InterviewSolution
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                                    नूरजहाँ के मुगल राजनीति पर प्रभाव की विवेचना कीजिए। | 
                            
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Answer»  नूरजहाँका मुगल राजनीति पर प्रभाव 1. राजनीति में नूरजहाँ का प्रवेश – मई 1611 ई० में जहाँगीर से नूरजहाँ ने विवाह कर लिया। विवाह के बाद जहाँगीर, जो आरम्भ से ही विलासी प्रवृत्ति का था, और भी विलासिता में डूब गया तथा राज्य की सम्पूर्ण बागडोर उसने इस महत्वाकांक्षी महिला के हाथ में छोड़ दी। राज्य जहाँगीर के नाम पर चलता था किन्तु वास्तविक शासक नूरजहाँ थी। नूरजहाँ के शासनकाल को, डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम काल-1611 से 1622 ई० तक तथा द्वितीय काल-1622 से 1627 ई० तक। (क) प्रथम काल (1611 से 1622 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व का प्रथम काल मुगल साम्राज्य के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ। इस समय नूरजहाँ के गुट में दरबार के प्रभावशाली व्यक्ति सम्मिलित थे। स्त्री स्वभाव के अनुसार नूरजहाँ पक्षपात एवं गुटबन्दी की नीति की अनुयायी थी। इस काल में उसके गुट में उसका पिता ऐतमादुद्दौला, उसका भाई आसफ खाँ तथा शहजादा खुर्रम (आसफ खाँ का दामाद) सम्मिलित थे। यह गुट दरबार में सबसे प्रभावशाली था तथा 1611 से 1622 ई० तक राज्य की सम्पूर्ण बागडोर इस गुट के हाथ में रही थी। (ख) द्वितीय काल (1622 से 1627 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व के प्रथम काल के समान, उसका द्वितीय काल गौरवपूर्ण व लाभकारी सिद्ध न हो सका। इसके विपरीत, यह काल षड्यन्त्रों, विद्रोहों तथा उपद्रवों का काल बन गया। इसका प्रमुख कारण नूरजहाँ की महत्वाकांक्षा थी। खुर्रम के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर नूरजहाँ उससे ईर्ष्या करने लगी थी तथा खुर्रम के विरुद्ध जहाँगीर के कान भरने लगी, परिणामस्वरूप खुर्रम ने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। नूरजहाँ को स्वामिभक्त सेवकों के प्रति भी संदेह रहता था तथा वह उनके उत्थान को भी सहन नहीं कर सकती थी। उसकी इस प्रवृत्ति के कारण ही महावत खाँ जैसे योग्य एवं स्वामिभक्त सेनापति को भी विद्रोह करने के लिए विवश होना पड़ा। इन दोनों विद्रोहों का परिणाम मुगल साम्राज्य के लिए बड़ा भयंकर तथा हानिकारक सिद्ध हुआ। अतः मुगल साम्राज्य षड्यन्त्रों, कुचक्रों तथा विद्रोहों का अड्डा बन गया। कंधार का मुगल हाथों से निकल जाना नूरजहाँ का सबसे हानिकारक परिणाम था। 2. राजनीतिक प्रभाव – राजनीतिक तथा शासन सम्बन्धी दृष्टिकोण से नूरजहाँ का मुगल साम्राज्य पर घातक प्रभाव पड़ा। 1611 से 1622 ई० तक वह अपने गुट का नेतृत्व करती रही। उसने अपने पक्षपातियों को उच्च-से-उच्च पद प्रदान किए तथा विरोधियों का विनाश किया। उसने योग्यता से अधिक रक्त-सम्बन्ध का ध्यान रखा तथा अपने पिता के परिवार को एक संगठित दल बना दिया। जब तक उसका पिता जीवित रहा, नूरजहाँ को सदैव उचित परामर्श देता रहता था। वह उसकी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ने नहीं देता था, परन्तु 1622 ई० में अपने पिता एतमादुद्दौला की मृत्यु के उपरान्त नूरजहाँ पूर्णत: निरंकुश हो गई तथा उसने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना आरम्भ कर दिया। नूरजहाँ अभी तक खुर्रम का पक्षपात करती आई थी, परन्तु जब नुरजहाँ ने शेर अफगन से उत्पन्न अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार के साथ कर दिया तब खुर्रम के अनेक बार हिसार-फिरोजा की जागीर के लिए प्रार्थना-पत्र भेजने पर भी उसने यह जागीर शहरयार को दे दी। वास्तव में, नूरजहाँ शहरयार को जहाँगीर का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी, जिसका परिणाम खुर्रम के विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित हुआ। (क) खुर्रम का विद्रोह- जहाँगीर के चार पुत्र थे – खुसरो, परवेज, खुर्रम तथा शहरयार। खुसरो की मृत्यु के उपरान्त खुर्रम ही सबसे योग्य शहजादा था। शहरयार बिल्कुल अयोग्य तथा निकम्मा था तथा परवेज मद्यप एवं विलासी था। अतः सिंहासन के दो दावेदार थे- खुर्रम तथा शहरयार। खुर्रम ने अभी तक मुगल साम्राज्य की बड़ी सेवाएँ की थी। वह जहाँगीर का सबसे वीर तथा कुशल पुत्र था, किन्तु नूरजहाँ खुर्रम को अपने मार्ग का काँटा मानकर उसे मार्ग से हटाने के लिए उत्सुक थी। इसी समय ईरान के शाह ने कंधार पर अधिकार कर लिया। नुरजहाँ ने जहाँगीर से कहा कि कंधार विजय के अभियान का दायित्व खुर्रम को सौंप देना चाहिए परन्तु खुर्रम जानता था कि नूरजहाँ कंधार विजय के बहाने उसे राजधानी से दूर हटा देना चाहती है, अत: उसने कंधार जाने से इनकार कर दिया। नूरजहाँ ने इसे सुअवसर मानकर जहाँगीर के कान भरने आरम्भ कर दिए कि खुर्रम विद्रोही है तथा उसने सम्राट की आज्ञा की अवहेलना की है। खुर्रम ने नूरजहाँ की इस नीति से कुपित होकर विद्रोह कर दिया। खुर्रम का यह सन्देह ठीक ही था कि उसकी अनुपस्थिति में शहरयार को उच्च पद दे दिए जाएंगे और उसे युद्ध-क्षेत्र में मरवा डाला जाएगा। डॉ० बेनी प्रसाद ने स्वीकार किया है कि शहजादा खुर्रम की अनुपस्थिति में, नूरजहाँ अवश्य अपने पशुतुल्य दामाद शहरयार को उन्नति देकर राजकुमार (शाहजहाँ) की स्थिति को नीचा कर देती। इसी डर के कारण खुर्रम को फारस वालों के विरुद्ध युद्ध न करके अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करना पड़ा। इस प्रकार कंधार मुगल सम्राज्य से हमेशा के लिए निकल गया। इस हानि के लिए नूरजहाँ ही सबसे अधिक उत्तरदायी थी। (ख) महावत खाँ का विद्रोह – खुर्रम के विद्रोह का दमन करके नूरजहाँ ने महावत खाँ की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने का प्रयास किया। खुर्रम के विद्रोह करने के पश्चात् स्वामिभक्त महावत खाँ, परवेज का पक्षपाती बन गया था। नूरजहाँ ने महावत खाँ को काबुल का सूबेदार नियुक्त करके काबुल भिजवा दिया और उसके स्थान पर खाने जहाँ लोदी को परवेज का वकील नियुक्त कर दिया। यद्यपि परवेज इस आज्ञा का उल्लंघन करने को तेयार था लेकिन महावत खाँ तुरन्त काबुल की ओर रवाना हो गया। यह पूर्णत: सत्य है कि महावत खाँ को विद्रोही बनाने के लिए नूरजहाँ उत्तरदायी थी। इस प्रकार जिस व्यक्ति को साम्राज्य के शत्रुओं के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता था, वह स्वयं शत्रु बन गया। इस विद्रोह ने मुगल साम्राज्य की जड़े हिला दीं। 3. जहाँगीर की मृत्यु – 1620 ई० से जहाँगीर का स्वास्थ्य निरन्तर खराब होता जा रहा था। निरन्तर कश्मीर की यात्राएँ और वहाँ की जलवायु भी उसके स्वास्थ्य को ठीक नहीं कर सकी थी। मार्च, 1627 में वह स्वास्थ्य लाभ के लिए फिर कश्मीर गया, लेकिन उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। अत: वह पुनः लाहौर की तरफ गया, किन्तु रास्ते में ही उसकी तबीयत खराब हो गई और 7 नवम्बर, 1627 को 58 वर्ष की आयु में भीमवार नामक स्थान पर जहाँगीर की मृत्यु हो गई। लाहौर के निकट शाहदरे के सुन्दर बाग में उसे दफना दिया गया, जहाँ नूरजहाँ ने एक सुन्दर मकबरा बनवाया।  | 
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