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एक संस्कृति-एक राज्य के विचार को त्यागने के पश्चात राज्यों के लिए क्या आवश्यक हो जाता है?

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एक संस्कृति-एक राज्य के विचार को त्यागते ही यह आवश्यक हो जाता है कि ऐसे तरीकों के बारे में विचार किया जाए जिसमें विभिन्न संस्कृतियाँ और समुदाय एक ही देश में फल-फूल सकें। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनेक लोकतान्त्रिक देशों ने सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपायों को प्रारम्भ किया है। भारतीय संविधान में धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की संरक्षा के लिए विस्तृत प्रावधान किए हैं।

विभिन्न देशों में समूहों को जो भी अधिकार प्रदान किए गए हैं, उनमें सम्मिलित हैं-
अल्पसंख्यक समूहों एवं उनके सदस्यों की भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा के अधिकार। कुछ प्रकरणों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार भी होता है। इन अधिकारों को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि ये अधिकार इन समूहों के सदस्यों के लिए कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा के साथ ही समूह की सांस्कृतिक पहचान के लिए भी सुरक्षा का प्रावधान करते हैं। इसके अलावा, इन समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के रूप में भी मान्यता देनी होती है। इसका आशय यह है कि राष्ट्रीय पहचान को समावेशी रीति से परिभाषित करना होगा जो राष्ट्र-राज्य के सदस्यों की महत्ता और अद्वितीय योगदान को मान्यता प्रदान कर सके।

यह आशा की जाती है कि समूहों को मान्यता और संरक्षा प्रदान करने से उनकी आकांक्षाएँ सन्तुष्ट होंगी, फिर भी हो सकता है, कि कुछ समूह पृथक् राज्य की माँग पर अडिग रहें। यह विरोधाभासी भी प्रतीत हो सकता है कि जहाँ दुनिया में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया जारी है वहाँ राष्ट्रीय आकांक्षाएँ अभी भी बहुत सारे समूह और मनुष्यों को उद्देलित कर रही हैं। ऐसी माँगों से लोकतान्त्रिक तरीके से निपटने के लिए यह आवश्यक है कि सम्बन्धित देश अत्यन्त उदारता व दक्षता का परिचय दें।



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