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सूत-पुत्र’ नाटक के नायक कर्ण के अन्तर्द्वन्द्व पर प्रकाश डालिए।या‘सूत-पुत्र’ नाटक के आधार पर कर्ण की व्यथा-कथा का सारांश लिखिए।

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डॉ० गंगासहाय प्रेमी कृत ‘सूत-पुत्र’ नाटक के नायक कर्ण का मानसिक अन्तर्द्वन्द्व कई स्थानों पर उसके संवादों के माध्यम से प्रकट होता है। प्रथम चरण में वह अपने गुरु परशुराम के सामने इस द्वन्द्व को प्रकट करता है। वह जानना चाहता है कि क्या उसकी अयोग्यता मात्र इसलिए है कि वह किसी विशेष जाति से सम्बन्धित है। दूसरी बार द्रौपदी स्वयंवर में वह द्रुपद-नरेश से इस प्रश्न का उत्तर चाहता है। वह उनसे पूछता है कि जब स्वयंवर में योग्यता का निर्धारण धनुर्विद्या की कसौटी पर किया जाना है तो कुल-शील, जाति अथवा वर्ण सम्बन्धी प्रतिबन्धों का क्या औचित्य है ? उसका यही अन्तर्द्वन्द्व इन्द्र, सूर्य एवं कुन्ती के समक्ष भी प्रकट होता है। वह सामाजिक मान्यताओं एवं व्यवस्थाओं की विसंगतियों के उत्तर चाहता है। वह प्रत्येक को अपनी विचारात्मक तर्कशक्ति के आधार पर इन विसंगतियों के प्रति सहमत कर लेता है, किन्तु उसे क्षोभ इस बात का है कि सभी अपनी विवशता प्रकट करते हुए इस लक्ष्मण-रेखा.का अतिक्रमण करने से डरते हैं। कर्ण की व्यथा प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के अन्तर्मन को गहराई से झकझोर देती है। नाटककार ने कर्ण के अन्तर्मन में उत्पन्न इन प्रश्नों के माध्यम से वर्तमान समय के जाति-वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी रूढ़ियों से ग्रस्त भारतीय समाज के विचारों पर चोट की है। कर्ण के प्रति हुए अन्याय की मूल समस्या अनेक महापुरुषों द्वारा प्रयास किये जाने के बाद भी हमारे देश में आज तक समाधान नहीं पा सकी है।



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