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शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणामों की विवेचना कीजिए।

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शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति की सभी विद्वानों ने कटु आलोचना की है। कुछ के विचार में यह शाहजहाँ की महान भूल थी तथा कुछ इसे उसकी महत्त्वाकांक्षा का स्वप्नमात्र समझते हैं। यह नीति निरर्थक तथा असफल रही तथा मुगल साम्राज्य पर इसके घातक प्रभाव पड़े। शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणाम निम्नलिखित हैं

1. अपार धन और जन की क्षति – शाहजहाँ की मध्य एशियाई विजय-योजना में अपार धन की क्षति हुई। केवल 2 वर्ष में 12 करोड़ रुपया व्यय हुआ, जिसका कारण राजकोष पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त 500 सैनिक युद्धभूमि में खेत रहे तथा इसके दस गुने सैनिक बर्फ से ढके हुए कठिन मार्गों में खप गए। बल्ख के दुर्ग में एकत्रित पाँच लाख रुपये का अनाज तथा रसद का अन्य सामान शत्रुओं के हाथ चला गया। 50,000 रुपये नकद नजर मुहम्मद को तथा साढ़े बाईस हजार रुपये उसके राजदूत को भेंट में प्रदान किए गए। इसके बदले में एक इंच भूमि भी मुगलों को प्राप्त न हो सकी और न बल्ख की गद्दी पर शत्रु के स्थान पर कोई मित्र ही बिठाया जा सका।

2. मुगल प्रतिष्ठा को आघात- मध्य – एशियाई नीति की असफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा। मुगलों का विजेता के रूप में डींग मारना बन्द हो गया और ईरानी वीरता, साहस तथा सैनिक शक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ गई। परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी भागों में वर्षों तक ईरानियों का भय बना रहा तथा 18वीं शताब्दी में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के पतन को और भी अधिक निकट ला दिया।

3. मुगल सेना का विनाश तथा पतन – इन युद्धों में मुगलों की सर्वोत्तम सेनाओं का विनाश हो गया। सैनिक दृष्टिकोण से इस नीति द्वारा मुगलों को अपार क्षति पहुँची। उनकी सैनिक दुर्बलता का लाभ उठाकर भारत में नई-नई शक्तियों का उत्थान तथा उपद्रव आरम्भ हुए, जिनके दमन में औरंगजेब को आजीवन संलग्न रहना पड़ा। शाहजहाँ को उत्तर-पश्चिम में व्यस्त देखकर दक्षिण में मराठों ने अपनी शक्ति का विकास आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे उनकी शक्ति बढ़ गई कि वह मुगल साम्राज्य का पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण बनी।

4. मुगलों तथा मध्य – एशिया के सम्राटों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अन्त- शाहजहाँ की मध्य एशिया सम्बन्धी नीति से उजबेग मुगलों से नाराज हो गए तथा सदैव के लिए उनके शत्रु बन गए। मुगलों ने आक्सस नदी के तटीय प्रदेशों को अपने अधीन बनाना चाहा किन्तु उजबेगों में उत्पन्न राष्ट्रीय भावना के कारण मुगल अपने प्रयत्नों में सर्वथा असफल रहे। फलस्वरूप शाहजहाँ के जीवनकाल के बचे हुए दिनों में भारत और फारस के सम्बन्ध सदैव कटु बने रहे और मुगलों के आत्मबल को अपार क्षति पहुंची।



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