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Ras aur uske Prakar detail Mein explain kar rahe Jo board exam mein aayega

Answer» रस\xa0का शाब्दिक अर्थ है\xa0\'आनन्द\'।\xa0काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे \'रस\' कहा जाता है।रस का सम्बन्ध \'सृ\' धातु से माना गया है। जिसका अर्थ है - जो बहता है, अर्थात जो भाव रूप में हृदय में बहता है उसी को रस कहते है।रस के ग्यारह भेद होते है-\xa0(1) शृंगार रस (2) हास्य रस (3) करूण रस (4) रौद्र रस (5) वीर रस (6) भयानक रस (7) बीभत्स रस (8) अदभुत रस (9) शान्त रस (10) वत्सल रस (11) भक्ति रस ।श्रृंगार रस नायक नायिका के सौंदर्य तथा प्रेम संबंधी वर्णन को श्रंगार रस कहते हैं श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है। इसका स्थाई भाव रति होता है नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस कि अवस्था में पहुँच जाता है तो वह श्रंगार रस कहलाता है इसके अंतर्गत सौन्दर्य, प्रकृति, सुन्दर वन, वसंत ऋतु, पक्षियों का चहचहाना आदि के बारे में वर्णन किया जाता है।\xa0श्रृंगार रस – इसका स्थाई भाव रति\xa0हैउदाहरण -कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात,भरे भौन में करत है, नैननु ही सौ बातश्रंगार के दो भेद होते हैंसंयोग श्रृंगारजब नायक नायिका के परस्पर मिलन, स्पर्श, आलिगंन, वार्तालाप आदि का वर्णन होता है, तब संयोग शृंगार रस होता है।उदाहरण -बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नहि जाय।वियोग श्रृंगार\xa0जहाँ पर नायक-नायिका का परस्पर प्रबल प्रेम हो लेकिन मिलन न हो अर्थात् नायक – नायिका के वियोग का वर्णन हो वहाँ वियोग रस होता है।\xa0वियोग का स्थायी भाव भी ‘रति’ होता है।जैसेनिसिदिन बरसत नयन हमारे,सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥हास्य रसहास्य रस मनोरंजक है। हास्य रस नव रसों के अन्तर्गत स्वभावत: सबसे अधिक सुखात्मक रस प्रतीत होता है।\xa0हास्य रस का स्थायी भाव हास है।\xa0इसके अंतर्गत वेशभूषा, वाणी आदि कि विकृति को देखकर मन में जो प्रसन्नता का भाव उत्पन्न होता है, उससे हास की उत्पत्ति होती है इसे ही हास्य रस कहते हैं।हास्य दो प्रकार का होता है -: आत्मस्थ और परस्तआत्मस्थ हास्य केवल हास्य के विषय को देखने मात्र से उत्पन्न होता है ,जबकि परस्त हास्य दूसरों को हँसते हुए देखने से प्रकट होता है। \xa0उदाहरण -बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।\xa0किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय।नया उदाहरण-मैं ऐसा महावीर हूं,पापड़ तोड़ सकता हूँ।अगर गुस्सा आ जाए,तो कागज को मरोड़ सकता हूँ।।करुण रसइसका स्थायी भाव शोक होता है।\xa0इस रस में किसी अपने का विनाश या अपने का वियोग, द्रव्यनाश एवं प्रेमी से सदैव विछुड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुःख या वेदना उत्पन्न होती है उसे करुण रस कहते हैं ।यधपि वियोग श्रंगार रस में भी दुःख का अनुभव होता है लेकिन वहाँ पर दूर जाने वाले से पुनः मिलन कि आशा बंधी रहती है।अर्थात् जहाँ पर पुनः मिलने कि आशा समाप्त हो जाती है करुण रस कहलाता है। इसमें निःश्वास, छाती पीटना, रोना, भूमि पर गिरना आदि का भाव व्यक्त होता है।या किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से जो शोक उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है।उदाहरण -रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के।ग्लानि, त्रास, वेदना - विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके।।वीर रसजब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है।\xa0इस रस के अंतर्गत जब युद्ध अथवा कठिन कार्य को करने के लिए मन में जो उत्साह की भावना विकसित होती है उसे ही वीर रस कहते हैं। इसमें शत्रु पर विजय प्राप्त करने, यश प्राप्त करने आदि प्रकट होती है\xa0इसका स्थायी भाव उत्साह होता है।\xa0सामान्यत: रौद्र एवं वीर रसों की पहचान में कठिनाई होती है। इसका कारण यह है कि दोनों के उपादान बहुधा एक - दूसरे से मिलते-जुलते हैं। कभी-कभी रौद्रता में वीरत्व तथा वीरता में रौद्रवत का आभास मिलता है,लेकिन\xa0रौद्र रस\xa0के स्थायी भाव क्रोध तथा वीर रस के स्थायी भाव उत्साह में अन्तर स्पष्ट है।उदाहरण -बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी।खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।।आद्याचार्य\xa0भरतमुनि\xa0ने वीर रस के तीन प्रकार बताये हैं –दानवीर, धर्मवीर, युद्धवीर ।- युद्धवीरयुद्धवीर का आलम्बन शत्रु, उद्दीपन शत्रु के पराक्रम इत्यादि, अनुभाव गर्वसूचक उक्तियाँ, रोमांच इत्यादि तथा संचारी धृति, स्मृति, गर्व, तर्क इत्यादि होते हैं।- दानवीरदानवीर के आलम्बन तीर्थ, याचक, पर्व, दानपात्र इत्यादि तथा उद्दीपन अन्य दाताओं के दान, दानपात्र द्वारा की गई प्रशंसा इत्यादि होते हैं।\xa0- धर्मवीरधर्मवीर में वेद शास्त्र के वचनों एवं सिद्धान्तों पर श्रद्धा तथा विश्वास आलम्बन, उनके उपदेशों और शिक्षाओं का श्रवण-मनन इत्यादि उद्दीपन, तदनुकूल आचरण अनुभाव तथा धृति, क्षमा आदि धर्म के दस लक्षण संचारी भाव होते हैं। धर्मधारण एवं धर्माचरण के उत्साह की पुष्टि इस रस में होती है।रौद्र रसइसका स्थायी भाव क्रोध होता है।\xa0जब किसी एक पक्ष या व्यक्ति द्वारा दुसरे पक्ष या दुसरे व्यक्ति का अपमान करने अथवा अपने गुरुजन आदि कि निन्दा से जो क्रोध उत्पन्न होता है उसे रौद्र रस कहते हैं।इसमें क्रोध के कारण मुख लाल हो जाना, दाँत पिसना, शास्त्र चलाना, भौहे चढ़ाना आदि के भाव उत्पन्न होते हैं।काव्यगत रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स, इन चार रसों को ही प्रधान माना है, अत: इन्हीं से अन्य रसों की उत्पत्ति बतायी है।\xa0उदाहरण -श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥\xa0अद्भुत रसजब ब्यक्ति के मन में विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर जो विस्मय आदि के भाव उत्पन्न होते हैं उसे ही अदभुत रस कहा जाता है इसके अन्दर रोमांच, औंसू आना, काँपना, गद्गद होना, आँखे फाड़कर देखना आदि के भाव व्यक्त होते हैं।\xa0इसका स्थायी भाव आश्चर्य होता है।उदाहरण -देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया।क्षणभर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया॥\xa0भयानक रसजब किसी भयानक या बुरे व्यक्ति या वस्तु को देखने या उससे सम्बंधित वर्णन करने या किसी दुःखद घटना का स्मरण करने से मन में जो व्याकुलता अर्थात परेशानी उत्पन्न होती है उसे भय कहते हैं उस भय के उत्पन्न होने से जिस रस कि उत्पत्ति होती है उसे भयानक रस कहते हैं इसके अंतर्गत कम्पन, पसीना छूटना, मुँह सूखना, चिन्ता आदि के भाव उत्पन्न होते हैं।\xa0इसका स्थायी भाव भय होता है।उदाहरण -अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलाते कंकाल॥\xa0कचो के चिकने काले, व्याल, केंचुली, काँस, सिबार ॥\xa0\xa0उदाहरण -एक ओर अजगर हिं लखि, एक ओर मृगराय॥\xa0विकल बटोही बीच ही, पद्यो मूर्च्छा खाय॥\xa0भयानक रस के दो भेद हैं-\t\tस्वनिष्ठ\t\t\tपरनिष्ठ\t\xa0स्वनिष्ठ भयानक वहाँ होता है, जहाँ भय का आलम्बन स्वयं आश्रय में रहता है और परनिष्ठ भयानक वहाँ होता है, जहाँ भय का आलम्बन आश्रय में वर्तमान न होकर उससे बाहर, पृथक् होता है, अर्थात् आश्रय स्वयं अपने किये अपराध से ही डरता है।\xa0बीभत्स रसइसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है ।\xa0घृणित वस्तुओं, घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके संबंध में विचार करके या उनके सम्बन्ध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि ही वीभत्स रस कि पुष्टि करती है दुसरे शब्दों में वीभत्स रस के लिए घृणा और जुगुप्सा का होना आवश्यक होता है।वीभत्स रस\xa0काव्य में मान्य नव रसों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसकी स्थिति दु:खात्मक रसों में मानी जाती है।\xa0इसके परिणामस्वरूप घृणा, जुगुप्सा उत्पन्न होती है।इस दृष्टि से करुण, भयानक तथा रौद्र, ये तीन रस इसके सहयोगी या सहचर सिद्ध होते हैं। शान्त रस से भी इसकी निकटता मान्य है, क्योंकि बहुधा बीभत्सता का दर्शन वैराग्य की प्रेरणा देता है और अन्तत: शान्त रस के स्थायी भाव शम का पोषण करता है।साहित्य रचना में इस रस का प्रयोग बहुत कम ही होता है।\xa0तुलसीदास\xa0ने\xa0रामचरित मानस\xa0के\xa0लंकाकांड\xa0में युद्ध के दृश्यों में कई जगह इस रस का प्रयोग किया है।\xa0उदाहरण- मेघनाथ माया के प्रयोग से वानर सेना को डराने के लिए कई वीभत्स कृत्य करने लगता है, जिसका वर्णन करते हुए\xa0तुलसीदास जी लिखते है-\'विष्टा पूय रुधिर कच हाडाबरषइ कबहुं उपल बहु छाडा\'(वह कभी विष्ठा, खून, बाल और हड्डियां बरसाता था और कभी बहुत सारे पत्थर फेंकने लगता था।)उदाहरण -आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जातेशव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खातेभोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटेखा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटेशान्त रसमोक्ष और आध्यात्म की भावना से जिस रस की उत्पत्ति होती है, उसको शान्त रस नाम देना सम्भाव्य है। इस रस में तत्व ज्ञान कि प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर, परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होने पर मन को जो शान्ति मिलती है। वहाँ शान्त रस कि उत्पत्ति होती है जहाँ न दुःख होता है, न द्वेष होता है। मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है शान्त रस कहा जाता है।\xa0इसका स्थायी भाव निर्वेद (उदासीनता) होता है।शान्त रस साहित्य में प्रसिद्ध नौ रसों में अन्तिम रस माना जाता है - "शान्तोऽपि नवमो रस:।"\xa0इसका कारण यह है कि भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में, जो रस विवेचन का आदि स्रोत है, नाट्य रसों के रूप में केवल आठ रसों का ही वर्णन मिलता है।उदाहरण -जब मै था तब हरि नाहिं अब हरि है मै नाहिंसब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिंवत्सल रसइसका स्थायी भाव वात्सल्यता (अनुराग) होता है।\xa0माता का पुत्र के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्य के प्रति प्रेम, बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति प्रेम आदि का भाव स्नेह कहलाता है यही स्नेह का भाव परिपुष्ट होकर वात्सल्य रस कहलाता है।उदाहरण -बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि पुनि नन्द बुलवातिअंचरा-तर लै ढ़ाकी सूर, प्रभु कौ दूध पियावतिभक्ति रसइसका स्थायी भाव देव रति है।\xa0इस रस में ईश्वर कि अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है अर्थात इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन किया जाता है।उदाहरण -अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोईमीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई


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