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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्याएँ।यहाँ मुझे ज्ञात होता है कि बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह क्या चाहता है और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘पर्चेजिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही बाजार को देते हैं। न तो वे बाजार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाजार को सच्चा लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं, जिसका मतलब है कि कपट बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी॥

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कठिन शब्दार्थ-सार्थकता = महत्व, उपयोगिता। पर्चेजिंग पावर = क्रय शक्ति। विनाशक = नष्ट करने वाली। शैतानी = दुष्टतापूर्ण। बाजारूपन = विज्ञापन द्वारा अनुपयोगी चीजों को बेचना। कपट = छल, धोखा। सद्भाव = अच्छी भावना। घटी = कमी।

सन्दर्भ तथा प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ से संकलित ‘बाजार दर्शन’ शीर्षक विचारात्मक निबन्ध से उद्धृत है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं। लेखक को मानना है कि बाजार लोगों की जरूरत की चीजें उनको उपलब्ध कराने के लिए है। यदि वह चीजों का अनुचित विज्ञापन करके उन्हें लोगों को भेड़ने का प्रयास करता है तो वह अपने लक्ष्य से विरत हो जाता है। जो लोग पैसे के बल पर अनावश्यक चीजें बाजार से खरीदते हैं। वे भी बाजार की मर्यादा भंग करने के दोषी हैं।

व्याख्या-लेखक कहता है कि बाजार जाने वाले को यह ठीक तरह पता होना चाहिए कि उसको किस चीज की जरूरत है, यह जानने वाला ग्राहक ही बाजार को एक महत्वपूर्ण उपयोगी संस्था बनाने में सहायक होता है। जो मनुष्य अपनी आवश्यकता की चीजों का सही ज्ञान नहीं रखता और बाजार जाकर अपनी क्रय शक्ति का घमण्ड दिखाता है तथा अनाप-शनाप गैर जरूरी चीजें खरीद डालता है। वह बाजार की उपयोगिता भंग करके उसको हानि पहुँचाता है। उसके कारण बाजार को एक विनाशकारी शक्ति प्राप्त हो जाती है। यह शक्ति ग्राहक के शोषण की शक्ति होती है। इसको व्यंग्य शक्ति तथा दुष्टतापूर्ण शक्ति भी कह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति बाजार से लाभ नहीं उठा पाते।

ने इस तरह के ग्राहकों के कारण बाजार एक उद्देश्यपूर्ण संस्था ही बना रह पाता है। ये लोग बाजार का बाजारूपन बढ़ाते हैं। अर्थात् बाजार को चीजों के अनुचित प्रदर्शन और विज्ञापन द्वारा उन्हें खरीदने के लिए ग्राहकों को बाध्य करने का स्थान बना देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के कारण बजार ग्राहक को सामान उपलब्ध कराने के उपयोगी स्थल के बजाय उनके शोषण का स्थान बन जाता है। उनके कारण बाजार में छल-कपट बढ़ता है। ठगी बढ़ती है। विक्रेता और क्रेता के बीच का सद्भाव नष्ट हो जाता है। दोनों एक-दूसरे पर अविश्वास करते हैं और एक-दूसरे को ठगने का प्रयास करते हैं।

विशेष-
1. बाजार की उपयोगिता ग्राहक की जरूरत का सामान उसको उपलब्ध कराने में है।
2. ग्राहकों को ललचाकर सामान बेचना उनको ठगना है। ग्राहक द्वारा पैसे के बल पर अनावश्यक चीजें खरीदना अनुचित है। दोनों ही बाजार की सार्थकता को नष्ट करते हैं।
3. भाषा बोधगम्य तथा प्रवाहपूर्ण है।
4. शैली विचारात्मक है।



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