InterviewSolution
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जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख करते हुए उसकी प्रमुख उपलब्धियों का विवेचन कीजिए। |
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Answer» जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित थीं 1. खुसरो का विद्रोह-जहाँगीर के बादशाह बनने के उपरान्त सबसे पहली महत्वपूर्ण घटना उसके पुत्र खुसरो का विद्रोह थी। उदारतापर्वक आरम्भ किए हए साम्राज्य पर यह प्रथम आघात था। खुसरो दरबार में बड़ा लोकप्रिय था शक्तिशाली, मधुर-भाषी तथा चरित्रवान राजकुमार था। अकबर का खुसरो पर विशेष प्रेम था तथा विलासी और मद्यप जहाँगीर से असन्तुष्ट उसके अनेक दरबारी भी खुसरो को ही उसका उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। खुसरो की महत्वाकांक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी और वह सिंहासन प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। जहाँगीर भी खुसरो से असन्तुष्ट था तथा उसे विश्वासपात्र नहीं समझता था। जहाँगीर ने खुसरो को आगरा के दुर्ग में रहने दिया किन्तु उस पर कड़ा पहरा लगा दिया। खुसरो इस अपमान को सहन नहीं कर सका और 6 अप्रैल, 1606 ई० को अकबर के मकबरे के दर्शन करने के बहाने वह दुर्ग से बाहर निकल पड़ा तथा मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को लूटता हुआ, पानीपत जा पहुँचा। उधर शाही सेनाएँ शेख फरीद के नेतृत्व में खुसरो को पराजित करने के लिए चल पड़ी। पानीपत में लाहौर का दीवान अब्दुर्रहीम; खुसरो से आकर मिल गया। खुसरो ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया और लाहौर की ओर बढ़ा। मार्ग में वह अमृतसर से कुछ किलोमीटर दूर तरनतारन में सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव की सेवा में उपस्थित हुआ। गुरु अर्जुनदेव ने उसे दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी और अपना आशीर्वाद भी दिया। खुसरो लाहौर जा पहुँचा किन्तु वहाँ के सूबेदार दिलावर खाँ ने किले के फाटक बन्द कर लिए। इस पर खुसरो ने लाहौर दुर्ग का घेरा डाल दिया, किन्तु इसी समय उसे सूचना मिली कि बादशाह स्वयं लाहौर के निकट आ पहुँचा है। इस पर भयभीत होकर खुसरो उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की ओर भागा। भैरोवल नामक स्थान पर पिता-पुत्र की सेनाओं में संघर्ष हुआ, जिसमें खुसरो की बुरी तरह पराजय हुई। सेना ने उसे पकड़ लिया तथा बन्दी बनाकर जहाँगीर के सम्मुख उपस्थित किया। जहाँगीर ने उसे कारावास में डलवा दिया तथा उसके सभी पक्षपातियों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी। सिक्खों के गुरु अर्जुनदेव को भी सम्राट ने दरबार में बुलवाया तथा उनसे खुसरो की सहायता करने का कारण पूछा। गुरु अर्जुनदेव ने उत्तर दिया- “सम्राट अकबर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए ही मैंने राजकुमार की सहायता की थी, इसलिए नहीं कि वह तेरा सामना कर रहा था। किन्तु जहाँगीर ने उनकी सारी जागीर छीनकर उन्हें जेल में डाल दिया, जहाँ अनेक यातनाएँ देने के उपरान्त उसने उन्हें मरवा डाला। गुरु के इस कार्य से जहाँगीर अत्यन्त कुपित हुआ। उसने गुरु को दो लाख रुपया जुर्माना देने तथा गुरुग्रन्थसाहिब में से कुछ गीतों को निकालने की आज्ञा दी, जिसे गुरु ने ठुकरा दिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया। सम्राट का यह कार्य विवेकशून्य था। सिक्ख विचार परम्परा के अनुसार जहाँगीर ने अपने हठधर्म के आवेश में आकर ही यह दुष्कृत्य किया। सम्भवत: यह आरोप निराधार है परन्तु यह बात सत्य है कि गुरु के वध से सिक्खों और मुगलों के बीच भेदभाव उत्पन्न हो गए, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब के समय में विद्रोह की आग भड़क उठी। 2. प्लेग का प्रकोप-1616 ई० में जहाँगीर के काल में भयंकर प्लेग का प्रकोप हुआ और उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैल गया। आगरा, लाहौर तथा कश्मीर में इसका विशेष प्रकोप था। जहाँगीर ने लिखा है कि यह बीमारी चूहों के द्वारा फैली थी। रोग का इलाज न हो सकने के कारण गाँव-के-गाँव तबाह हो गए। आठ वर्ष तक यह रोग चलता रहा तथा इससे भीषण जन-क्षति हुई। जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख उपलब्धियाँ- यद्यपि जहाँगीर में अकबर जैसी सैनिक प्रतिभा नहीं थी तथापि उसने कुछ सैनिक अभियान भी किए। उसके समय की सबसे प्रमुख घटना थी- मेवाड़ पर विजय एवं दक्षिण में सैनिक अभियान। जहाँगीर के समय में मुगलों को सैनिक क्षति भी उठानी पड़ी। कंधार उनके हाथों से निकल गया। जहाँगीर के प्रमुख विजय अभियान निम्नलिखित थे (i) मेवाड़ विजय-अकबर ने अपने समय में मेवाड़ को जीतने का निरन्तर प्रयत्न किया था, परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। महाराणा प्रताप के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी महाराणा अमर सिंह ने भी अपने पिता की नीति को ही जारी रखा। अकबर के पश्चात् सलीम जब जहाँगीर के नाम से सम्राट बना तो वह मेवाड़ को जीतने के लिए लालायित हो उठा। 1605 ई० में ही जहाँगीर ने अपने द्वितीय पुत्र परवेज और आसफ खॉ जफरबेग के नेतृत्व में 20,000 अश्वारोहियों की एक सेना मेवाड़ विजय हेतु भेजी। देबारी की घाटी में युद्ध हुआ जो अनिर्णायक रहा। इसी बची खुसरो के विद्रोह के कारण परवेज को सेना सहित वापस बुला लिया। दो वर्ष पश्चात् 1608 ई० में महावत खाँ के नेतृत्व में एक सेना फिर मेवाड़ के लिए भेजी गई। लेकिन वह भी विशेष सफलता हासिल न कर सकी। जहाँगीर ने 1609 ई० में मेवाड़ का नेतृत्व अब्दुल्ला खाँ के सुपुर्द किया। अब्दुल्ला खाँ अभियान भी मुगलों को सफलता नहीं दिला सका। 1611 ई० में मऊ का राजा बसु भी मेवाड़ में विफल रहा। अत: 7 सितम्बर, 1613 में जहाँगीर स्वयं शत्रु पर दबाव डालने के उद्देश्य से अजमेर पहुँचा। मेवाड़ के युद्ध के संचालन का भार अजीज कोका और शाहजादा खुर्रम को सौंपा गया। इन दोनों के आपसी सम्बन्ध कटु थे। अतः अजीज कोका को वापस बुला लिया गया। अब केवल खुर्रम पर आक्रमण का पूर्ण उत्तरदायित्व था। खुर्रम ने मेवाड़ में बर्बादी मचा दी। राणा का रसद पहुँचाना भी कठिन हो गया। बाध्य होकर अमर सिंह ने संधि करने का निर्णय लिया। राणा ने अपने मामा शुभकर्ण एवं विश्वासपात्र हरदास झाला को सन्धि के लिए भेजा। जहाँगीर ने भी राजपूतों से संधि करना स्वीकार किया और 1615 ई० में निम्नलिखित शर्तों पर मुगल व मेवाड़ में संधि हो गई ⦁ राणा ने सम्राट जहाँगीर की अधीनता स्वीकार की। इस प्रकार मेवाड़ और मुगलों का दीर्घकालीन संघर्ष समाप्त हुआ। कुछ लेखकों ने राणा अमरसिंह को अपने वंशानुगत शत्रु के समक्ष अपनी स्वाधीनता खो देने का दोषी ठहराया है। परन्तु यह आरोप सर्वथा निराधार है। मेवाड़ जैसी एक छोटी-सी रियासत के लिए साधन-सम्पन्न मुगल साम्राज्य से टक्कर लेना कहाँ तक सम्भव होता, उसे एक-न-एक दिन तो झुकना ही था। जैसा कि डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव ने लिखा है कि “मेवाड़ परिस्थिति में शांति अपेक्षित थी और 1615 ई० की संधि में उसे वह शांति, सम्मान और गौरव के साथ मिली….. इस प्रकार संकटग्रस्त देश के लिए इतनी अपेक्षित शांति संग्रह के इस सुवर्ण अवसर को राणा अमरसिंह यदि उपयोग में न लाते तो यह अविवेकपूर्ण कार्य होता।’ (ii) बंगाल के विद्रोह का दमन-अकबर ने यद्यपि बंगाल विजय कर लिया था किन्तु अफगान शक्ति का वह पूर्णतया दमन नहीं कर सका था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त 1612 ई० में अपने नेता उस्मान खाँ के नेतृत्व में उन्होंने पुन: विद्रोह किया। बंगाल के सूबेदार इस्लाम खाँ ने बड़ी वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना किया, फलस्वरूप युद्ध-भूमि में लड़ते-लड़ते उस्मान खाँ मारा गया। जहाँगीर ने पराजित अफगानों के साथ उदारता का व्यवहार किया तथा उन्हें अपनी सेना के उच्च पदों पर आसीन किया। (iii) काँगड़ा विजय-उत्तर-पूर्व पंजाब में काँगड़ा की सुन्दर घाटी है जिस पर एक सुदृढ़ किला बना हुआ था। अकबर के समय में पंजाब के सूबेदार हसन कुली खाँ ने इसे जीतने का प्रयास किया था परन्तु वह असफल हुआ था। 1620 ई० में शाहजादा खुर्रम के नेतृत्व में राजा विक्रमाजीत ने इस किले का घेरा डाला और लगभग चार माह के घेरे के पश्चात् इस पर अधिकार कर लिया। (iv) किश्तवार विजय (1622 ई०)- कश्मीर में किश्तवार एक छोटी-सी रियासत थी। यद्यपि कश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग था, किन्तु किश्तवार में स्वतन्त्र हिन्दू राजा राज्य कर रहा था। जहाँगीर ने कश्मीर के सूबेदार दिलावर खाँ को किश्तवार विजय करने का आदेश दिया। यद्यपि हिन्दू वीरतापूर्वक लड़े किन्तु अन्त में उन्हें पराजित होना पड़ा और 1622 ई० में किश्तवार मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। (v) कंधार विजय-भारत के इतिहास में उत्तर-पश्चिमी सीमा का विशेष महत्त्व रहा है, क्योंकि प्राचीन काल से ही विदेशियों के आक्रमण सदैव इसी ओर से होते रहे। साथ ही कंधार प्राचीनकाल से व्यवसाय तथा व्यापार के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। मुगल सम्राट कंधार के प्रति विशेष रूप से सजग थे। बाबर ने सर्वप्रथम 1522 ई० में कंधार पर विजय प्राप्त की थी। उसकी मृत्यु तक कंधार मुगल साम्राज्य में था। हुमायूं के समय में कंधार पर उसके भाई कामरान का अधिकार रहा, जिसके दुष्परिणाम हुमायूँ को जीवनभर भुगतने पड़े। ईरान के शाह ने हुमायूं की सहायता करने का वचन इस शर्त पर दिया था कि वह कंधार ईरान के हवाले कर देगा, किन्तु कंधार विजय करके हुमायूँ ने उसे ईरान के शाह को लौटाने में टालमटोल की और उसे अपने अधीन ही रखा। उसकी मृत्यु के पश्चात् 1558 ई० में कंधार पर ईरान ने अधिकार कर लिया। अकबर से भयभीत होकर 1564 ई० में कंधार अकबर को सौंप दिया गया था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त ईरान के सम्राट शाह अब्बास ने 1606 ई० में कुछ ईरानियों को कंधार पर आक्रमण करने के लिए भेजा किन्तु मुगल सेनापति शाहबेग खाँ ने उन्हें भगा दिया। टर्की से युद्ध में फंसे रहने के कारण इस समय शाह अब्बास पूरी शक्ति के साथ मुगलों से युद्ध करने में असमर्थ था। 1622 ई० में सुअवसर देखकर शाह ने कंधार का घेरा डाल दिया। कंधार का मुगल सेनापति 45 दिन घेरे में रहने के बाद परास्त हुआ। जहाँगीर ने शहजादा परवेज को कंधार पर आक्रमण करने का आदेश दिया, किन्तु आसफ खाँ के हस्तक्षेप से यह स्थगित कर दिया गया। नूरजहाँ खुर्रम को राजधानी से दूर रखना चाहती थी इसलिए उसने जहाँगीर द्वारा खुर्रम को कंधार जाने की आज्ञा दिलवा दी। परन्तु खुर्रम इस समय राजधानी से दूर नहीं रहना चाहता था अतः उसने सम्राट की आज्ञा का पालन करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। दरबार के पड्यन्त्रों का लाभ ईरान के शाह अब्बास ने उठाया तथा कंधार पर अधिकार कर लिया। इससे मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा पर गहरा आघात पहुँचा। जहाँगीर कंधार को पुन: प्राप्त नहीं कर सका। (vi) अहमदनगर विजय-जहाँगीर के समय में दक्षिण भारत की राजनीति पर मलिक अम्बर छाया हुआ था। मलिक अम्बर बुहत फुर्तीला, संगठनशील और सैनिक योग्यता प्राप्त सरदार था। वह अहमदनगर के उन समस्त प्रदेशों पर पुनः अधिकार करने का प्रयास कर रहा था, जिन्हें अकबर के समय में मुगलों ने अधिगृहित कर लिया था। अत: 1608 ई० में जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी, परन्तु अब्दुर्रहीम खानखाना मलिक अम्बर के विरुद्ध कोई सफलता प्राप्त न कर सका। इसके पश्चात् खान-ए-जहाँ लोदी तथा अब्दुल्ला खाँ को मलिक अम्बर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा, लेकिन इन दोनों को भी मलिक अम्बर ने पराजित कर दिया। |
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