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बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों पर प्रकाश डालिए। घर और विद्यालय में क्या उपाय अपेक्षित हैं जिससे बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों से छुटकारा पाया जा सके? आपका उत्तर व्यावहारिक हो और प्रतिदिन के जीवन पर आधारित हो।याबाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों को बताइए। इन कारणों को दूर करने के लिए घर और विद्यालय क्या उपाय कर सकते हैं?

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बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Causes of Juvenile Delinquency)
बाल-अपराध के सामाजिक एवं आर्थिक कारणों के समान ही मनोवैज्ञानिक कारण भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। मन; व्यक्ति के समस्त आचरण और व्यवहार का मूल कारण है। स्वाभाविक रूप से मन का विकार अपराध का कारण बन सकता है।

बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों की खोज की जीवन-वृत्त विधि एवं मनोविश्लेषण विधि के आधार पर अध्ययन के उपरान्त ज्ञात होता है कि बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों का (क) मानसिक या बौद्धिक कारण, (ख) संवेगात्मक कारण, (ग) व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ तथा (घ) विशेष प्रकार के मानसिक रोग शीर्षकों के अन्तर्गत उल्लेख किया जा सकता है। बाल-अपराध के प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं

(क) मानसिक या बौद्धिक कारण मानसिक या बौद्धिक कारणों में अनेक कारण सम्मिलित हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

(1) मानसिक हीनता – अपराधियों में मानसिक हीनता बहुत अधिक होती है। गिलिन एवं गिलिन ने इसके समर्थन में कहा है कि “मानसिक दुर्बलता अपराधी बनाने में एक शक्तिशाली कारक है। सामान्य बुद्धि की कमी से युक्त बालक किसी भी कार्य की अच्छाई-बुराई या उसके परिणामों के विषय में भली प्रकार नहीं सोच सकते, उनकी चिन्तन शक्ति ठीक से काम नहीं करती। मानसिक दृष्टि से दुर्बल बालक समाज से अपना उचित समायोजन करने तथा अच्छे ढंग से आजीविका कमाने में असमर्थ रहते हैं और अपनी आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति नहीं कर पाते। ऐसे बालक अपने स्वार्थ की सिद्धि गलत उपायों से करने लगते हैं और अपराध की ओर उन्मुख हो जाते हैं।’
(2) अति तीव्र बुद्धि – आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार केवल बुद्धि की दुर्बलता को अपराध का कारण स्वीकार नहीं किया जा सकता। टरमेन ने तीव्र बुद्धि वाले बालकों से सम्बन्धित अध्ययन के आधार पर कहा है कि ऊँचे प्रकार के अपराधी तथा गिरोहों के सरदार सामान्य से काफी ऊँचे बुद्धि स्तर वाले होते हैं। अति तीव्र बुद्धि वाले बालक अपराध के नये तरीके खोजने तथा पुलिस को धोखा देने में भी माहिर होते हैं और इसीलिए ये गिरोह के सरगना बन जाते हैं। इस भाँति तीव्र बुद्धि का बाल-अपराध से सीधा सम्बन्ध है।
(3) मानसिक योग्यताओं का निम्न स्तर – व्यक्ति में निहित मानसिक योग्यताएँ जीवन के विविध कार्यों में व्यक्ति की सहायता करती हैं तथा उसके समायोजन में सहायक होती हैं। किसी बालक में कार्य-विशेष की पूर्ति हेतु वांछित योग्यताओं में कमी उसे गलत मार्ग अपनाने तथा अपराध करने की प्रेरणा देती है।

(ख) संवेगात्मक कारण
विभिन्न संवेगात्मक कारणों में से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

(1) अति संवेगात्मकता – कुछ बालक भावना-प्रधान होते हैं। संवेगात्मक स्थिति में विवेक उनका साथ नहीं देता और वे उचित-अनुचित का निर्णय लिये बिना बड़े-से-बड़ा अपराध कर बैठते हैं। बर्ट ने अपने अध्ययन में 9% बाल-अपराधियों में तीव्र संवेगात्मकता प्राप्त की है। सर्वशक्तिमान संवेग दो हैं-क्रोध और कामुकता। क्रोध के आधिक्य में बालक का व्यवहार आक्रामक होता है तथा कामुकता की अधिकता में वे काम-सम्बन्धी अपराध कर बैठते हैं।
(2) स्वभावगत अस्थिरता – इस विशेषता के कारण व्यक्ति किसी एक सिद्धान्त या बात पर टिक नहीं पाता और उसके व्यवहार का मानदण्ड परिवर्तित होता रहता है। बर्ट द्वारा 34% अपराधी बालकों में स्वभावगत अस्थिरता बतायी गयी। यह अस्थिरता बालक में उसके शैशव की प्रतिकूल परिस्थितियों; जैसे-असुरक्षा भावना, स्नेह व सहानुभूति का अभाव, कठोर अनुशासन व दण्ड विधान, प्रारम्भ से अपर्याप्तता/हीनता की भावना, नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ तथा असन्तोष व विद्रोहात्मक प्रवृत्ति आदि; के कारण उत्पन्न होती है जिसके परिणामतः वह नैतिक मूल्यों का परित्याग और असामाजिक कार्य करने लगता है।
(3) समायोजन दोष – बालक अपने अहम्, नैतिक मन तथा इदम् के मध्य साम्य स्थापित करने की कोशिश करता है। यदि बालक का अहम् (Ego) तथा नैतिक मन (Super Ego) कमजोर पड़ जाते हैं तो साम्य स्थापित नहीं हो पाता और समायोजन सम्बन्धी दोष उत्पन्न होने लगते हैं। समायोजन के दोष बालक को गलत राह के लिए अभिप्रेरित करते हैं।
(4) भावना ग्रन्थियाँ एवं मनोविक्षेप – पारिवारिक एवं सामाजिक निषेधों के कारण बालकों और किशोरों को अपनी इच्छाओं, प्रवृत्तियों तथा भावनाओं आदि का दमन करना पड़ता है। दबी हुई इच्छाएँ और प्रवृत्तियाँ भावना ग्रन्थियों (Complexes) को जन्म देती हैं जो उनके अचेतन मन में जाकर बस जाती हैं। शनैः-शनैः मानसिक संघर्ष और भावना ग्रन्थियाँ उनमें मनोविक्षेप (Psychoneuroses) को जन्म देती हैं। बालकों में समाज के प्रति विद्रोह के भाव जगने लगते हैं। ये उन्हें बदले की भावना से भर देते हैं। इसका परिणाम बाल-अपराधों के रूप में सामने आता है। बर्ट ने अपने अध्ययन में 75% अपराधी बालकों को भावना ग्रन्थियों तथा मानसिक संघर्षों से ग्रसित पाया।
(5) किशोरावस्था के परिवर्तन – किशोरावस्था में व्यक्ति में उत्पन्न होने वाले शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन परिस्थितियों से उनका सन्तुलन बिगाड़ देते हैं। स्टैनली हाल ने उचित ही कहा है, ‘किशोरावस्था बल एवं तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।’ उन्होंने इसे ‘अपराध की अवस्था (Criminal Age) का नाम दिया है, क्योंकि मानसिक-सांवेगिक तनाव एवं असन्तुलन की स्थिति में वे बिना सोचे-समझे समाज-विरोधी कार्य कर बैठते हैं। इस प्रकार किशोरावस्था के क्रान्तिकारी परिवर्तन बाल-अपराधों को जन्म दे सकते हैं।
(6) मनोवैज्ञानिकं आवश्यकताओं की पूर्ति न होना – प्रत्येक बालक और किशोर की कुछ जन्मजात एवं अर्जित मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ हैं; जैसे-आत्मप्रदर्शन, प्रेम, सुरक्षा, काम आदि। इनकी सामान्य ढंग से पूर्ति या तृप्ति न होने पर बालक में कुण्ठा का जन्म होता है जिसके फलस्वरूप उसमें हीनता, क्रोध तथा आक्रमण की भावना जन्म लेती है। इसके अतिरिक्त दूसरी अनेक असामाजिक प्रवृत्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं और बालकअपराध की ओर प्रवृत्त होता है।

(ग) व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ
प्रमुख मनोवैज्ञानिकों एवं अनुसन्धानकर्ताओं ने बाल-अपराधियों से सम्बन्धित अपने अध्ययनों के अन्तर्गत उनके व्यक्तित्व में कुछ विशिष्टताओं को पाया है। बाल-अपराधियों में सामान्य बालकों से भिन्नता रखते हुए ये गुण मुख्य रूप में मिलते हैं –

⦁    अत्यधिक हिंसात्मक प्रवृत्ति
⦁    अनियन्त्रण एवं असंयम
⦁    स्वच्छन्द स्वभाव
⦁    अनुशासन का अभाव
⦁    अस्थिरता, निर्णय न ले सकना तथा मानसिक अशान्ति
⦁    विद्रोही नकारात्मक व्यवहार
⦁    शंकालु स्वभाव
⦁    दूसरों को पीड़ित करके सुख पाना
⦁    सांवेगिक अपरिपक्वता
⦁    बहिर्मुखी स्वभाव तथा
⦁    समाज से कुसमायोजन।
अपराध करने वाले बालक के व्यक्तित्व की ये विशेषताएँ उसे सामाजिक परिस्थितियों व स्वीकृत मानदण्डों से समायोजित नहीं होने देतीं और वह कुसमायोजन का शिकार हो जाता है। कुसमायोजित बालक में धीरे-धीरे अन्य मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं जो उसे अपराध की ओर उन्मुख करते हैं।

(घ) विशेष प्रकार के मानसिक रोग
टप्पन, ग्लूक एवं ग्लूक सहित अनेक मनोवैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि कुछ विशेष प्रकार के . मानसिक रोगों से ग्रस्त रोगी भी अपराध किया करते हैं। इन मानसिक रोगों का वर्णन अग्र प्रकार है –

(1) मनोविकृति – बालपन में स्नेह, सहानुभूति, प्रेम तथा नियन्त्रण के अभाव, अन्यों के दुर्व्यवहार से मिली पीड़ा व यन्त्रणा तथा वंचना के कारण उत्पन्न मनोविकृति का मानसिक रोग बालक और किशोर को शुरू से ही समाज-विरोधी, निर्दयी, ईष्र्यालु, झगड़ालू, शंकालु, द्वेष तथा प्रतिशोध की भावना से युक्त बना देता है। ऐसे बालक सामान्य से उच्च बौद्धिक स्तर वाले तथा आत्मकेन्द्रित प्रकृति के होते हैं तथा बिना किसी प्रायश्चित्त के हिंसा या हत्या कर सकते हैं।
(2) मेनिया – ‘मेनिया’ एक प्रकार का पागलपन है जिसका उपचार सम्भव होता है। यह अनेक प्रकार का है; जैसे—आग लगाने, चोरी करने तथा तोड़-फोड़ का मेनिया। मेनिया से ग्रस्त बालक अपराध करने लगते हैं और धीरे-धीरे अपराध के आदी हो जाते हैं।
(3) बाध्यता – इस मानसिक रोग से पीड़ित बालक ऐसे कार्य करने के लिए बाध्य होता है जो उसके अवचेतन में निर्मित ग्रन्थि से सम्बन्धित हैं, लेकिन बालक को इस बात का पता नहीं होता, वह तो बस बाध्य या विवश होकर उस हानिकारक कार्य को करता जाता है। इन कार्यों में आग लगाना, तोड़-फोड़ करना तथा सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाना आदि सम्मिलित हैं। स्पष्टत: बाध्यता का मनोरोग भी बाल-अपराध का एक मुख्य कारण है।

मनोवैज्ञानिक कारणों से मुक्ति हेतु घरं एवं विद्यालय द्वारा किये जाने वाले उपाय
बालक अपने आरम्भिक जीवन को दो ही स्थानों पर अधिकांशतः व्यतीत करता है—इनमें पहला स्थान घर का है और दूसरा विद्यालय का। अपराध की दुनिया में कदम रखने वाले बालक विभिन्न मनोवैज्ञानिक कारणों एवं मानसिक दशाओं से उत्प्रेरित हो सकते हैं। इन कारकों एवं दशाओं का सीधा सम्बन्ध घर-परिवार और विद्यालय के वातावरण से होता है; अतः घर एवं विद्यालय, बाल-अपराध से सम्बद्ध मनोवैज्ञानिक कारणों से मुक्ति हेतु अनेक उपाय कर अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

परिवार के प्रौढ़ एवं उत्तरदायी सदस्यों को चाहिए कि वे घर के बालक को एक खुली किताब समझें और उसकी योग्यताओं, क्षमताओं, आदतों, रुचियों, अभिरुचियों तथा उसके व्यक्तित्व के प्रत्येक पक्ष का आकलन करें। बालक के साथ भावात्मक एवं संवेगात्मक तादात्म्य स्थापित करें और उसकी भावनाओं, इच्छाओं वे आदतों को समझकर व्यवहार करें। बालक के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए प्रेम, सुरक्षा, अभिव्यक्ति, स्वतन्त्रता, स्वीकृति, मान्यता आदि मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ परमावश्यक हैं। इन आवश्यकताओं से वंचित रहकर बालक हीन-भावना से ग्रस्त हो जाता है और उसमें चिड़चिड़ापन, संकोच, लज्जा, भय, क्रूरता एवं क्रोध जैसी भावना पैदा हो जाती है। अन्ततोगत्वा ईष्र्या, द्वेष तथा आत्म-प्रदर्शन से अभिप्रेरित बालक में अपराधी वृत्तियाँ पनपने लगती हैं और वह अपराध करने लगता है। इसी प्रकार से घर-परिवार से अमान्य या तिरस्कृत बालक विद्रोही और आक्रामक बन जाता है। स्पष्टत: घर का दायित्व है कि वह बालक में मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के कारण कुण्ठाओं को जन्म न लेने दें।

इसी प्रकार से विद्यालय भी कुछ ऐसे उपाय अपना सकता है जिनसे किशोर बालकों को अपराध के लिए प्रेरित करने वाले मनोवैज्ञानिक कारणों से मुक्ति मिल सके। विद्यालय के बालकों की बुद्धि-लब्धि का आकलन कर उनका बौद्धिक स्तर ज्ञात किया जाना आवश्यक है। अनेकानेक मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि बालक में बुद्धि की कमी अपराध का मूल कारण है। कक्षा में दुर्बल बुद्धि, सामान्य बुद्धि तथा तीव्र बुद्धि के बालकों का वर्गीकरण कर दुर्बल बुद्धि के बालकों के साथ विशिष्ट उपचारात्मक तरीके अपनाये जाने चाहिए। इसी प्रकार तीव्र बुद्धि के बालकों के साथ भी तदनुसार व्यवहार के प्रतिमान निर्धारित किये जाएँ। कक्षा में शिक्षक का अपने छात्रों के प्रति व्यवहार आदर्श होना चाहिए। शिक्षक को न तो आवश्यकता से अधिक ढीला नियन्त्रण करना चाहिए और न ही अत्यधिक कठोर, क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में बालक कक्षा से बचते हैं और विद्यालय से पलायन कर जाते हैं। यह कक्षा-पलायन ही उनकी आपराधिक वृत्तियों के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर देता है। छात्रों की अध्ययन सम्बन्धी तथा अन्य परिस्थितियों को समझा जाना चाहिए तथा उनके प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित किया जाना चाहिए। शिक्षक का व्यवहार अपने छात्र के प्रति ऐसा हो कि वह अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ भी शिक्षक से अभिव्यक्त कर सके। कुल मिलाकर शिक्षक की भूमिका एक मित्र और निर्देशक की होनी चाहिए।

इस भाँति घर और विद्यालय उपर्युक्त सुझावों के आधार पर ऐसा वातावरण तैयार कर सकते हैं। ताकि बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों से छुटकारा मिल सके।



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