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शाहजहाँ का शासनकाल मुगल शासन का स्वर्ण-युग था, पर उसमें पतन के चिह्नन भी थे।” इस कथन की विस्तार पूर्वक व्याख्या कीजिए।याशाहजहाँ के शासनकाल के पक्ष व विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।

Answer»

शाहजहाँ का राज्यकाल स्वर्ण-युग था अथवा नहीं, इस पर सब विद्वान एकमत नहीं हैं। बादशाह के समकालीन इतिहासकारों तथा विदेशी यात्रियों ने इस युग को स्वर्ण-युग कहकर सम्बोधित किया है। अब्दुल हमीद लाहौरी, खाफी खाँ, ट्रेवेनियर, वूल्जले हेग, हण्टर, लेनपूल तथा एलपिन्सटन आदि इतिहासकार इस युग को शान्ति, समृद्धि तथा साहित्य एवं कला का स्वर्ण-युग मानते हैं। दूसरी ओर पीटरमण्डी, बर्नियर और स्मिथ ने शाहजहाँ के युग का दूसरा पक्ष लिया है, जो अन्धकारपूर्ण है तथा उस पक्ष को ध्यान में रखकर शाहजहाँ के काल को स्वर्ण-युग नहीं कहा जा सकता। इन इतिहासकारों का कथन है कि यद्यपि शाहजहाँ का दरबार, उसकी कलाकृतियों तथा साहित्य की उन्नति की चकाचौंध में कोई भी व्यक्ति उस काल को स्वर्ण-युग मान सकता है। किन्तु यदि उस चकाचौंध से हटकर साधारण जनता की स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह युग स्वर्ण-युग के स्थान पर अन्धकार का युग कहलाने योग्य है।
इस प्रकार शाहजहाँ के काल के विषय में विद्वानों के दो विरोधी मत हैं

शाहजहाँ का युग स्वर्ण-युग था – अधिकांश विद्वानों ने शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग की संज्ञा दी है। इनका मत है कि अकबर द्वारा स्थापित सुदृढ़, शक्तिशाली तथा सुव्यवस्थित विशाल साम्राज्य में शान्तिकालीन समृद्धि तथा गौरव के फूल शाहजहाँ के काल में ही विकसित हुए। इस मत के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं

1. शान्ति और सुव्यवस्था का युग – शाहजहाँ के काल में अन्य सभी मुगल सम्राटों की अपेक्षा शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित रही। उसके आरम्भिक काल के दो-तीन विद्रोहों के अतिरिक्त उसका सम्पूर्ण राज्यकाल शान्तिपूर्ण था। राजपूत अभी तक मुगलों की अधीनता स्वीकार करते थे तथा मुगल सम्राटों के स्वामिभक्त थे। दक्षिण के शिया राज्यों ने मुगल सम्राट का संरक्षण स्वीकार कर लिया था। शाहजहाँ का साम्राज्य काफी विशाल था। सिन्ध से असम तक तथा अफगानिस्तान से गोआ तक उसका राज्य विस्तृत था। शाहजहां के काल में 30 वर्ष तक भीषण युद्धों से देश सुरक्षित रहा। शाहजहाँ अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था। चोर तथा डाकुओं से सड़कें सुरक्षित थीं। यात्रियों की सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखा जाता था। व्यापार उन्नत अवस्था में था तथा देश में चारों ओर सुख तथा शान्ति स्थापित थी। लेनपूल का मत है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और कृपा के लिए प्रसिद्ध था और इसी कारण वह अपनी प्रजा का बड़ा प्रिय था।”

2. सड़कों की व्यवस्था- मुगल राजधानी को सड़कों द्वारा प्रान्तों से जोड़ दिया गया था। एक सड़क पूर्व दिशा की ओर बंगाल को तथा पश्चिम की ओर पेशावर तक जाती थी, एक अन्य सड़क राजपूताना होकर अहमदाबाद तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। एक अन्य सड़क मालवा से बुरहानपुर तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। इन सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्षों के अतिरिक्त सरायें बनवाई गई थी, जिससे यात्रियों को आवागमन की सुविधा प्राप्त हो गई थी। सड़कों की सुरक्षा की ओर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया गया था, जिससे व्यापारी और यात्री निडर होकर अपना-अपना कार्य करते रहें। चोर-डाकुओं से इन सड़कों की सुरक्षा-व्यवस्था के लिए ‘फौजदार’ नियुक्त होते थे।

शाहजहाँ ने मार्गों को सुरक्षित करने का यथासम्भव प्रयत्न किया। इसके लिए उसने जगह-जगह सरायें बनवा दीं और यात्रियों की सुविधा के लिए उन सरायों में उचित व्यवस्था कराई गई। मनूची लिखता है- “सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में प्रत्येक मार्ग पर यात्रियों के लिए बहुत-सी-सरायें बनी हुई हैं। प्रत्येक सराय एक दुर्ग मालूम होती है क्योंकि प्रत्येक सराय के चारों ओर ऊंची-ऊँची दीवारें और बुर्ज हैं तथा बड़े-बड़े दरवाजे हैं। प्रत्येक सराय में हाकिम नियुक्त हैं, जो यात्रियों के सामान की सुरक्षा करवाते हैं और सामान सँभालने की चेतावनी देते हैं।”

3. समान न्याय का युग – शाहजहाँ न्यायप्रिय सम्राट था तथा न्याय के क्षेत्र में उसने अपने पूर्वजों की नीति का ही अनुसरण किया। वह अन्यायियों तथा अपराधियों को कठोर दण्ड देने में तथा निष्पक्ष न्याय करने में बिल्कुल नहीं हिचकता था। मनूची ने भी सम्राट की न्यायप्रियता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है। सर्वप्रधान न्यायाधीश स्वयं सम्राट होता था। सम्राट प्रारम्भिक मुकदमों तथा अपीलों दोनों को सुनता था। प्रान्तीय अदालतों के निर्णय की अपीलें भी सम्राट सुनता था। केन्द्र में न्याय हेतु सम्राट को सलाह देने के लिए ‘काजी-उल-कुजात’ और प्रान्तों में ‘काजी’ तथा ‘मीरअदल’ होते थे। शाहजहाँ राजद्रोहियों को बन्दी बनाकर ग्वालियर, रणथम्भौर और रोहतास इत्यादि दुर्गों में भेज देता था।

4. समृद्धि का युग – समृद्धि तथा गौरव के दृष्टिकोण से शाहजहाँ का काल, मुगलकाल के चरमोत्कर्ष का काल था। देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था के कारण समृद्धि स्थापित हो चुकी थी। सूबों से केन्द्र सरकार को अत्यधिक आय होती थी। भूमि उपजाऊ होने के कारण भूमि-कर 45 करोड़ रुपये वार्षिक राजकोष में एकत्रित होता था। भूमि-कर के अतिरिक्त अन्य कर भी थे तथा आय, व्यय से कहीं अधिक होने के कारण राजकोष धन से भरा रहता था। नकद रुपयों के अतिरिक्त, बहुमूल्य पत्थर, हीरे, जवाहरात, मोती असंख्य संख्या में कोष में एकत्रित थे। मुर्शिद कुली खाँ के भूमि-सुधारों ने शाहजहाँ की भूमि-कर की आय, अकबर की आय से डेढ़ गुनी कर दी थी।
शाहजहाँ ने किसानों और कृषि की ओर ध्यान दिया था। उसने कश्मीर में बहुत-से अनुचित करों को समाप्त कर दिया। सिंचाई की समुचित व्यवस्था के लिए उसने नहरों के निर्माण कार्य को प्रोत्साहन प्रदान किया। जागीर-प्रथा को, जो अकबर के समय में हटा दी गई थी, शाहजहाँ ने पुनः आरम्भ किया। साम्राज्य का 7/10 भाग जागीरदारों के सुपुर्द कर दिया गया था और सरकारी लगान एक-तिहाई से बढ़ाकर उपज का आधा कर दिया गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी आय तो बढ़ गई परन्तु किसानों को बहुत कष्ट हुआ।

खाफी खाँ लिखता है- “यद्यपि अकबर एक महान विजेता तथा नियम-निर्धारक था किन्तु राज्य की सीमाओं के सुप्रबन्ध तथा आर्थिक स्थिति और राज्य के विविध विभागों के सुशासन की दृष्टि से भारतवर्ष में शाहजहाँ के समकक्ष रखा जाने वाला अन्य कोई शासक नहीं हुआ।

5. व्यापार की उन्नति का युग – शाहजहाँ के काल में व्यापार की भारी उन्नति हुई। भारत तथा एशिया के विभिन्न भागों में व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे, जिससे भारत को अत्यधिक लाभ होता था। इस समय सुसंस्कृत अभिरुचि की वस्तुओं का निर्माण भारत में बहुतायत से होता था। कलमदान, शमादान, रेशमी वस्त्र, सती-ऊनी वस्त्र, कालीन, अफीम, लाख आदि अनेक वस्तुएँ बाहर जाती थीं, जिनके बदले में सोना भारत में आता था। बंगाल और बिहार में सूती कपड़े बनाने का इतना अधिक कार्य होता था कि ये प्रदेश ‘कपड़ों का देश के समान दृष्टिगोचर होते थे। कपड़े की रँगाई तथा छपाई का कार्य बहुतायत से होता था तथा भारत के बने कपड़े यूरोप में विलास की सामग्री समझे जाते थे।

6. प्रजा के साथ पितृ तुल्य व्यवहार – तत्कालीन विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों का मत है कि शाहजहाँ अपनी प्रजा का पालन इस प्रकार करता था जैसे कोई पिता अपनी सन्तान का। शाहजहाँ यद्यपि ‘शानदार’ सम्राट था परन्तु वह कठोर परिश्रमी भी था तथा राज्य के कार्यो की वह स्वयं देखभाल करता था, जिसके कारण उसकी प्रजा सुख, शान्ति तथा समृद्धि का अनुभव करती थी। दुर्भिक्ष पीड़ितों की रक्षा के लिए किए गए बादशाह के प्रयत्न उसकी प्रजावत्सलता के ज्वलन्त प्रमाण हैं।

अब्दुल हमीद लाहौरी के कथनानुसार- “उसने सत्तर लाख रुपये का लगान माफ कर दिया तथा भोजनालयों में भूखों को मुफ्त भोजन की व्यवस्था की। बादशाह ने 50,000 रुपये अहमदाबाद में दुर्भिक्ष पीड़ित जनता में बाँटने की आज्ञा प्रदान की। उसने प्रजा के हित के लिए एक नहर का निर्माण करवाया तथा सिंचाई के लिए अन्य नहरें बनवाई।” लेनपूल ने लिखा है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और दया के लिए विख्यात था और इसीलिए वह अपनी प्रजा का इतना अधिक प्रिय बन गया था।”

7. साहित्य तथा भवन-निर्माण कला – कला तथा अन्य ललितकलाओं की उन्नति का युग- शाहजहाँ का काल साहित्य तथा ललितकलाओं के दृष्टिकोण से पूर्णतया स्वर्ण-युग कहलाने का अधिकारी है। उसके विपक्षी भी उसके काल की कलाकृतियों को देखकर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली (शाहजहानाबाद) का लाल किला तथा उसमें दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास, दिल्ली की जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद तथा आगरा की ही सर्वोत्कृष्ट कृति ताजमहल, शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। दिल्ली, लाहौर और कश्मीर के बगीचे, उसके पौधों, फूलों और नहरों के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करते हैं। इसके साथ ही अलीमर्दन खाँ 98 मील लम्बी रावी नहर काटकर लाहौर लाया और नहर-ए-शाहाब या पुरानी फिरोज नहर, जो मिट्टी से भर गई थी, को न केवल साफ किया गया, बल्कि नहर-ए-बहिश्त के नाम से इसे 60 मील से भी अधिक लम्बा कर दिया गया।

शाहजहाँ की सर्वश्रेष्ठ कृति आगरा में यमुना के तट पर बनी हुई ताजमहल नाम की इमारत है, जिसे उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया था, जिसकी मृत्यु 7 जून, 1631 ई० को बुरहानपुर में हुई थी। यह उसके दाम्पत्य-प्रेम कथा का अमर प्रतीक है। ताजमहल के अतिरिक्त उसके द्वारा निर्मित आगरा की अनेक इमारतें उसके अलंकृत स्वभाव एवं श्रेष्ठ अभिरुचि का परिचय देती हैं, जिनमें मोती मस्जिद, मुसम्मन बुर्ज आदि इमारतें अपना अद्वितीय स्थान रखती हैं। शाहजहाँ ने अपने कला-प्रेम के लिए अत्यधिक धन व्यय किया, जो उसकी समृद्धि, गौरव तथा शासन का सजीव प्रमाण है। जनता पर कर वृद्धि किए बिना ही सम्राट ने इतनी गौरवपूर्ण इमारतों का निर्माण करवाया।

(क) लेखन-कला – इस काल में चित्रकला की प्रगति के साथ-साथ लेखन-कला का भी काफी विकास हुआ। तत्कालीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के अवलोकन से यह प्रमाणित होता है कि शाहजहाँ के शासनकाल में लोग लेखन कला में कितने सिद्धहस्त थे। मुहम्मद मुराद शिरीन इस समय का कुशल हस्त-लेखक था।

(ख) चित्रकला – शाहजहाँ को स्थापत्य-कला के साथ-साथ चित्रकला का भी शौक था। सम्राट के अतिरिक्त आसफ खाँ व शहजादे दाराशिकोह को भी चित्रकला से बहुत प्रेम था। इस काल के प्रमुख चित्रकारों में मीर हाशिम, अनूपमित्र तथा चित्रमणि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल के चित्रों में हस्तकौशल अधिक तथा शैली एवं भावों की विविधता कम पाई जाती है। इसके साथ ही इन चित्रों में स्वाभाविकता तथा मौलिकता का अभाव पाया जाता है।

(ग) कला की उन्नति – शाहजहाँ का ‘मयूर सिंहासन’ अथवा ‘तख्त-ए-ताऊस’ जो बहूमूल्य पत्थरों से जड़ित था तथा जिसके बीचों-बीच विश्वप्रसिद्ध हीरा कोहिनूर जगमगाता था उसके गौरव को चार चाँद लगा देने के लिए पर्याप्त था। मयूर सिंहासन इस काल की सुन्दर कृति थी।

(घ) संगीत कला – शाहजहाँ की संगीत में अत्यधिक अभिरुचि थी। वह स्वयं एक अच्छा संगीतज्ञ था और उसने अपने दरबार में अनेक संगीतज्ञों को संरक्षण प्रदान किया था। उसके समय में वाद्य-कला के क्षेत्र में उन्नति हुई थी। सुखसेन, एयाज और सूरसेन बीन बजाने में पारंगत थे। शाहजहाँ का ध्रुपद राग के प्रति विशेष अनुराग था। लाल खाँ नामक संगीतकार ध्रुपद राग का विशेष गायक था। हिन्दू गायकों में जगन्नाथ को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। वह एक उच्चकोटि का गायक था, जिसे सम्राट का कृपापात्र होने का सौभाग्य प्राप्त था।

(ङ) साहित्य – शाहजहाँ के शासन में साहित्य की भी बहुत उन्नति हुई थी। फारसी इस युग में राष्ट्रभाषा का स्थान रखती थी। इस समय फारसी दो शाखाओं में बंटी हुई थी। पहली शाखा विशुद्ध फारसी की थी और दूसरी शाखा भारतीय फारसी से सम्बन्धित थी। भारतीय फारसी भाषा के जन्मदाता अबुल फजल थे। इतिहास के अलावा काव्य-रचना भी इस काल में प्रमुख रूप से हुई। दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी लिखता है कि गंगाधर तथा ‘गंगालहरी’ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पण्डित, शाहजहाँ के राजकवि थे। कसीदों के लिखने का भी बहुत प्रचलन था। इस काल का एक महान शायर मिर्जा मुहम्मद अली था, जिसको ‘साहब’ का तखल्लुस प्राप्त था। गद्य साहित्य की भी उन्नति इस काल में बहुत हुई थी।

अनेक सुन्दर पत्र भी इस काल में लिखे गए थे। संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद शहजादा दारा के प्रोत्साहन से हुआ था। भगवद्गीता, उपनिषद् तथा रामायण आदि का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। औषधिशास्त्र, खगोल विद्या तथा गणित की भी बहुत प्रगति हुई थी। अताउल्ला इस काल का बहुत बड़ा गणितज्ञ था और मुल्ला फरीद विख्यात खगोल विद्या विज्ञानी था। हिन्दी काव्य एवं साहित्य के विकास के प्रति शाहजहाँ उदासीन न रहा। सुन्दर श्रृंगार, सिंहासन बत्तीसी, और बारहमासा के रचयिता प्रसिद्ध कवि सुन्दरदास उपनाम के महाकवि ‘राय’ थे। हिन्दी के सामयिक सर्वश्रेष्ठ कवि चिन्तामणि भी सम्राट के विशेष कृपापात्र थे। संस्कृत और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान कवीन्द्र आचार्य सरस्वती तथा उन्हीं की कोटि के अन्य संस्कृत
विद्वानों से शाहजहाँ का दरबार अलंकृत था।

स्वर्ण युग के विपक्ष में तर्क – जब हम शाहजहाँ के काल के दूसरे पक्ष का अध्ययन करते हैं तो स्वर्ण की यह जगमगाहट फीकी पड़ जाती है तथा यह सन्देह होने लगता है कि क्या वास्तव में शाहजहाँ का काल स्वर्णकाल कहलाने का अधिकारी है। शाहजहाँ के काल के अन्धकारपूर्ण पक्ष का समर्थन अनेक इतिहासकारों ने किया है, जिनमें स्मिथ प्रमुख हैं। इन इतिहासकारों के मत में यह युग कदापि स्वर्ण युग कहलाने का अधिकारी नहीं है। अपने मत की पुष्टि में इन विद्वानों ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं

1. भारी करों का भार – शाहजहाँ को भवन निर्माण में अत्यधिक रुचि थी। उसने बहुमूल्य भवनों का निर्माण करवाया। उसका शानदार दरबार भी बहुमूल्य वस्तुओं से सुसज्जित रहता था। उसकी इन अभिरुचियों पर अपार धन व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त उसकी विजय योजनाएँ; विशेषकर मध्य एशियाई नीति भी भारी अपव्यय का कारण बनी। इतना धन व्यय करने के लिए उसे जनता पर कर अधिक बढ़ाने पड़े तथा उसके अपव्यय का अधिकांश भार दरिद्र जनता को वहन करना पड़ा। एलफिन्स्टन तथा लेनपूल के मत में जनता को शाहजहाँ की मूल्यवान अभिरुचि की पूर्ति के लिए अपने परिश्रम से अर्जित धन का त्याग करना पड़ा होगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि शाहजहाँ का युग दरिद्र जनता के लिए स्वर्ण युग के विपरित अन्धकार युग था उसका दमन किया जाता था, सरकारी कर्मचारी उसे लूटते थे तथा जबरन कठोर परिश्रम करने पर विवश करते थे। गाढ़े खून की कमाई उन्हें राजकर के रूप में दे देनी पड़ती थी तथा गरीब व्यक्ति अधिकांशतः भूखों मरते थे। ऐसे युग को स्वर्ण युग कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता है।

2. शाहजहाँ की धार्मिक नीति- यद्यपि शाहजहाँ ने औरंगजेब के समान धार्मिक अत्याचार तो नहीं किए तथापि उसके काल में धार्मिक पक्षपात का युग आरम्भ हो गया था। अनेक हिन्दुओं को लालच देकर बलात् मुसलमान बनाया गया था। हिन्दुओं के अतिरिक्त ईसाई भी उसकी असहिष्णुता के शिकार बन गए थे। कट्टर सुन्नी होने के कारण शियाओं के साथ उसका व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण न था। विधर्मियों के प्रति उसकी असहिष्णुता इस बात से प्रकट होती है कि शियाओं को उसके दरबार में उच्च स्थान प्राप्त न था।

3. शिया राज्यों का विरोध- बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्यों को वह इसलिए नष्ट कर देना चाहता था कि वे शिया राज्य थे। यदि शाहजहाँ तथा औरंगजेब ने इन राज्यों को जीतने का प्रयास न किया होता तो ये राज्य मराठों के विरुद्ध मुगल सम्राटों के सहायक होते तथा मराठों का उत्कर्ष असम्भव हो गया होता। इस प्रकार शिया राज्यों के पतन तथा मराठों के उत्कर्ष में भी शाहजहाँ का योगदान रहा और कालान्तर में यह कारक मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना।

4. शासन-व्यवस्था में शिथिलता- यद्यपि शाहजहाँ के काल में अधिकांशतः शान्ति विद्यमान थी किन्तु कुछ सूबों में सूबेदारों के अत्याचारों के कारण जनता की स्थिति शोचनीय थी। कर्मचारी रिश्वत लेते थे तथा प्रजा पर अत्याचार करके अधिक धन वसूल करते थे क्योंकि उन्हें अपने अधिकारियों को उपहार और भेंट देने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी और वह धन जनता से ही प्राप्त किया जा सकता था। सम्राट शाहजहाँ स्वयं प्रजावत्सल तथा न्यायी सम्राट था।

परन्तु उसके काल में केन्द्र का अनुशासन ढीला पड़ने लगा था और प्रजा पर उसके कर्मचारियों द्वारा अत्याचार होते थे। शाहजहाँ के समय में बड़े-बड़े अमीरों का नैतिक एवं चारित्रिक पतन आरम्भ हो गया था जिससे उसकी सैन्य व्यवस्था का पतन हो गया था। उसके पास एक विशाल किन्तु अनुशासनहीन सेना थी जिसके कारण सेना पर अत्यधिक धन व्यय करके भी बादशाह अपनी विजय नीति में सर्वथा असफल रहा। उसके विलासी सैनिक तथा सेनापति मध्य एशिया एवं कंधार के दुर्गम प्रदेशों में रहने को प्रस्तुत नहीं थे। इसलिए सम्राट की मध्य एशियायी नीति असफल रही।

5. सामाजिक भेद-भाव – शाहजहाँ के काल में समाज के दो वर्गों- धनी वर्ग तथा निर्धन वर्ग- के मध्य एक भयंकर खाई उत्पन्न हो चुकी थी। कुछ लोग इतने धनी थे कि अपनी विलासिता पर वे मनमना धन व्यय कर सकते थे। दूसरी ओर, अधिकांश जनता भूख से व्याकुल थी। उनके पास न शरीर ढ़कने के लिए वस्त्र थे और न खाने के लिए अनाज। मिट्टी अथवा घास-फूस के झोंपड़े में निवास करने वाले ये दु:खी जन अथक परिश्रम करके भी अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ रहते थे। अमीरों की विलासिता को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी आय का अधिकांश भाग कर के रूप में देना पड़ता था। सम्राट तथा उसके कर्मचारियों के अत्याचारों के कारण उनमें असन्तोष जाग्रत होने लगा था जिसका परिणाम औरंगजेब के काल में अनेक विद्रोहों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शाहजहाँ के काल में समाज का पतन आरम्भ हो चुका था तथा सामाजिक दशा को ध्यान में रखते हुए इस युग को स्वर्ण युग कदापि नहीं कहा जा सकता।

6. आर्थिक पतन – शाहजहाँ के युग में बाह्य जगमगाहट तथा वैभव ही देखने को मिलता है। इस काल मे यद्यपि बाह्य देशों से (विशेषकर मध्य एशिया, पश्चिम तथा यूरोप) व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे जिनसे भारत को आर्थिक लाभ होता था तथा राजकोष धन से भरा हुआ था तथापित मुगलकाल की आर्थिक दशा का पतन शाहजहाँ के काल में आरम्भ हो जाता है।

7. शाहजहाँ का दुर्बल चरित्र – शाहजहाँ के चरित्र पर अनेक शंकाएँ प्रकट की गई हैं। बर्नियर तथा मनूची इत्यादि विद्वानों ने उसे अत्यन्त कामातुर, विलासी और पाशविक वृत्ति का मनुष्य सिद्ध किया है। शाहजहाँ के चरित्र में निम्नलिखित दोष थे

(क) अपव्ययी – शाहजहाँ ने अपने दाम्पत्य प्रेम की स्मृति में ताजमहल बनवाया था। विद्वानों का मत है कि इतना धन दूसरों की भलाई के कार्यों में भी खर्च किया जा सकता था। इसी प्रकार मयूर सिंहासन के निर्माण में भी बहुत-सा धन व्यय हुआ था। लेनपूल का विचार है कि उसके शौक पूरे करने के लिए बहुत अधिक धन असहाय जनता से वसूल किया गया था।

(ख) अत्याचारी-  शाहजहाँ के चरित्र पर अत्याचारी होने का आरोप भी लगाया जाता है। उसने अपने सिंहासनारोहण हेतु अपने भाइयों का निर्ममतापूर्ण वध भी कराया था। शाहजहाँ ने ईसाइयों तथा सिक्खों पर भी अत्याचार किए थे।

(ग) व्यभिचारी – शाहजहाँ के चरित्र का यह भी एक गम्भीर दोष था, जिसके कारण उस युग को स्वर्णयुग मानने में संशय होता है। उस पर परनारी गमन का दोष लगाया गया है। यद्यपि यह दोष तत्कालीन समाज के राजवंशों के अधिकांश पुरुषों में दृष्टिगोचर होता है।

शाहजहाँ के अपव्ययी स्वभाव, उसकी महत्त्वाकांक्षी विजय-योजनाएँ, ऐश्वर्याशाली भवन तथा गौरवपूर्ण दरबार ने उसके पूर्वजों द्वारा संचित धन का सफाया कर दिया तथा निम्न एवं मध्यम वर्ग को करों के भार से लाद दिया। बर्नियर लिखता है- “गरीबों को इतने अधिक कर देने पड़ते थे कि उनके पास बहुधा जीवन की अनिवार्य आवश्यताएँ पूरी करने योग्य भी धन नहीं बच पाता था।” इस आर्थिक पतन का आरम्भ शाहजहाँ के काल में हुआ तथा औरंगजेब के काल में पूर्ण आर्थिक पतन के कारण मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।

उपर्युक्त दो विरोधी विचारधाराएँ शाहजहाँ के युग के दो विरोधी पक्षों का प्रदर्शन करती हैं। कुछ विद्वानों के मत में शाहजहाँ का युग स्वर्णयुग था तथा कुछ विद्वान उसकी शासन-व्यवस्था के दोषों की ओर संकेत करते हैं। वास्तव में शाहजहाँ का काल मुगलकाल का स्वर्ण युग था। परन्तु चरमोत्कर्ष के उपरान्त पतन प्रकृति का शाश्वत नियम है; अतः उत्थान की अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचकर शाहजहाँ के काल में ही मुगलकाल के पतन का बीजारोपण हो गया।



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