InterviewSolution
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‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन कीजिए। या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘अयोध्या’ सर्ग की कथा अपने शब्दों में लिखिए। या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘दशरथ’ खण्ड की कथा का सार लिखिए। या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चौथे सर्ग ‘श्रवण’ की कथावस्तु लिखिए।या‘अवणकुमार’ खण्डकाव्य के छठे सर्ग ‘सन्देश’ की कथा अपने शब्दों में लिखिए।या‘श्रवणकुमार’ के ‘आश्रम’ शीर्षक सर्ग की कथा संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के प्रमुख सामाजिक प्रसंगों का वर्णन कीजिए।या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के आधार पर प्रथम सर्ग की कथावस्तु लिखिए। या‘श्रवणकुमार’ काव्य के ‘श्रवण’ शीर्षक सर्ग का सारांश लिखिए। या‘श्रवणकुमार खण्डकाव्य के सातवें (सप्तम) सर्ग ‘अभिशाप का सारांश लिखिए। या‘श्रवणकुमार’ के सर्गों का नामोल्लेख करते हुए ‘निर्वाण’ (अष्टम) सर्ग का सारांश लिखिए।या‘श्रवणकुमार’ के आखेट सर्ग की कथा संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए। या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के तीसरे सर्ग ‘आखेट’ की कथावस्तु का उद्घाटन कीजिए।या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के सर्गों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के किसी मार्मिक अंश (श्रवण सर्ग) की कथा का उल्लेख कीजिए।या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के जो कारुणिक प्रसंग जनमानस को बहुत प्रभावित करते हैं, उन पर प्रकाश डालिए।या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कारुणिक प्रसंग का वर्णन कीजिए। या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कथानक में महाराज दशरथ की भूमिका पर प्रकाश डालिए। या‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘निर्वाण’ सर्ग की कथावस्तु लिखिए। |
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Answer» डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ की कथा ‘वाल्मीकि रामायण’ के ‘अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार प्रसंग पर आधारित है। इस खण्डकाव्य का सर्गानुसार कथानक निम्नवत् है- प्रथम सर्ग : अयोध्या प्रथम सर्ग में ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कथानक की पृष्ठभूमि तैयार की गयी है। इसमें अयोध्या नगरी की स्थापना, उसका नामकरण, राज्यकुल के वैभव एवं उसकी गौरवमयी विशेषताओं का वर्णन किया गया है; यथा- सरि सरयू के पावन तट पर है साकेत नगर छविमान । कवि ने यह भी बताया कि अयोध्या में सर्वत्र नैतिकता और सदाचार विद्यमान है। इस नगरी में सभी वस्तुओं का विक्रय उचित मूल्य पर होता है। यहाँ के नर-नारी परस्पर यथोचित सम्मान करते हैं। इस प्रकार अयोध्या का जीवन सहज और आनन्द से परिपूर्ण है। इस सर्ग में अयोध्या की रम्य-प्रकृति का चित्रण भी किया गया है। ऐसे वातावरण भव्य में दशरथ-उर में उठी उमंग । द्वितीय सर्ग : आश्रम द्वितीय सर्ग के आरम्भ में सरयू नदी के वन-प्रान्तर के रमणीक आश्रम का मनोहारी चित्रण हुआ है, जिसमें श्रवणकुमार और उसके नेत्रहीन माता-पिता सानन्द निवास कर रहे हैं। इस आश्रम में सर्वत्र सुखशान्ति है जहाँ सदैव शरद् एवं वसन्त का वैभव व्याप्त रहता है। स्वच्छ जल से भरे तालाबों में कमल खिले हुए हैं। यहाँ मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सब परस्पर सहज प्रेम-भाव से रहते हैं। यहाँ द्वेष और कटुता नाममात्र को भी नहीं है। आश्रम के वर्णन में कवि ने भारतीय दर्शन का चिन्तन प्रस्तुत किया है। आश्रम के शान्त-सौन्दर्यमय प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक वातावरण में ही युवक श्रवणकुमार के चरित्र का विकास होता है। वह माता-पिता की आज्ञानुसार ही नित्य-प्रति कार्य करता है तथा उनकी सेवा में लगा रहता है- जननी और जनक को श्रद्धा-सहित नवाकर शीश । तृतीय सर्ग : आखेट तृतीय सर्ग में एक ओर दशरथ मृग-शावक के वध का स्वप्न देखते हैं। दूसरी ओर श्रवणकुमार जब जल लेने जाता है तो उसकी बायीं आँख फड़कने लगती है। शकुन-अपशकुन तथा स्वप्न-विचार से दोनों ही अशुभ हैं। स्वप्न में मृग-शावक-वध से दशरथ व्याकुल हो जाते हैं। वे ब्रह्म-मुहूर्त में जागकर आखेट हेतु वने। की ओर चल देते हैं। दूसरी ओर; उसी समय श्रवणकुमार के माता-पिता को बहुत अधिक प्यास लगती है और वह माता-पिता की आज्ञानुसार नदी से जल लेने चल देता है। जल में पात्र डूबने की ध्वनि को किसी हिंसक पशु की ध्वनि समझकर दशरथ शब्दभेदी बाण चला देते हैं, जो सीधे श्रवणकुमार के हृदय में जाकर लगता है। श्रवणकुमार का चीत्कार सुनकर दशरथ विस्मय, चिन्ता और शोक में डूब जाते हैं। उन्हें हतप्रभ एवं किंकर्तव्यविमूढ़ देख उनका सारथी उन्हें सान्त्वना देता है। प्रस्तुत सर्ग में श्रवणकुमार की मातृ-पितृ-भक्ति, शकुन-अपशकुन तथा दशरथ की आखेट-रुचि पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ सर्ग : श्रवण चतुर्थ सर्ग का आरम्भ श्रवणकुमार के मार्मिक विलाप से होता है। उसकी समझ में यह नहीं आता कि उसका कोई शत्रु नहीं, फिर भी उस पर किसने बाण छोड़ दिया ? बाण लगने पर भी उसे अपनी चिन्ता नहीं, वरन् अपने वृद्ध एवं प्यासे माता-पिता की चिन्ता है- मुझे बाण की पीड़ा सम्प्रति इतनी नहीं सताती है । दशरथ आहत श्रवणकुमार को देखकर तथा उसके मार्मिक क्रन्दन को सुनकर व्याकुल हो जाते हैं। पंचम सर्ग : दशरथ पंचम सर्ग को आरम्भ दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व, विषाद, आत्मग्लानि और अपराध-भावना से होता है। दशरथ दु:खी एवं चिन्तित भाव से सिर झुकाए आश्रम की ओर जा रहे थे और सोच रहे थे कि इस घटना के कारण हृदय पर लगे घाव का प्रायश्चित वे किस प्रकार करें– हाय चलेगी युग-युगान्त तक अब मेरी यह पाप कथा। इसी प्रकार के मानसिक उद्वेगों से आकुल-व्याकुल दशरथ आश्रम पहुँच जाते हैं। षष्ठ सर्ग : सन्देश षष्ठ सर्ग में श्रवणकुमार के माता-पिता की असहाय दशा तथा दशरथ के क्षोभ का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है। श्रवणकुमार के माता-पिता उसके आने की प्रतीक्षा में व्याकुल हैं। दशरथ की पदचाप सुनकर वे पूछते हैं- श्रवण-पिता ने कहा, ”आज प्रिय क्योंकर तुमने किया विलम्ब ? ऋषि-दम्पति पर्याप्त समय तक अपने पुत्र के गुणों का वर्णन करते रहते हैं। तत्पश्चात् दशरथ उन्हें जल-ग्रहण करने के लिए कहते हैं तो वे शंकित होकर उनका परिचय पूछते हैं। अन्त में दशरथ उन्हें वह हृदय-विदारक दुर्घटना का समाचार सुना देते हैं, जिसे सुनते ही वे करुण विलाप कर उठते हैं और हाहाकार करते अपने मृतक पुत्र के स्पर्श के लिए दशरथ के साथ चल देते हैं। सप्तम सर्ग : अभिशाप ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग में ऋषि-दम्पति का करुण विलाप चित्रित हुआ है। सरयू-तट पर अपने मृतक पुत्र के शरीर को स्पर्शकर उनके धैर्य का बाँध टूट जाता है। वे विलाप करते-करते अचेत हो जाते हैं। कुछ देर बाद वे सचेत होते हैं तो पुनः विलाप कर उठते हैं- कौन हमारे लिए विपिन से कन्द मूल फल लायेगा । इस प्रकार श्रवणकुमार के माता-पिता उसके गुणों और सुकर्मों का स्मरण कर-करके हृदयविदारक विलाप करते हैं। अन्त में श्रवणकुमार के पिता दशरथ से कहते हैं कि यद्यपि आपने यह पाप अनजाने में किया है, परन्तु पाप तो पाप ही है। इसलिए— पुत्र-शोक से कलप रहा हूँ जिस प्रकार मैं, अजनन्दन । अष्टम सर्ग : निर्वाण इस सर्ग में शाप के कारण दशरथ बहुत अधिक दु:खी हैं। पर्याप्त विलाप करने के बाद श्रवणकुमार के पिता को यह आत्मबोध होता है कि मेरे उदार एवं शान्त हृदय में क्रोध कैसे आ गया ? मैंने तो व्यर्थ ही दशरथ को शाप दे दिया। मेरे पुत्र का वध तो नियति के विधान के अनुसार दशरथ के हाथों ही होना था। फिर इसमें किसी का क्या दोष ? मैं प्रतिकृत हो गया आपकी सेवा परिचर्या कर तात ।। पुत्र-शोक में व्याकुल ऋषि-दम्पति रुदन करते-करते प्राण-त्याग देते हैं और सारथी द्वारा तैयार की गयी चिता में श्रवणकुमार एवं उसके पिता-माता तीनों के नश्वर शरीर भस्म हो जाते हैं। नवम सर्ग : उपसंहार नवम सर्ग में दशरथ दुःखी हृदय से अयोध्या लौट आते हैं। अपयश फैलने के भय से वे वन की दुर्घटना किसी को भी नहीं बताते, किन्तु राम के वन-गमन के समय वे भावविह्वल होकर कौशल्या से यह सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हैं तथा पुत्र-वियोग में तड़पते हुए प्राण त्याग देते हैं। |
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‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के आधार पर दशरथ का चरित्र-चित्रण कीजिए। |
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Answer» रघुवंशी राजा अज के पुत्र दशरथ ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में आरम्भ से अन्त तक विद्यमान हैं। मूल रूप से दशरथ इस खण्डकाव्य के प्राण हैं। दशरथ की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- (1) उत्तम-कुलोत्पन्न–राजा दशरथ उत्तम-कुलोत्पन्न हैं। उनका वंश ‘इक्ष्वाकु’ नाम से प्रसिद्ध है। पृथु, त्रिशंकु, सगर, दिलीप, रघु, हरिश्चन्द्र और अज; दशरथ के इतिहासप्रसिद्ध पूर्वज रहे हैं। उन्हें अपने वंश पर गर्व है क्षत्रिय हूँ मम शिरा जाल में रघुवंशी है रक्त प्रवाह ।। (2) लोकप्रिय-शासक-राजा दशरथ प्रजावत्सल एवं योग्य शासक हैं। उनके राज्य में सबको न्याय मिलता है, चोरी कहीं नहीं होती है, प्रजा सब प्रकार से सुखी व सन्तुष्ट है तथा विद्वज्जनों का यथोचित सत्कार होता है– सुख समृद्धि आमोदपूर्ण था कौशलेश का शुभ शासन। (3) धनुर्विद्या में निपुण कुमार दशरथ धनुर्विद्या में निपुण और शब्दभेदी बाण चलाने में पारंगत हैं। आखेट में उनकी विशेष रुचि है शब्द-भेद के निपुण अहेरी, रविकुल के भावी भूपाल । इसीलिए श्रावण मास में वर्षा के अनन्तर जब चारों ओर हरियाली छाई रहती है, तब वे आखेट का निश्चय करते हैं। (4) विनम्र एवं दयालु–दशरथ में तनिक भी अहंकार नहीं है। दूसरे का दुःख देखकर वे बहुत अधिक व्याकुल हो जाते हैं। स्वप्न में मृग-शावक के वध से ही वे दु:खी हो उठते हैं- करने को गये समुद्यत, ढाढ भार करके रोदने । (5) संवेदनशील एवं पश्चात्ताप करने वाले–दशरथ अपने किये अनुचित कार्य पर आत्मग्लानि से भर उठते हैं तथा उसका प्रायश्चित्त करते रहते हैं। श्रवणकुमार की हत्या पर उनके प्रायश्चित्त एवं आत्मग्लानि उनके सच्चे पश्चात्ताप पर किया गया आर्तनाद है- मलहम कौन भयंकर व्रण पर जिसका लेप करू जाकर। अपने इस कुकृत्य पर उन्हें अपने नहीं, अपने कुल के अपयश का दुःख सता रहा है- हाय चलेगी युग युगान्त तक अब मेरी यह पाप कथा। अपने द्वारा किये गये कर्म पर दु:खी होकर वे अन्ततः धरती माता से ही कह उठते हैं- फटो धरणि, मैं समा सकुँ तुम करो ग्रहण, मम भाग्य जगे। (6) आत्म-तपस्वी-दशरथ न्यायप्रिय होने के साथ-साथ आत्म-तपस्वी भी हैं। वे अपने अपराध को स्वयं अक्षम्य मानते हैं- करें मुनीश क्षमा वे होंगे, निस्पृह करुणा सिंन्धु अगाध । (7) अपराध-बोध से ग्रसित-श्रवणकुमार के पिता द्वारा शाप दिये जाने पर दशरथ काँप उठते हैं। वे अयोध्या लौटकर यद्यपि लोकनिन्दा के भय से किसी को भी यह दुर्घटना नहीं बताते, किन्तु अपने अपराध की वेदना उनके हृदय में कसकती ही रहती है। वे जानते हैं कि समस्त प्राणियों को अपने कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। इसलिए वे किसी से कुछ कहे बिना भी अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं। कवि कहता है– रही खरकती हाय शूल-सी पीड़ा उर में दशरथ के। (8) तेजस्वी-दशरथ एक तेजस्वी राजकुमार हैं। जब वह श्रवणकुमार के पास पहुँचते हैं तो वह उनके रूप से प्रभावित हो उठता है। उनके प्रत्येक अंग से तेज मानो फूटा पड़ता है। श्रवण उनसे निवेदन करता है- रूपवान् है तेज आपका, अंग-अंग से फूट रहा। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दशरथ का चरित्र महान् गुणों से विभूषित है जो कि प्रायश्चित्त और आत्म-ग्लानि की अग्नि में तपकर और भी शुद्ध हो गया है। कवि दशरथ को चरित्र-चित्रण करने में पूर्ण सफल रहा है। |
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‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के मार्मिक स्थलों का सोदाहरण निदर्शन कीजिए।या“‘श्रवणकुमार’ काव्य के अभिशाप सर्ग में करुण रस का सांगोपांग वर्णन है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।या‘श्रवणकुमार’ के कथानक के मार्मिक स्थल की समीक्षा कीजिए। |
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Answer» डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ की कथा वाल्मीकिरामायण के अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार–प्रसंग पर आधारित है। कवि ने इस कथा को युगानुरूप परिवर्तित कर सर्वथा नये रूप में प्रस्तुत किया है। ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथा नौ सर्गों में विभक्त है, जिनमें अन्तिम छ: सर्गों में करुण रस की पवित्र धारा प्रवाहित हुई है। बाण लगने पर श्रवण का मार्मिक क्रन्दन, दशरथ की आत्मग्लानि, श्रवण के माता-पिता का करुण-विलाप, उनका दशरथ को शाप देना, श्रवण के माता-पिता का पुत्र-शोक में प्राण त्यागना और दशरथ का दु:खी मन से अयोध्या लौटना ऐसे कारुणिक प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर किसी भी सहृदय पाठक का मन करुणा से आप्लावित हो उठता है। इस कारुणिकता का ही यह प्रभाव है कि यह कथानक भारतीय जनमानस की स्मृति में अमिट हो गया है और श्रवणकुमार का नाम मातृ-पितृभक्ति का पर्याय बन गया है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य है और इसीलिए यह पाठकों को सबसे अधिक प्रभावित भी करता है। ‘अभिशाप’ इस खण्डकाव्य का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण सर्ग है, जिसमें वात्सल्य की गंगा और करुण रस की यमुना का सुन्दर संगम हुआ है। इसमें करुण रस के सभी अंगों की सहज अभिव्यक्ति हुई है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य भी है। श्रवण का शव, उसके माता-पिता के मनोभावों, पूर्व स्मृतियों एवं शव-स्पर्श, शीश-पटकना, रोना आदि में आलम्बन, उद्दीपन एवं अनुभाव के दर्शन होते हैं। प्रलाप, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन और अभिलाषा आदि वृत्तियों की सहायता से शोक की करुण रस में परिणति इस सर्ग में द्रष्टव्य है। इसके साथ ही कथावस्तु का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश भी इसी सर्ग में है। इसके अतिरिक्त इस सर्ग में श्रवण के पिता का चरित्र देवत्व और मनुष्यत्व के बीच संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। ऋषि होकर भी वे क्रोध को रोक न सके और पुत्र-वध से उत्पन्न रोष के कारण, दशरथ को शाप दे दिया– पुत्र-शोक में कलप रहा हूँ, जिस प्रकार मैं अज-नन्दन। श्रवण की माता के विलाप में भी करुण रस का स्रोत निम्नवत् फूट पड़ता है- मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन-सा पटक रही थी, शीश।। तो उधर वात्सल्य रस की गंगा भी प्रवाहित होती दिखाई देती हैं- धरा स्वर्ग में रहो कहीं भी ‘माँ’ मैं रहूँ सदा अय प्यार। यह सर्ग जहाँ काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से विशिष्ट है, वहीं यह अपने उदात्त विचारों एवं विश्लेषण के कारण भी विशिष्ट है। श्रवणकुमार के पिता पुत्र-वध के कारण दशरथ के प्रति रोष में हैं, किन्तु उनके द्वारा अपराध की स्वीकृति कर लेने के कारण वे उनके प्रति सहानुभूति भी रखते हैं। इस सर्ग के अन्त में ऋषि दम्पति में मानवीय दुर्बलता भी दिखाई गयी है। भले ही उन्होंने क्रोधवश दशरथ को शाप दे दिया, किन्तु दशरथ की निरपराध पत्नी के प्रति सहानुभूति भी दिखाई गयी है कि बेचारी नारी गेहूँ के साथ घुन की भाँति पिसेगी। अपने पुत्रहन्ता और उसकी पत्नी के प्रति यह संवेदनात्मक भाव, वह भी उस समय जब पुत्र का शव सामने हो, मानवादर्श की चरम सीमा को दर्शाता है। इस सर्ग में दशरथ की आन्तरिक अनुभूति एवं उनके अन्तर्मन का द्वन्द्व भी अपनी विशिष्टता रखता है। पश्चात्ताप और अपराध-बोध से दबा हुआ एक राजेश्वर; श्रवण के माता-पिता के सामने उनके पुत्र के शव के साथ जिस मन:स्थिति में खड़ा है, वह कवि की कल्पना-शक्ति की अनुभवात्मक संवेदना का परिचय देता है और उसकी उस स्थिति की अभिव्यक्ति में रसों का जो अद्भुत समन्वय हुआ है, वह सराहनीय है। |
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‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चरित्रों में देवोपम गुणों के साथ-साथ मानव-सुलभ दुर्बलताएँ भी दिखाई देती हैं। इस कथन के सम्बन्ध में अपने विचार लिखिए। |
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Answer» ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चरित्र-चित्रण में काव्यकार डॉ० शिवबालक शुक्ल ने अपनी अनुपम रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। उनके द्वारा गढ़े चरित्र जहाँ एक ओर देवोपम हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें मानव-सुलभ दुर्बलताएँ भी दृष्टिगत होती हैं। यही उनके चरित्रों की सर्वप्रमुख विशेषता है। पात्र चाहे श्रवणकुमार हो या उसके अन्धे माता-पिता अथवा अयोध्या नरेश दशरथ, सभी पात्रों का चरित्रांकन बड़े मनोयोग से किया गया है। दशरथ के चरित्र में भी जहाँ न्यायप्रियता, सत्यवादिता, उदारता और कर्तव्यनिष्ठा जैसे देवोपम गुण विद्यमान हैं, वहीं स्वप्न को देखकर मन में शंकित होना; श्रवण के अन्धे माता-पिता द्वारा शापित होने पर शाप की परिणति के विषय में सोचकर दु:खी होना और इस घटना के लोक में प्रचलित हो जाने पर कुल-परम्परा पर लगने वाले कलंक की चिन्ता करना आदि उनके चरित्र की ऐसी दुर्बलताएँ हैं, जो उन्हें साधारणजन के समकक्ष ला खड़ी करती हैं। इसी प्रकार श्रवण के पिता का चरित्र भी गुणों एवं दुर्बलताओं से युक्त है। वे जहाँ पुत्र-मृत्यु का समाचार सुनकर अपना विवेक खो बैठते हैं और दशरथ को शाप दे डालते हैं, वहीं बाद में अपने किये पर पश्चात्ताप करते हैं कि मैंने दशरथ को व्यर्थ ही शाप दे डाला। इनका पहला कार्य जहाँ मानव-सुलभ दुर्बलता का परिचायक है, वहीं उस पर पश्चात्ताप करना उनके देवोपम-चरित्र का। |
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