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‘बाजार दर्शन’ पाठ में बताया गया है कि कभी-कभी आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं?

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कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती हैं। यह कथन सही है। मैं जानता हूँ कि बाजार में चीजों का मूल्य माँग और पूर्ति के आधार पर निश्चित होता है। माँग कम और पूर्ति अधिक हो तो चीज सस्ती बिकती है तथा माँग अधिक और पूर्ति कम होने पर वस्तुएँ अधिक कीमत पर बिकती हैं। चालाक विक्रेता इसका लाभ उठाते हैं। वे माल को छिपाकर उसकी बनावटी कमी दिखाते हैं तथा इस प्रकार उसकी पूर्ति की तुलना में लोगों की ज्यादा आवश्यकता दिखाकर माल की उपलब्धता कम दिखा देते हैं। इस तरह कभी-कभी आवश्यकता शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्योंकि कीमतें बनावटी होती हैं तथा अधिक लाभ कमाने के लिए ऐसा किया जाता है।



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