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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।इससे मन को बन्द कर डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है। यह तो हठवाला योग है। शायद हठ-ही-हठ है, योग नहीं है। इससे मन कृश भले हो जाय और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता है। इसलिए उसका रोम-रोम मूंदकर बन्द तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूर्ण कब है? हम में पूर्णता होती तो परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः उपाय कोई वही हो सकता है। जो बलात् मन को रोकने को न कहे, जो मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को न हो, क्योंकि वह अखिल का अंग है, खुद कुल नहीं है।

Answer»

कठिन शब्दार्थ-अकारथ = व्यर्थ। कृश = दुर्बल। संकीर्ण = संकुचित। क्षुद्र = तुच्छ। अभिन्न = समान। बोध = ज्ञान। अप्रयोजनीय = निरुद्देश्य। अखिल = समस्त, पूर्ण। कुल = सम्पूर्ण (परमात्मा)।

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक का कहना है कि मन को बलपूर्वक बन्द नहीं करना है, उसे रोकना नहीं है। इससे लाभ के स्थान पर हानि ही होगी। आँखें बन्द होने पर भी हम सपने देखते हैं। ये सपने हमारी सुख-शान्ति में बाधा ही डालते हैं।

व्याख्या-लेखक का मानना है कि मन को बलपूर्वक रोकने का प्रयत्न उचित नहीं माना जा सकता। ऐसा प्रयत्न बेकार है। यह एक प्रकार का हठयोग है। इसमें हठ ही अधिक है। योग तो सम्भवत: है ही नहीं। इस प्रकार के प्रयत्न मन को दुर्बल करते हैं। उनसे मन को मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। इस प्रकार का प्रयास मन की व्यापकता और विराटता छीनकर उसको संकुचित और छोटा बना देता है। लेखक के अनुसार मन को पूरी तरह निरुद्ध नहीं करना है। वैसे ही मन पूर्ण नहीं है। मनुष्य यदि पूर्ण होता तो वह परमात्मा के समान ही महाशून्य होता। मनुष्य अपूर्ण है, अपूर्णता ही मनुष्य की पहचान है।

सच्चा ज्ञान वह है जो मनुष्य को उसके अपूर्ण होने के बारे में बताए। मनुष्य को उसकी अपूर्णता का सदा ध्यान दिलाता रहे। मनुष्य की इस अपूर्णता को स्वीकार करने पर ही कोई सच्चा कार्य हो सकता है। इसके लिए कोई भी उपाय अपनाया जा सकता है किन्तु वह उपाय मन को जबरदस्ती निरुद्ध करने की प्रेरणा देने वाला नहीं होना चाहिए। मनुष्य को मन किसी विशेष उद्देश्य को लेकर ही दिया गया है, मन का होना निरुद्देश्य नहीं है। अत: मन की बात भी सुननी चाहिए। यद्यपि मन को अनियन्त्रित होने की छूट नहीं होनी चाहिए। मन सम्पूर्णता बोधक ईश्वर का ही एक अंग है किन्तु वह अपने आप में सम्पूर्ण नहीं है। मन को न तो बाँधना है और न अनियन्त्रित छोड़ना है।

विशेष-
1. लेखक की मन के बारे में गम्भीर आध्यात्मिक दृष्टि का परिचय मिलता है।
2. मन का होना निष्प्रयोज्य नहीं है। उसे रोकना या मनमानी करने की छूट देना-दोनों ही बातें मनुष्य के हित में नहीं हैं।
3. भाषा संस्कृत के तत्सम शब्दों से युक्त तथा प्रवाहपूर्ण है।
4. शैली गम्भीर विचारविमर्शात्मक है।



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