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“गड़रिया बगैर कहे ही उसके दिल की बात समझ गया, पर अँगूठी कबूल नहीं की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते हुए बोला- मैं कोई राजा नहीं हूँ जो न्याय की कीमत वसूल करूँ? मैंने तो अटका काम निकाल दिया और यह अँगूठी मेरे किस काम की । न यह अँगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़े भी मेरी तरह आँवार हैं। घास को खाती हैं, पर सोना सँघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।विजय दान देथा की कहानी ‘दुविधा’ के उपर्युक्त अंश को पढ़कर आप देखेंगे/देखेंगी कि चूरन वाले भगत जी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह ही गड़रिए की जीवन-दृष्टि भी है। इससे आपके मन में क्या भाव जागते हैं?

Answer»

भगत जी संतोषी पुरुष हैं तथा उनकी आवश्यकताएँ सीमित हैं। इसी प्रकार गड़रिया भी संतोषी व लोभरहित तथा कम चीजों से गुजर करने वाला व्यक्ति है। दोनों अपने आप में मस्त हैं। दोनों की अवस्था देखकर मैं सोचता हूँ कि सुख संतोष में है। आवश्यकताओं के पीछे दौड़ने में नहीं है। अधिक धन कमाने तथा उसके प्रदर्शन में जीवन का वास्तविक आनन्द नहीं है। इच्छाओं पर नियंत्रण के बिना मनुष्य सुखी नहीं रह सकता, मनुष्य को अनावश्यक वस्तुओं के संग्रह से बचना चाहिए।



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