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101.

भारत में कृषि वित्त के वर्तमान स्रोतों की चर्चा कीजिए।

Answer»

भारत में कृषि वित्त के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं

1. ग्रामीण, साहूकार व महाजन- ये प्रायः सम्पन्न किसान तथा भूमिपति होते हैं। ये कृषि के साथ-साथ लेन-देन का भी कार्य करते हैं। ये लोग कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए भी पैसा उधार देते हैं।
2. देशी बैंकर- देशी बैंकर दो प्रकार के कार्य करते हैं-बैंकिंग कार्य तथा गैर-बैंकिंग कार्य। बैंकिंग कार्यों में निक्षेपों को स्वीकार करना, ऋण देना तथा हुण्डियों में व्यवसाय सम्मिलित होता है। ये , ऋणों पर-ऊँची ब्याज दर लेते हैं।
3. सरकार- कृषि-वित्त की आवश्यकताओं को देखते हुए सरकार ने अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण की व्यवस्था की है। ये ऋण ‘तकावी ऋण’ कहे जाते हैं। सरकार भू-सुधार ऋण अधिनियम, 1883 के अनतर्गत दीर्घकालीन ऋण तथा कृषक ऋण अधिनियम, 1884 के अधीन अल्पकालीन ऋण प्रदान करती है। दीर्घकालीन ऋण भूमि पर स्थायी सुधार के उद्देश्य से प्रदान किए जाते हैं, जबकि अल्पकालीन ऋण कृषि सम्बन्धी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति अथवा अकाल, बाढ़ या अन्य किसी कारण से फसल नष्ट होने पर दिए जाते हैं। सरकार इन ऋणों पर बहुत कम ब्याज लेती है। परन्तु फिर भी ये ऋण अधिक प्रभावशाली तथा लोकप्रिय नहीं हैं।
4. सहकारी समिति- इन समितियों का उद्देश्य कृषि विकास के लिए कम ब्याज की दर पर पर्याप्त साख सुविधाएँ प्रदान करना है। ये समितियाँ अल्पकालीन तथा मध्यकालीन ऋणों के अतिरिक्त अनुत्पादक ऋण भी प्रदान करती हैं। ऋण प्रदान करने के अतिरिक्त इन समितियों का । उद्देश्य किसानों में बचत आन्दोलन को प्रोत्साहित करना एवं उनका मानसिक व नैतिक उत्थान करना भी है।
5. व्यापारिक बैंक-  राष्ट्रीयकरण के बाद कृषि साख के क्षेत्र में व्यापारिक बैंकों का योगदान निरन्तर बढ़ा है। ये बैंक कृषि विस्तार के लिए अल्पकालीन एवं मध्यकालीन ऋण प्रदान करते हैं।
6. भारतीय स्टेट बैंक-  स्टेट बैंक तथा उसके सहायक बैंक सहकारी संस्थाओं के माध्यम से कृषि क्षेत्र को उदारता के साथ साख प्रदान कर रहे हैं। कृषि साख के क्षेत्र में स्टेट बैंक निम्नलिखित प्रकार से योगदान करता है
⦁    प्रत्यक्ष उधार- फसल के बोने से लेकर काटने तक, सँवारने तथा सुरक्षित रखने और बिक्री करने आदि सभी कार्यों के लिए स्टेट बैंक धन की व्यवस्था करता है। इसके अतिरिक्त पशुपालन, डेयरी व्यवसाय, मुर्गी पालन तथा फलोत्पादन के लिए स्टेट बैंक परिवार ऋण प्रदान करता है।

⦁    परोक्ष उधार-रासायनिक खाद, बीज, जन्तुनाशक तत्त्व, पम्पिंग सैट तथा ट्रैक्टर के लिए भी स्टेट बैंक ऋण प्रदान करता है।
7. भूमि बन्धक अथवा भूमि विकास बैंक-ये बैंक भूमि की जमानत पर किसानों को दीर्घकालीन ऋण देते हैं। ये बैंक उत्पादक तथा अनुत्पादक दोनों प्रकार का ऋण प्रदान करते हैं।
8. भारतीय रिजर्व बैंक- यह बैंक किसानों को प्रत्यक्ष रूप से सात प्रदान न करके सहकारी बैंकों के माध्यम से साख प्रदान करता है। रिजर्व बैंक अल्पकालीन साख या तो पुनर्कटौती के रूप में अथवा अग्रिमों के रूप में प्रदान करता है। रिजर्व बैंक दीर्घकालीन ऋण भी प्रदान करता है। ये ऋण राज्य सरकारों को दिए जाते हैं, जिससे वे सहकारी साख संस्थाओं के शेयर क्रय कर सकें। इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक केन्द्रीय भूमि बन्धक बैंकों के ऋण-पत्र भी खरीद सकता है।
9. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक- ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों के छोटे किसानों, सामान्य कारीगरों तथा भूमिहीन श्रमिकों की साख सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। ये कृषकों को उपकरण, यन्त्र और पशु खरीदने तथा गोबर गैस संयन्त्र लगाने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं।
10. कृषि व ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD)-12 जुलाई, 1982 ई० से कृषि
एवं ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय बैंक (NABARD) की स्थापना की गई, जो कृषि के लिए निम्नलिखित प्रकार से साख की व्यवस्था करेगा

⦁    यह 18 महीने तक की अवधि के लिए अल्पकालीन साख राज्य सहकारी बैंकों, प्रादेशिक ग्रामीण बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थाओं को प्रदान करेगा, ताकि उसका उपयोग कृषि कार्यों के विशिष्ट उत्पादन व बिक्री क्रियाओं के लिए किया जा सके।

⦁    18 महीने से 7 वर्ष के लिए मध्यकालीन ऋण राज्य सहकारी बैंकों व प्रादेशिक ग्रामीण बैंकों को कृषि विकास व इनके द्वारा निर्धारित अन्य कार्यों के लिए दिए जाएँगे।

⦁    पुनर्वित के रूप में दीर्घकालीन ऋण भूमि विकास बैंकों, प्रादेशिक ग्रामीण बैंकों, अनुसूचित बैंकों, राज्य सहकारी बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थाओं को कृषिगत व ग्रामीण विकास के लिए दिए जाएँगे।

⦁    यह राज्य सरकारों को 20 वर्ष तक के लिए ऋण दे सकेगी, ताकि वे प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सहकारी साख समितियों की शेयर पूँजी में हिस्सा ले सकें।

⦁    यह केन्द्रीय सरकार की स्वीकृति पर किसी भी अन्य संस्था को दीर्घकालीन ऋण दे सकेगा, ताकि कृषि व ग्रामीण विकास को प्रोत्साहन दिया जा सके।
इस बैंक को कृषि पुनर्वित्त एवं विकास निगम (ARDC) तथा राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन) कोष एवं राष्ट्रीय कृषि साख (स्थायीकरण) कोष के सभी कार्य हस्तान्तरित कर दिए गए हैं।

102.

भू-सुधार के अन्तर्गत कौन-कौन से कार्यक्रम आते हैं?

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‘भूमि-सुधार’ एक अत्यन्त व्यापक शब्द है। अत: भूमि-सुधार की दिशा में जो सर्वतोमुखी प्रगति हुई है, उसका विवेचन हम निम्नलिखित शीर्षकों में करेंगे

(अ) मध्यस्थों की समाप्ति-1. जमींदारी उन्मूलन। 2. जागीरदारी उन्मूलन।
(ब) काश्तकारी सुधार-1. लगान नियमन। 2. भू-स्वामित्व की सुरक्षा। 3. खुदकाश्त में भूमि का पुनर्ग्रहण। 4. काश्तकारों को मालिक होने का अधिकार।।
(स) जोतों का सीमा-निर्धारण-1. वर्तमान जोतों की अधिकतम सीमा। 2. भावी जोतों की अधिकतम सीमा।
(द) कृषि-पुनर्गठन–1. चकबन्दी। 2. भूमि के प्रबन्ध में सुधर। 3. सहकारी खेती। 4. भूमिहीन मजदूरों को बसाना तथा भू-दान व ग्राम-दान आदि।

103.

भारत में कृषि उपज की विक्रय व्यवस्था के दो दोष बताइए।

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कृषि उपज की विक्रय व्यवस्था के दो दोष हैं–

(1) घटिया किस्म की कृषि उपज।
(2) बहुत अधिक मध्यस्थों का होना।

104.

कृषि विपणन से क्या आशय है? भारत में कृषि विपणन की वर्तमान व्यवस्था क्या है?

Answer»

कृषि विपणन का अर्थ
कृषि विपणन की समस्या कृषि विकास की आधारभूत समस्या है। यदि कृषक को उसे उत्पादन की उचित मूल्य नहीं मिलता तो उसकी आर्थिक स्थिति कभी सुधर नहीं सकती। कृषि विपणन एक व्यापक शब्द है। इसके अन्तर्गत बहुत-सी क्रियाएँ आती हैं; जैसे—कृषि पदार्थों का एकत्रीकरण, श्रेणी विभाजन विधायन, संग्रहण, परिवहन, विपणन के लिए वित्त, पदार्थों को अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाना तथा इन सम्पूर्ण क्रियाओं में निहित जोखिम उठाना आदि। इस प्रकार विपणन के अन्तर्गत उन संमस्त क्रियाओं का समावेश किया जाता है, जिनको सम्बन्ध कृषि उत्पादन के कृषक के पास से अन्तिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाने से होता है। 

भारत में कृषि पदार्थों के विपणन की वर्तमान व्यवस्था
भारत में किसान अपनी उपज को निम्नलिखित ढंग से बेचता है-

1. गाँव में बिक्री–भारत में कृषि-उत्पादन का अधिकांश भाग प्रायः गाँव में ही बेच दिया जाता है। ग्रामीण साख सर्वेक्षण समिति इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि कुल फसल का लगभग 65% भाग उत्पत्ति के स्थान पर ही बेच दिया जाता है। इसके अतिरिक्त 15% भाग गाँव के बाजार में, 14% भाग व्यापारियों व कमीशन एजेण्टों को तथा शेष 6% अन्य पद्धतियों से बेचे जाने का अनुमान है। ग्रामीण बाजार में फसल की बिक्री मुख्यत: तीन रूपों में होती है
(क) गाँव की हाटों अथवा साप्ताहिक बाजारों में।।
(ख) गाँव के महाजन तथा साहूकारों को।
(ग) गाँव में भ्रमण करते व्यापारियों तथा कमीशन एजेण्टों को।
प्रायः गाँव में बिकने वाली फसल का किसानों को उचित मूल्य नहीं मिला पाता, परन्तु अनेक कारण किसानों को इस बात के लिए विवश कर देते हैं कि वे अपनी फसल गाँव में ही बेच दें। गाँव में फसल की बिक्री के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं-

(क) बाजार योग्य अतिरेक (Marketable Surplus) का कम होना।
(ख) यातायात व परिवहन के साधनों का अभाव।
(ग) किसानों की ऋणग्रस्तता।
(घ) गोदामों की सुविधाओं का अभाव।
(ङ) किसानों की अशिक्षा, मण्डियों में होने वाली बेईमानी तथा प्रचलित मूल्यों का ज्ञान न होना।
(च) किसानों की निर्धनता आदि।

2. मण्डियों में बिक्री- भारत में अधिकांश किसान अपनी फसल गाँवों में नहीं बेचते, वे मण्डियों में अपनी फसल बेचा करते हैं। भारत में लगभग 6,700 मण्डियाँ हैं। भारत में दो प्रकार की मण्डियाँ पायी जाती हैं–नियमित तथा अनियमित। नियमित मण्डियाँ प्रायः निजी व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा मण्डलों द्वारा संचालित होती हैं। अनयिमित मण्डियों में, जहाँ उनका प्रबन्ध निजी व्यक्तियों के हाथ में होता है, प्राय: सभी प्रकार की अनियमितताएँ होती हैं और मध्यस्थ फसल का अधिकांश भाग हड़प लेते हैं। नियमित मण्डियों में किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य मिल जाता है क्योंकि इनकी व्यवस्था राज्य सरकारों द्वारा की जाती है। केन्द्रीय विपणन निदेशालय इस सम्बन्ध में राज्यों का पथ-प्रदर्शन करता है।
3. सहकारी समितियों द्वारा बिक्री– देश में कृषि उपज की बिक्री की दृष्टि से सहकारी विपणन समितियों (Co-operative Marketing Societies) की स्थापना की गई है, जो अपने सदस्यों के कृषि उत्पादन को एकत्रित करके उसे बड़ी मण्डियों में बेचती हैं।
4. सरकार द्वारा क्रय- गत् कुछ वर्षों से सरकार भी कृषि पदार्थों का क्रय करने लगी है। सन् 1973 ई० में सरकार द्वारा गेहूँ के थोक-व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर लेने से कृषि-विपणन में सरकारी एजेन्सियों का महत्त्व बढ़ गया है।

105.

भारत में साहूकारों की कृषि-वित्त व्यवस्था के दोष बताइए।

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भारत में साहूकारों की कृषि-वित्त व्यवस्था के दोष निम्नलिखित रहे हैं

⦁    साहूकार की कार्य-पद्धति लोचदार होती है और वह समय, परिस्थिति तथा व्यक्ति के अनुसार उनमें परिवर्तन करता रहता है।

⦁    साहूकार अपने ऋणों पर ब्याज की ऊँची दर वसूल करता है।

⦁    साहूकार मूलधन देते समय ही पूरे वर्ष का ब्याज अग्रिम रूप में काट लेते हैं और इसकी कोई रसीद नहीं देते हैं।

⦁    अनेक साहूकार कोरे कागजों पर हस्ताक्षर या अँगूठे की निशानी ले लेते हैं और बाद में उन अधिक रकम भर लेते हैं।
⦁    बहुत-से स्थानों पर ऋण देते समय ऋण की रकम में से अनेक प्रकार के खर्च काट लेते हैं। कभी-कभी यह रकम 5% से 10% तक हो जाती है।
⦁    साहूकार कृषकों को अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋण देकर उन्हें फिजूलखर्ची बना देते हैं।
⦁    साहूकार समय-समय पर हिसाब-किताब में भी गड़बड़ करता रहता है।
⦁    साहूकार कृषकों को ऋण देने के बाद उन्हें अपनी फसल कम कीमत पर बेचने के लिए विवश करते हैं।

106.

एक सुव्यवस्थित कृषि विपणन पद्धति की विशेषताएँ बताइए।

Answer»

एक सुव्यवस्थित कृषि विपणन पद्धति में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए

⦁    मध्यस्थों की संख्या न्यूनतम होनी चाहिए।

⦁    कृषि और कृषि उपज के विक्रेता दोनों के हितों की सुरक्षा होनी चाहिए।

⦁    सस्ती व उत्तम परिवहन की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे माल मण्डियों तक आसानी से तथा कम लागते पर ले जाया जा सके।
⦁    कृषकों के पास ब्याज सम्बन्धी सूचनाएँ उचित समय पर उपलब्ध होनी चाहिए।
⦁    भण्डार-गृहों की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए।
⦁    कृषकों को उचित मूल्य प्राप्त होने तक कृषि-पदार्थों को अपने पास रखने की क्षमता होनी चाहिए।
⦁    कृषि उपज की विभिन्न किस्मों के मूल्य में अन्तर होना चाहिए।

107.

सुव्यवस्थित कृषि विपणन की दो विशेषताएँ बताइए।

Answer»

सुव्यवस्थित कृषि विपणन की दो विशेषताएँ हैं-

(1) मध्यस्थों की संख्या न्यूनतम होना तथा
(2) भण्डार-गृहों की पर्याप्त व्यवस्था होना।

108.

भारतीय कृषि की दो विशेषताएँ बताइए।

Answer»

(1) भारत में कृषि उत्पादकता अन्य देशों क तुलना में कम है।
(2) कार्यशील जनसंख्या का लगभग 67.2% भाग कृषि से आजीविका प्राप्त करता है।

109.

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व बताइए।

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भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

⦁    भारतीय कृषि राष्ट्रीय आय का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।।

⦁    सम्पूर्ण जनसंख्या का लगभग 67% भाग अपनी आजीविका कृषि से ही प्राप्त करता है।

⦁    देश के कुल भू-क्षेत्र के लगभग 49.8% भाग में खेती की जाती है।

⦁    कृषि देश की 121 करोड़ जनसंख्या को भोजन तथा 36 करोड़ पशुओं को चारा प्रदान करती है।

⦁    देश के महत्त्वपूर्ण उद्योग कच्चे माल के लिए कृषि पर ही आश्रित हैं।

⦁    चाय, जूट, लाख, शक्कर, ऊन, रुई, मसाले, तिलहन आदि के निर्यात से देश को पर्याप्त विदेशी | मुद्रा प्राप्त होती है। ”

⦁    कृषि देश के आन्तरिक व्यापार का प्रमुख आधार है।

⦁    कृषि एवं कृषि वस्तुएँ केन्द्र एवं राज्य सरकारों को राजस्व उपलब्ध कराती हैं।

⦁    कृषि उत्पादन यातायात को पर्याप्त मात्रा में प्रभावित करता है।

110.

भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों का महत्त्व बताइए।

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भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

⦁    इन उद्योगों में लगभग 2.25 करोड़ लोग रोजगार में लगे हैं।
⦁    ये उद्योग आय व सम्पत्ति के सम वितरण में सहायक हैं।
⦁    श्रमप्रधान उद्योगों के कारण कर्म पूँजी से भी इनका संचालन सम्भव है।
⦁    लघु एवं कुटीर उद्योगों में ही कृषि में लगे अतिरिक्त श्रम को स्थानान्तरित किया जा सकता है।

⦁    ये उद्योग विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना करते हैं जो आज के युग की माँग है।

⦁    इन उद्योगों को उपभोक्ताओं की रुचि के अनुसार समायोजित किया जा सकता है।

⦁    ये उद्योग औद्योगिक अशान्ति, हड़ताल, तालाबन्दी आदि से मुक्त रहते हैं और सहानुभूति, समानता, सहकारिता, एकता तथा सहयोग की भावना को जन्म देते हैं।

⦁    ये उद्योग विदेशी विनिमय अर्जित करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए हैं।

⦁    इन उद्योगों को चलाने के लिए विशेष शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। 10. कुटीर तथा लघु उद्योगों का माल अधिक टिकाऊ तथा कलात्मक होता है।

111.

लघु एवं कुटीर उद्योग को परिभाषित कीजिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में इन उद्योगों के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।या भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु एवं कुटीर उद्योगों के महत्त्व को दर्शाइए।

Answer»

लघु तथा कुटीर उद्योग विकेन्द्रित आर्थिक प्रगति के द्योतक माने जाते हैं। मॉरिस फ्रीडमैन ने कुटीर एवं लघु उद्योगों के दर्शन (Philosophy) की व्याख्या करते हुए लिखा है-“जहाँ विशाल उद्योगों का उद्देश्य लाभ कमाना और उनका आधार पूँजी है, वहाँ कुटीर एवं लघु उद्योगों का उद्देश्य जीवन की समृद्धि और उनका आधार धन न होकर स्वयं मनुष्य है। विशाल उद्योग पूँजी की सेवा करते हैं और लघु उद्योग । मानवता की।”

कुटीर उद्योग की परिभाषा
राजकोषीय आयोग 1949-50 ने कुटीर उद्योगों को इस प्रकार परिभाषित किया है-“एक कुटीर उद्योग वह (उद्दा: । जो कि पूर्णतः अथवा अंशतः श्रमिक के परिवार की सहायता से पूर्णकालीन अथवा अल्पकालीन व्यबसाय के रूप में चलाया जाता है।” कुटीर उद्योगों में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं
⦁    कुटीर उद्योग मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों से सम्बद्ध होते हैं।

⦁     ये कृषि व्यवसाय से सम्बद्ध होते हैं।

⦁     इनमें अधिकांश कार्य मानवीय श्रम द्वारा किए जाते हैं।

⦁    इन उद्योगों में मुख्यत: परिवार के सदस्य ही कार्यरत रहते हैं।

लघु उद्योग की परिभाषा ।
जहाँ तक लघु उद्योग का प्रश्न है, लघु उद्योगों की परिभाषा विभिन्न दृष्टिकोणों से की गई है। राजकोषीय आयोग (Fiscal Commission), 1949-50 ने लघु उद्योगों को इस प्रकार परिभाषित किया है-“एक लघु उद्योग वह है, जो मुख्यत: किराए के श्रमिकों द्वारा, जिनकी संख्या 10 से 50 तक के मध्य होती है, चलाया जाता है।” लघु उद्योग मण्डल के अनुसार-“वे सभी उद्योग लघु उद्योग में शामिल किए जाते हैं, जिनमें यदि शक्ति का प्रयोग होता है, तब 50 श्रमिक और जब शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाता है, तब 100 श्रमिक तक मजदूरी पर रखे जाते हैं तथा जिनमें १ 3 लाख से कम की पूँजी लगी होती है।” उपर्युक्त परिभाषा में श्रमिकों की संख्या तथा पूँजी की मात्रा को परिभाषा का आधार बनाया गया था, परन्तु भारत सरकार ने केन्द्रीय लघु स्तरीय उद्योग बोर्ड (Central Small Scale Industries Board) के सुझावों को स्वीकार करके लघु उद्योगों की एक नवीन परिभाषा दी है, जिसमें श्रम तथा यन्त्रीकरण को आधार न मानकर मशीन तथा संयन्त्रों (Plant and Machinery) में किए गए विनियोग को ही आधार मना है। 1 मार्च, 1967 से उन सभी औद्योगिक इकाइयों को लघु इकाई माना गया है। जिनमें मशीनों तथा संयन्त्रों पर है 7.5 लाख से कम पूँजी लगाई गई हो। वर्ष 1999 में यह राशि १ 1 करोड़ और 2014 में यह राशि के 5 करोड़ है। इस परिभाषा में नियोजित श्रमिकों की संख्या पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर तथा लघु उद्योगों का महत्त्व
इस तथ्य को आज भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि 67 वर्षों (स्वतन्त्रता के उपरान्त) से वृहत् स्तर के उद्योगों के विस्तार के बावजूद भारत अभी तक मुख्य रूप से लघु तथा कुटीर उद्योगों का देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर तथा लघु उद्योगों का विशिष्ट महत्त्व देखते हुए ही महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, योजना आयोग तथा अन्य विभिन्न आयोगों ने एक स्वर से इनके विकास पर बल दिया। गांधी जी के शब्दों में, भारत का मोक्ष उसके कुटीर उद्योगों में निहित है।” संक्षेप में, निम्नलिखित तथ्यों से कुटीर तथा लघु उद्योगों का महत्त्व स्वयमेव ही स्पष्ट हो जाता है

1. रोजगार के स्रोत– भारत में इन उद्योग-धन्धों से लगभग 2.25 करोड़ लोगों को रोजगार प्राप्त | होता है। अकेले हथकरघाउद्योग से ही 75 लाख व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त होता है।
2. आय व सम्पत्ति के सम वितरण में सहायक– कुटीर तथा लघु उद्योग पूँजी-प्रधान नहीं होते, जिससे पूँजी के संकेन्द्रण, आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण तथा आर्थिक शोषण की प्रवृत्तियाँ उभर नहीं पातीं। इसके विपरीत, देश में स्वतः ही आय और सम्पत्ति के समान वितरण को प्रोत्साहन मिलता है।
3. अल्प पूँजी उद्योग- कुटीर तथा लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था में इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि ये उद्योग श्रम-प्रधान (Labour Intensive) उद्योग हैं, पूँजी-प्रधान नहीं। कम पूँजी से ही इन उद्योगों की स्थापना हो जाती है।
4. कृषि में सहायक- भारत में कृषि की अल्प उत्पादकता का एक मूल कारण कृषि-भूमि पर जनसंख्या का अत्यधिक दबाव है, जिसके कारण खेतों में उत्पादन अनार्थिक होता चला जा रहा है।अत: कृषि-विकास के लिए यह आवश्यक है कि वहाँ से अतिरिक्त मानव-श्रम को हटाया जाए। यह कार्य लघु तथा कुटीर उद्योगों द्वारा ही सम्भव है। अतः देश में उद्योगों का विकास होना आवश्यक है।
5. विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति- बड़े उद्योगों में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है, जबकि इसके विपरीत, लघु तथा कुटीर उद्योग विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना करते हैं। आज के युग में विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का विशेष महत्त्व है।
6. कम सामाजिक लागत पर आर्थिक विकास– सामाजिक लागत से हमारा आशय उस व्यय से है, जो उत्पादन प्राप्त करने के लिए शेष समाज को करना पड़ता है। नगरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य, जल, आवास तथा अन्य सुविधाओं पर किया जाने वाला व्यय इस मद के अन्तर्गत आता है। लघु तथा कुटीर उद्योग मुख्यत: गाँवों तथा छोटे नगरों में स्थापित किए जाते हैं। अत: इनकी सामाजिक लागत कम आती है।
7. अन्य लाभ-
⦁     ये उद्योग राष्ट्रीय आत्म-सम्मान के सर्वथा अनुकूल हैं क्योंकि इनमें प्रायः विदेशी पूँजी, श्रम अथवा कौशल आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती।

⦁    इन उद्योगों को उपभोक्ताओं की रुचि के अनुसार समायोजित किया जा सकता है।

⦁    ये उद्योग औद्योगिक अशान्ति, हड़ताल, तालाबन्दी आदि से मुक्त रहते हैं और सहानुभूति, समानता, सहकारिता, एकता तथा सहयोग की भावना को जन्म देते हैं।

⦁    ये उद्योग विदेशी विनिमय अर्जित करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए हैं।

⦁    इन उद्योगों को चलाने के लिए विशेष शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती।

⦁    कुटीर तथा लघु उद्योगों का माल अधिक टिकाऊ तथा कलात्मक होता है।

⦁    ये उद्योग बड़े पैमाने के पूरक उद्योगों के रूप में विशेष उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

⦁    ये उद्योग कृषकों के लिए वरदान हैं क्योंकि ये उन्हें मौसमी रोजगार प्रदान करते हैं।

⦁    इन उद्योगों में बड़े उद्योगों की अपेक्षा कहीं अधिक स्थिरता तथा सुरक्षा पायी जाती है।

⦁    मानवीय मूल्यों की दृष्टि से भी इन उद्योगों का विशेष महत्त्व है। ये उद्योग सामाजिक न्याय
तथा आर्थिक सन्तोष के साथ-साथ समाज में अनुशासन बनाए रखते हैं। श्री बैकुण्ठ मेहता का मत है-“बाल-अपराध तथा दरिद्रता आदि के उन्मूलन के लिए लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।