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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।इस सद्भाव के ह्रास पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह हीं नहीं जाते हैं और आपस में कोरे ग्राहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों। एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दीखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों की आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता, बल्कि शोषण होने लगता है। तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए बिडम्बना हैं और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है, वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है। वह मायावी शास्त्र है। वह अर्थशास्त्र अनीति-शास्त्र है।

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कठिन शब्दार्थ-हास = कमी। सुहृद = मित्र। सद्भाव = अच्छी भावना। कोरे = केवल, मात्र। ग्राहक = खरीदने वाला। बेचक = बेचने वाला। घात = चोट पहुँचाना। शोषण = धन छीनना, रुपये ऐंठना। शिकार होना = ठगी का लक्ष्य बनना। पोषण करना = पालन, संरक्षण करना। शास्त्र = विद्या विज्ञान। सरासर = पूरी तरह। औंधा = उल्टा, उद्देश्य के विपरीत काम करने वाला। मायावी = कपटी। अर्थशास्त्र = धन की विद्या। अनीतिशास्त्र = नीति अर्थात् उचित नियमों के विपरीत ज्ञान सिखाने वाली विद्या॥

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। जैनेन्द्र का मानना है कि जब विक्रेता अनावश्यक चीजें ग्राहकों को बेचकर अनुचित लाभ कमाते हैं तथा ग्राहक अपनी क्रय शक्ति दिखाकर फिजूल की चीजें खरीदते हैं तो बाजार का उद्देश्य प्रभावित होता है और वह आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली संस्था के स्थान पर शोषण का माध्यम बन जाता है।

व्याख्या-लेखक कहता है कि विक्रेता तथा क्रेता के अनुचित आचरण के कारण बाजार में सद्भाव नष्ट हो जाता है। विक्रेता ग्राहक से अनुचित मुनाफा कमाना चाहता है और ग्राहक भी विक्रेता पर विश्वास नहीं करता। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति कपट की भावना रहती है। दोनों एक-दूसरे को ठगना चाहते हैं। ऐसी दशा में उनमें एक ही रिश्ता बन जाता है। वह रिश्ता है केवल ग्राहक और विक्रेता का। उनका आपसी व्यवहार इसी पर केन्द्रित हो जाता है। दोनों एक-दूसरे को ठगने का प्रयत्न करते हैं। ग्राहक को हानि पहुँचाकर विक्रेता तथा विक्रेता को धोखा देकर ग्राहक लाभ उठाने की चेष्टा करते हैं।

इस व्यवहार को बाजार का सत्य ही नहीं इतिहास का सत्य भी माना जाता है। इस प्रकार का बाजार आवश्यकताओं की माँग पूर्ति का स्थान नहीं रह जाता। वह शोषण का स्थान बन जाता है। वह छलपूर्ण व्यवहार करने वाला ठग बन जाता है। ऐसे बाजार मनुष्यता के दुर्भाग्य को जन्म देते हैं। अर्थशास्त्र लाभ हानि की गणना करके माँग पूर्ति का सिद्धान्त सुझाकर बाजार की शोषक प्रणाली को मजबूत बनाता है। लेखक की दृष्टि में वह अर्थशास्त्र है ही नहीं। वह उल्टी सीख देने वाला और छल-कपट सिखाने वाला शास्त्र है। उसको अर्थशास्त्र नहीं अनर्थ शास्त्र कहना ठीक है। वह नीति की नहीं अनीति की शिक्षा देने वाला शास्त्र है।

विशेष-
1. बाजार लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए गठित हुआ है। धनोपार्जन बाजार का उद्देश्य नहीं है।
2. बाजार में मुनाफा कमाने की नीति सिखाने वाला शास्त्र अर्थशास्त्र कहलाता है। किन्तु बाजार के उद्देश्य को क्षति पहुँचाकर वह अनर्थशास्त्र बन जाता है।
3. भाषा तत्सम शब्द प्रधान है तथा उसमें प्रवाह है।
4. शैली विचारात्मक है।



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