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| 1. | भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों में कीजिए –(क) योजनाकाल में कृषि का विकास,(ख) हरित क्रान्ति। | 
| Answer» (क) योजनाकाल में कृषि का विकास भारत में नियोजन 1 अप्रैल, 1950 से आरम्भ हुआ है। अब तक 65 वर्ष पूरे हो चुके हैं और 66वाँ वर्ष चल रहा है। इस काल में कृषि का अत्यधिक विकास हुआ है, जिसका विवरण निम्नवत् है – (1) कृषि उत्पादन में वृद्धि – इने योजनाकालों में कृषि उत्पादन बढ़ा है, जैसे-वर्ष 1950-51 में खाद्यान्नों का उत्पादन 551 लाख टन था, वह सन् 1983-84 में 1,524 लाख टन हो गया था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सूखे में कारण यह उत्पादन सन् 1986-87 में 1,440 लाख टन हुआ जो कि सन् 1988-89 में बढ़कर 1,702 लाख टन हो गया। इसी प्रकार की वृद्धि लगभग सभी कृषि उत्पादों में हुई। वर्ष 2006-07 में 2,120 लाख टन खाद्यान्नों का उत्पादन हुआ। (2) सिंचाई की सुविधा में वृद्धि – सन् 1950-51 में कुल 226 लाख हेक्टेयर भूमि को ही सिंचाई सुविधाएँ प्राप्त थीं, लेकिन सन् 1992-93 में 883 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई सुविधाएँ प्राप्त थीं। वर्ष 1994-95 में 78.6 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की गयी। वर्ष 2000-01 में बड़ी योजना द्वारा 947 लाख हेक्टेयर की सिंचाई हुई। (3) रासायनिक उर्वरक का उपयोग – वर्ष 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न के बराबर अर्थात् 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था, लेकिन आज यह 90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक है। वर्ष 1989-90 में सभी प्रकार के खाद की खपत 120 लाख टन एवं 1992-93 ई० में 127 लाख तथा वर्ष 1994-95 में 130 लाख टन हो गयी। वर्ष 2005-06 में 203 लाख टन रासायनिक उत्पादों का प्रयोग किया गया था। (4) हरित क्रान्ति एवं उच्च तकनीक – इसके प्रयोग से उत्पादन के नये कीर्तिमान स्थापित किये जा सकते हैं। अब कीटनाशक एवं रासायनिक उर्वरकों की बढ़ती हानियों एवं प्रदूषण के खतरों को देखते हुए इनका उपयोग सीमित रखकर इनके स्थान पर अधिक क्षमता के उपचारित बीज एवं जैव तकनीक व्यवस्था का बड़े पैमाने पर उपयोग 1990-91 ई० से ही प्रारम्भ किया गया है। (5) बहु-फसली कृषि – कृषि पहले सामान्यतया एक ही फसल की होती थी लेकिन आज एक से अधिक कृषि फसलें होती हैं। बागानी कृषि का भी तेजी से विकास हो रहा है। अब कुल सिंचित क्षेत्र के 20% भाग पर बहुफसलें बोयी गयीं। (6) उन्नत बीज – नियोजन प्रारम्भ होने पर अनेक प्रकार के उन्नत बीजों की खोज हुई है, जिसके परिणामस्वरूप सन् 1992 में 706 लाख हेक्टेयर भूमि पर और सन् 1994-95 में 800 लाख हेक्टेयर भूमि पर उन्नत बीजों को बोया गया, जबकि नियोजन से पूर्व ऐसा नहीं होता था। राष्ट्रीय निगम द्वारा वर्ष 2001-02 में 91 लाख क्विटल उन्नतशील बीजों का उत्पादन किया गया। (ख) हरित क्रान्ति जब तीसरी पंचवर्षीय योजना सफल हो गयी तो सरकार ने कृषि विकास के लिए नये कार्यक्रम तैयार किये। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य अच्छे बीज, खाद, सिंचाई आदि के प्रयोग द्वारा कृषि उत्पादन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना था। इस योजना को नयी कृषि नीति (New Agricultural Strategy) कहते हैं। इसके फलस्वरूप गेहूँ की उपज में तीव्र गति से वृद्धि हुई और अन्य वस्तुओं की उपज का वातावरण तैयार हो गया। इसी को हरित क्रान्ति (Green Revolution) कहते हैं। हरित क्रान्ति का आशय यह नहीं कि खेती की मेड़बन्दी करवाकर फावड़े, तगारी, गेंती, हल इत्यादि अन्य उपयोगी कृषि के साधन प्राप्त करके कृषि की जाए वरन् इन साधनों का विकास तकनीक के साथ प्रयोग करके कृषि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि की जा सके। हरित क्रान्ति अथवा नयी कृषि नीति के मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं – (1) अधिक उपज देने वाली किस्में – जिन क्षेत्रों में सिंचाई की विश्वसनीय सुविधाएँ उपलब्ध हैं। अथवा जिनमें वर्षा का पर्याप्त जल मिल जाता है, उनमें सन् 1966 की खरीफ की फसल से अधिक उपज देने वाली फसलों में बीजों का प्रयोग प्रारम्भ किया गया। यह प्रयोग अभी केवल पाँच खाद्यान्नों-गेहूँ, धान, बाजरी, मक्का तथा ज्वार–के उत्पादन में ही किया गया। इनमें गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्में, जैसे-शरबती, सोनारा, कल्याण सोना, छोटी लरमा तथा हीरा किस्में प्रसिद्ध हैं। चावल की भी आई० आर० 8, ताइचुंग 65, जय, पद्मा, पंकज, जगन्नाथ, जमुना, सावरमती आदि किस्मों का विकास हो गया है। (2) सुधरे हुए बीज – हरित क्रान्ति की सफलता अधिक उपज देने वाली किस्म तथा बढ़िया बीजों पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से न केवल बढ़िया किस्मों का प्रयोग करना आवश्यक है, बल्कि उनके बढ़िया बीजों की व्यवस्था करना भी जरूरी है। इस दृष्टि से ही देश भर में लगभग 4,000 कृषि फार्म स्थापित किये गये हैं, जहाँ बढ़िया किस्म के बीजों की उत्पत्ति होती है। (3) रासायनिक खाद – पाश्चात्य कृषिशास्त्रियों के अनुसार खेतों को अधिकाधिक रासायनिक खाद देकरं उत्पादन में आशातीत वृद्धि की जा सकती है। भारत के सामने वर्तमान समस्या उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करने की है। अतः रासायनिक खाद का प्रयोग बढ़ाने का प्रयत्न किया जा रहा है। (4) गहन कृषि (जिलावार) कार्यक्रम – गहन कृषि जिला कार्यक्रम से तात्पर्य यह है कि जिन क्षेत्रों में भूमि अच्छी है तथा सिंचाई की सुविधाएँ पर्याप्त हैं, वहाँ अधिक शक्ति और श्रम की सहायता से कृषि का विकास किया जाना चाहिए। (5) लघु सिंचाई – हरित क्रान्ति की हरियाली केवल बीज अथवा खाद से ही बनाये रखना कठिन होता है। इसके लिए सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था बहुत आवश्यक है। यह व्यवस्था बड़े बाँधों के अतिरिक्त छोटी नहरों, कुओं तथा तालाबों से भी करनी पड़ती है, ताकि प्रत्येक वर्ग के किसान को इन सुविधाओं का लाभ प्राप्त हो सके। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत नलकूप, छोटी नहरों तथा तालाब आदि बनाने का कार्य किया जाता है और इसमें सहायता दी जाती है। (6) कृषि शिक्षा तथा शोध – देश में कृषि विकास की उन्नति करने के लिए कृषि कार्य में शोध करना बहुत आवश्यक हैं जिससे उत्पादन तथा विकास की नवीनतम पद्धति का प्रयोग किया जा सके। 1 अक्टूबर, 1975 से एक कृषि अनुसन्धान सेवा का गठन किया गया है। कृषि विज्ञान केन्द्र खोले गये हैं। जिससे स्व-नियोजित किसानों और विस्तार कर्मचारियों को नवीनतम कृषि विधियों की जानकारी दी जा सके। देश में 29 कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किये जा चुके हैं जिनमें जबलपुर (मध्य प्रदेश), अकोला (महाराष्ट्र), पन्तनगर (उत्तराखण्ड), हिसार (हरियाणा), लुधियाना (पंजाब), बीकानेर (राजस्थान) तथा भुवनेश्वर (ओडिशा) मुख्य हैं। देश के विशिष्ट चुने हुए जिलों में कृषि प्रशिक्षण और शिक्षा कार्यक्रम चल रहे हैं। (7) पौध संरक्षण – हरित क्रान्ति में पौध संरक्षण कार्यक्रमों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके अन्तर्गत भूमि तथा फसलों पर दवा छिड़कने व बीज उपचारित करने का कार्य किया जाता है। जिन वर्षों में टिड्डी दल आते हैं, उन वर्षों में टिड्डियों को नष्ट करने के अभियान चलाकर उन्हें भूमि पर अथवा आकाश में नष्ट कर दिया जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रिय ‘नीम’ पर आधारित कीटनाशकों तथा जैव कीटनाशकों को एकीकृत कीट प्रबन्धक की व्यापक परिधि के अन्तर्गत प्रोत्साहित किया जा रहा है। हैदराबाद में एक पौध संरक्षण संस्थान है जहाँ अधिकारियों को पौध संरक्षण सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है। (8) बहफसली एवं मिश्रित फसल प्रणाली – सन् 1967-68 में सिंचित क्षेत्र में खाद तथा नयी किस्म के बीजों से एक ही भूखण्ड में जल्दी पकने वाली कई फसलें उत्पन्न करने का प्रयोग 36.4 लाख हेक्टेयर भूमि पर आरम्भ किया गया था। वर्तमान में कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 35 प्रतिशत भाग में दो या अधिक फसलें बोयी जा रही हैं। वर्ष 1995-96 में लगभग 500 लाख हेक्टेयर भूमि पर दो या अधिक फसलें उत्पन्न की गयीं। वर्तमान समय में कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 20% भाग में दो या दो से अधिक फसलें बोयी जा रही हैं। | |