| Answer» डॉ० गंगासहाय प्रेमी के सूत-पुत्र’ नाटक का नायक कर्ण है। कर्ण के महान् चरित्र को प्रस्तुत कर उसकी महानता का सन्देश देना ही नाटककार का अभीष्ट है। कर्ण का जन्म कुन्ती द्वारा कौमार्य अवस्था में किये गये सूर्यदेव के आह्वान का परिणाम था। लोकलाज के भय से उसने कर्ण को एक घड़े में रखकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। वहीं से कर्ण सूत-पत्नी राधा को मिला तथा राधा ने ही उसका पालन-पोषण किया। राधा द्वारा पालन-पोषण किये जाने के कारण कर्ण ‘राधेय’ या ‘सूत-पुत्र’ कहलाया। असवर्ण परिवार में पालन-पोषण होने के कारण उसे पग-पग पर अपमान सहना पड़ा। अन्यायी और दुराचारी दुर्योधन की मित्रता भी उसकी असफलता का कारण बनी; क्योंकि मित्रता निभाने के लिए उसे अन्याय में भी उसका साथ देना पड़ा और अन्याय की अन्त में पराजय होती है तथा अन्यायी का साथ देने वाला भी बच नहीं पाता। कर्ण वीर, साहसी, दानवीर, क्षमाशील, उदार, बलशाली तथा सुन्दर था। यह सब होते हुए भी पग-पग पर अपमानित होने के कारण वह आजीवन तिल-तिल कर जलता रहा। उसका जीवन फूलों की शय्या नहीं, वरन् काँटों का बिछौना ही रहा। कर्ण का चरित्र-चित्रण कर्ण के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ थीं–(1) सुन्दर आकर्षक युवक-नाटककार ने कर्ण के रूप के विषय में लिखा है-“कर्ण तीसपैंतीस वर्ष का हृष्ट-पुष्ट सुदर्शन युवा है। उसका शरीर लम्बा-छरहरा किन्तु भरा हुआ, रंग उज्ज्वल, गोरा, नाक ऊँची, नुकीली और आँखें बड़ी-बड़ी हैं।” इस प्रकार कर्ण एक सुन्दर आकर्षक युवक है।
 (2) तेजस्वी तथा प्रतिभाशाली–कर्ण का व्यक्तित्व प्रतिभाशाली है। वह अपने पिता सूर्य के समान तेजस्वी है। कर्ण ऐसा पहला व्यक्ति है, जिसके तेजस्वी रूप से दुर्योधन जैसा अभिमानी व्यक्ति भी प्रभावित हुआ। द्रौपदी-स्वयंवर में कर्ण को पहली बार देखकर ही दुर्योधन उससे प्रभावित होता है और अपना मित्र बनाने के लिए वह उसे अंगदेश का अधिपति बना देता है।
 (3) सच्चा गुरुभक्त-कर्ण गुरुभक्त शिष्य है। गुरु परशुराम उसकी जंघा पर सिर रखकर सोते हैं, तभी एक कीड़ा उसकी जंघा को काटने लगता है। कीड़े के काटने पर उसकी जंघा से रक्तस्राव होता रहा, परन्तु कष्ट सहकर भी वह गुरु-निद्रा भंग नहीं होने देता। गुरु उसे शाप देते हैं, परन्तु वह किसी से कभी भी उनकी निन्दा नहीं सुन सकता- ‘मेरे गुरु की निन्दा में आपने अब यदि एक भी शब्द कहा तो यह स्वयंवर-मण्डप युद्धस्थल में बदल जाएगा।” गुरु में कर्ण की अटूट श्रद्धा और भक्ति है। कर्ण की गुरु-भक्ति की प्रशंसा स्वयं गुरु परशुराम भी करते हैं-”विद्याभ्यास के प्रति तुम्हारी तन्मयता से मैं सदा प्रभावित रहा हूँ। मेरे लिए तुम प्राण भी दे सकते हो।”
 (4) धनुर्विद्या में प्रवीण-कर्ण ने धनुष चलाने की शिक्षा परशुराम जी से प्राप्त की। कर्ण अपने समय का सर्वश्रेष्ठ बाण चलाने वाला है। अनुपम धनुर्धारी अर्जुन भी उसे पराजित करने में समर्थ नहीं होता। साधारण योद्धाओं से युद्ध करना तो कर्ण अपनी शान के विरुद्ध समझता है।।
 (5) नारी के प्रति श्रद्धाभाव-कर्ण के प्रति सबसे बड़ा अन्याय स्वयं नारीस्वरूपा उसकी माँ ने किया है, परन्तु फिर भी वह नारी के प्रति श्रद्धाभाव रखता है-“नारी विधाता का वरदान है। नारी सभ्यता, संस्कृति की प्रेरणा है। नारी का अपहरण कभी भी सह्य नहीं हो सकता।”
 (6) दानवीर-कर्ण के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता उसकी दानवीरता है। उसके सामने से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता। अपनी रक्षा के अमोघ साधन कवच और कुण्डल भी वह इन्द्र के माँगने पर दान कर देता है। इस सम्बन्ध में अपने पिता सूर्य की सलाह भी वह नहीं मानता। वह इन्द्र से कहता है“मुझे जितना कष्ट हो रहा है, उससे कई गुना सुख भी मिल रहा है।”
 (7) विश्वासपात्र मित्र-वह एक सच्चा मित्र है। दुर्योधन कर्ण को अपना मित्र बनाता है और कर्ण जीवन भर उसकी मित्रता का निर्वाह करता है। कुन्ती के कहने पर भी वह दुर्योधन से मित्रता के बन्धनों को तोड़कर विश्वासघाती नहीं बनना चाहता।
 (8) प्रबल नैतिकता–कर्ण उच्च कोटि के संस्कारों से युक्त है, अत: वह नैतिकता को अपने जीवन में विशेष महत्त्व प्रदान करता है। द्रौपदी के अपहरण की बात पर वह दुर्योधन से कहता है-“दूसरे अनुचित करते हैं इसलिए हम भी अनुचित करें, यह नीति नहीं है। किसी की पत्नी का अपहरण परम्परा से निन्दनीय है।’
 कुन्ती ने जब कर्ण से उसके जन्म की वास्तविकता बतायी और उसे अपने भाइयों के पास आ जाने के लिए कहा, तब भी कर्ण ने दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ा। कर्ण का यह कार्य नैतिकता से परिपूर्ण है। किसी व्यक्ति को आश्वासन देकर बीच में छोड़ना नैतिकता नहीं है। यदि भीष्म पितामह और कर्ण के व्यवहार को इस कसौटी पर परखें तो कर्ण को ही उत्तम कहना पड़ेगा। भीष्म पितामह जहाँ परिस्थितियाँ न बदलने पर भी बदल गये वहाँ कर्ण परिस्थितियाँ बदलने पर भी नहीं बदला। कुन्ती ने कर्ण को ममता में फाँसने के साथ-साथ राज्य प्राप्ति का लालच भी दिया था, पर कर्ण सभी आकर्षणों से अप्रभावित रहा। जब कुन्ती ने बार-बार मातृत्व की दुहाई दी तो उसने युद्धस्थल में अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी भी पाण्डव का वध न करने की शपथ ली।
 जन्म एवं पालन-पोषण सम्बन्धी अपवाद के कारण कर्ण को चाहे जो कह लिया जाए, वैसे उसके चरित्र में कहीं भी कोई भी कालिमा नहीं है। कर्ण स्वनिर्मित व्यक्ति था। उसने किसी को न कभी धोखा दिया और न अकारण किसी से बैर-विरोध मोल लिया। ‘महाभारत के सभी पात्रों पर कुछ-न-कुछ लांछन लगा हुआ है, पर कर्ण इस दृष्टि से सभी प्रकार से उज्ज्वल है। उसने जीवन में केवल एक बार झूठ बोला और वह भी धनुर्विद्या सीखने के लिए। किसी को धोखा देने अथवा हानि पहुँचाने वाले असत्य भाषण से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। इन सबके अतिरिक्त कर्ण सच्चा मित्र, अद्वितीय दानी, निर्भीक, दृढ़प्रतिज्ञ तथा महान् योद्धा है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्ण उदात्त स्वभाव वाला धीर-वीर नायक है। |