधन द्वारा(घ) 74वें संशोधन द्वारा

Answer»

सही विकल्प है (ग) 73वें संशोधन द्वारा

26.

पंचायती राज-व्यवस्था में कितने स्तर होते हैं?

Answer»

पंचायती राज व्यवस्था में तीन स्तर होते हैं।

27.

जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी कौन होता है ?

Answer»

जिले में शिक्षा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी जिला विद्यालय निरीक्षक होता है।

28.

जिले के विकास-कार्यों से सम्बन्धित जिला स्तरीय अधिकारी का पद नाम लिखिए।

Answer»

मुख्य विकास अधिकारी।

29.

जिले के शिक्षा विभाग का प्रमुख अधिकारी है –(क) जिला विद्यालय निरीक्षक(ख) बेसिक शिक्षा अधिकारी(ग) राजकीय विद्यालय का प्रधानाचार्य(घ) माध्यमिक शिक्षा परिषद् का क्षेत्रीय अध्यक्ष

Answer»

(क) जिला विद्यालय निरीक्षक।