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1.

लोकसभा और राज्यसभा के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता कौन करता है?(क) राष्ट्रपति(ख) प्रधानमंत्री(ग) उपराष्ट्रपति(घ) लोकसभा का अध्यक्ष

Answer»

सही विकल्प है (घ) लोकसभा का अध्यक्ष।

2.

नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए।(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सकें।

Answer»

(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। जब भी सदन की बैठक 4 घण्टे से कम चले तो सदस्यों को उस दिन का भत्ता न दिया जाए। सांसद को बिना काम-काज के भत्ता दिया जाना उचित नहीं है, यह आम-आदमी की जेब पर डाका है। यदि संसद अपेक्षाकृत अधिक समय तक काम करेगी तो देश के विकास कार्य नियत समय पर पूर्ण हो सकेंगे।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। अधिकांश सांसद सदन से अनुपस्थित रहते हैं जिससे सदन में महत्त्वपूर्ण विषयों पर आवश्यक विचार-विमर्श नहीं हो पाता। इसलिए ऐसा नियम बनाया जाए कि संसद के सदस्य सदन में अनिवार्य रूप से उपस्थित हों।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सके-हमें इससे पूर्ण सहमत हैं। ऐसा होने पर सदन में जो सदस्य उद्दण्डता का व्यवहार करते हैं उन पर अंकुश लगेगा और सदन की कार्यवाही निर्बाध रूप से चलती रहेगी।

3.

लोकसभा का कार्यकाल कितना है?

Answer»

सामान्यतया लोकसभा का कार्यकाले 5 वर्ष होता है। संकटकाल में इस अवधि को संसद एक वर्ष के लिए बढ़ा भी संकती है तथा प्रधानमंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति इसे निर्धारित अवधि से पूर्व भंग भी कर सकता है।

4.

राज्यसभा में वर्तमान में कितने सदस्य हैं?

Answer»

राज्यसभा में वर्तमान में 245 सदस्य हैं।

5.

राज्यसभा का अध्यक्ष अथवा सभापति कौन होता है?

Answer»

राज्यसभा का अध्यक्ष अथवा सभापति भारत का उपराष्ट्रपति होता है। उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करती है।

6.

राज्यसभा का कार्यकाल कितने वर्ष का होता है?

Answer»

राज्यसभा एक स्थायी संगठन है। इसके सदस्यों की पदावधि 6 वर्ष है और इसके एक-तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष पश्चात् पदमुक्त होते रहते हैं।

7.

जर्मनी के बुन्देसरैट में कितने संघीय राज्यों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है?(क) 16(ख) 17(ग) 18(घ) 20

Answer»

सही विकल्प है (क) 16

8.

राज्यसभा में कितने सदस्य किसके द्वारा मनोनीत हो सकते हैं?

Answer»

राज्यसभा में 12 सदस्य, राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं।

9.

संसद की विभिन्न समितियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

Answer»

संसद की समितियाँ

भारतीय संसद की निम्नलिखित समितियाँ हैं –

1. कार्य परामर्शदात्री समिति – यह समिति संसद के समस्त कार्यों के संचालन में सहायता करती है। इस समिति में 15 सदस्य होते हैं तथा लोकसभा का अध्यक्ष ही इस समिति का अध्यक्ष होता है। सदन का कार्य आरम्भ होते ही इस समिति का गठन किया जाता है। यह समिति सदन के कार्यों को संचालित करके उसके लिए नियमों का निर्माण करती है।
2. याचिका समिति – इस समिति में 15 सदस्य होते हैं जिनका नाम-निर्देशन अध्यक्ष द्वारा सदन के आरम्भ में ही किया जाता है। इस समिति का कार्य व्यक्तियों तथा लोकसभा द्वारा प्रेषित याचिकाओं पर सदन को परामर्श देना है। यह समिति प्रत्येक याचिका की जाँच करती है, जो उसे सौंपी जाती है।
3. प्राक्कलन समिति – इस समिति में 30 सदस्य होते हैं, जिनका चुनाव प्रत्येक वर्ष लोकसभा के सदस्यों में से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय पद्धति द्वारा होता है। इस समिति का कार्य होता है कि वह प्रत्येक विभाग के आय-व्यय अथवा वार्षिक वित्तीय विवरण के प्राक्कलनों का समय-समय पर विश्लेषण करे तथा सदन को मितव्ययिता के सुझाव दे।
4. लोक-लेखा समिति – इस समिति का चुनाव प्रति वर्ष संसद के दोनों सदनों में होता है। इसमें दोनों सदनों के सदस्य लिए जाते हैं। इस समिति की कुल सदस्य संख्या 22 है, जिनमें से 15 सदस्य लोकसभा के तथा 7 सदस्य राज्यसभा के होते हैं। इन सदस्यों का चुनाव भी समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर होता है। समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा का अध्यक्ष करता है। इस समिति का कार्य है—लेखा-परीक्षण। प्रति वर्ष यह समिति नियन्त्रक तथा महालेखा परीक्षक के विवरणों की जाँच करती है तथा अपना प्रतिवेदन संसद के सम्मुख रखती है। समिति की रिपोर्ट सरकार के लिए चेतावनी का कार्य करती है।
5. प्रवर समिति – यह वह समिति है जो साधारणतया प्रत्येक विधेयक पर अपने विचार तथा उससे सम्बन्धित विवरण सदन के सम्मुख प्रस्तुत करती है। प्रवर समिति किसी विधेयक-विशेष हेतु बनाई जाती है और रिपोर्ट देने के बाद उसका समापन हो जाता है। प्रत्येक ऐसी समिति के निर्माण का प्रस्ताव, उसके सदस्यों की संख्या और उसकी सदस्यता का निर्माण विधेयक के प्रस्ताव के अनुसार होता है। प्रवर समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति सदन का अध्यक्ष करता है।
6. व्यक्तिगत सदस्यों के विधेयक तथा प्रस्तावों की समिति – इस समिति में 15 सदस्य होते हैं। इन सदस्यों को लोकसभा की अध्यक्ष एक वर्ष के लिए मनोनीत (Nominate) करता है। इस समिति का मुख्य कार्य गैर-सरकारी सदस्यों के द्वारा प्रस्तुत विधेयकों की जाँच करना है। समिति यह सुझाव भी प्रस्तुत करती है कि गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों के लिए कितना समय दिया जाए।
7. विशेषाधिकार समिति – इस समिति की सदस्य संख्या 15 होती है। सदन के प्रारम्भ में अध्यक्ष द्वारा सदस्यों का मनोनयन किया जाता है। यदि संसद तथा उसके विशेषाधिकारों का मामला उठ खड़ा हो तो यह समिति उसकी जाँच करती है तथा इसके द्वारा प्रस्तुत विवरण के अनुसार ही सदन आगे की कार्यवाही करता है।
8. नियम समिति – इस समिति में भी 15 सदस्य होते हैं, जिन्हें लोकसभा का अध्यक्ष एक वर्ष के लिए नियुक्त करता है। यह समिति संसद द्वारा निर्मित नियमों की जाँच करती है। इस समिति को इन नियमों में संशोधन के लिए संस्तुति करने का भी अधिकार है।
9. संसदात्मक समिति – यह समिति संसद से सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार करती है तथा सदन के समक्ष अपने विवरण को प्रस्तुत करती है।
10. सरकार द्वारा प्रदत्त आश्वासन समिति – इस समिति का मुख्य कार्य यह जाँच करना है कि मंत्रियों ने समय-समय पर जो आश्वासन दिए हैं, वे कहाँ तक पूरे किए गए हैं। समिति सदन को रिपोर्ट प्रस्तुत करती है और बताती है कि मंत्रियों ने अपने आश्वासनों, प्रतिज्ञाओं और वचनों का पालन किस सीमा तक किया है। इस समिति में 15 सदस्य होते हैं, जिनकी नियुक्ति लोकसभा का अध्यक्ष एक वर्ष के लिए करता है।
11. अधीनस्थ विधि समिति – यह समिति पर्यवेक्षण करती है कि राज्यों तथा अन्य विभिन्न प्रशासनिक निकायों द्वारा विधि-निर्माण का कार्य समुचित रूप से चल रहा है या नहीं संविधान तथा अन्य विधियों का सम्यक् पालन अधीनस्थ प्राधिकारी कर रहे हैं या नहीं। इन सभी बातों की जाँच तथा सदन को इन सभी बातों से समय-समय पर अवगत कराना इस समिति का प्रमुख कार्य है।
12. अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी समिति – इस समिति में 30 से अधिक सदस्य नहीं होते हैं। किसी मंत्री को इस समिति का सदस्य मनोनीत नहीं किया जा सकता है। इसके सदस्यों की पदावधि एक वर्ष से अधिक नहीं होती है। यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी मामलों पर विचार करती है और अपनी रिपोर्ट देती है।

इस समितियों के अतिरिक्त लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा कृषि सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), पर्यावरण और वन सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), विज्ञान और प्रौद्योगिकी सम्बन्धी समिति (22 सदस्य), सामान्य प्रयोजन समिति, आवास समिति (12 सदस्य), पुस्तकालय समिति (6 सदस्य), सांसदों के वेतन-भत्ते सम्बन्धी संयुक्त समिति तथा अन्य संसदीय समितियों का गठन किया जा सकता है।

10.

अविश्वास प्रस्ताव पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Answer»

अविश्वास प्रस्ताव

मंत्रिपरिषद् संसद के निम्न सदन (लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के विश्वास पर ही अपने पद पर बनी रह सकती है। यदि लोकसभा यह अनुभव करती है कि सरकार अपने प्रशासनिक दायित्वों का संचालन समुचित रूप से नहीं कर रही है तो लोकसभा के सदस्य सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रख सकते हैं। यह प्रस्ताव प्रायः विपक्ष के सदस्यों द्वारा रखा जाता है। अविश्वास का प्रस्ताव लोकसभा के अध्यक्ष (Speaker) की अनुमति के पश्चात् सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इस पर सदन में सत्ता पक्ष तथा विपक्षी सदस्यों द्वारा विस्तृत चर्चा की जाती है। इस विस्तृत चर्चा के उपरान्त उस पर मतदान किया जाता है। यदि सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव सदन में बहुमत से पारित हो जाता है तो प्रधानमंत्री सहित सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को तुरन्त अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ती है।

11.

भारतीय संसद में कितनी स्थायी समितियाँ हैं?(क) 25(ख) 20(ग) 21(घ) 24

Answer»

सही विकल्प है (क) 25

12.

भारतीय संसद की विधि-निर्माण प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए।

Answer»

भारतीय संसद की विधि-निर्माण प्रक्रिया

सरकार के तीन अंगों में संसद विधि-निर्माण सम्बन्धी दायित्वों को पूर्ण करती है। विधायी क्षेत्र में संसद को सर्वोच्च शक्ति प्रदान की गयी है। संसद द्वारा निर्मित कानून एक विशेष प्रक्रिया से गुजरने के पश्चात् विधि का रूप धारण करते हैं। इस सम्बन्ध में साधारण विधेयकों व वित्तीय विधेयकों के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् प्रक्रियाओं को अपनाया गया है। विधि-निर्माण सम्बन्धी सभी विधेयक संसद के सम्मुख प्रस्तुत किये जाते हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक विधेयक निम्नलिखित तीन वाचनों से होकर गुजरता है –

    प्रथम वाचन – प्रथम वाचन का आशय गजट में प्रकाशित विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने से होता है।
⦁    द्वितीय वाचन – द्वितीय वाचन के अन्तर्गत गजट के सिद्धान्तों व उपबन्धों पर संसद द्वारा गहन विचार-विमर्श किया जाता है।
⦁    तृतीय वाचन – तृतीय वाचन, जो विधेयक पर होने वाला अन्तिम व निर्णायक वाचन होता है, में विधेयक को स्वीकार करने हेतु निर्णय लिया जाता है।

विधेयकों के प्रकार
विधेयकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –
⦁    सरकारी विधेयक – इस प्रकार के विधेयकों के अन्तर्गत साधारण व वित्तीय दो प्रकार के विधेयक आते हैं तथा इन्हें किसी मंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
⦁    गैर-सरकारी विधेयक – ऐसे साधारण विधेयक, जिन्हें मंत्रियों के अतिरिक्त राज्य विधान मण्डल के अन्य सदस्यों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, गैर-सरकारी विधेयक कहलाते हैं।

साधारण विधेयक
साधारण विधेयक मंत्रियों अथवा संसद के किसी सदस्य के द्वारा सम्बन्धित सदन में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। किसी भी प्रस्तावित साधारण विधेयक को विधि का रूप धारण करने से पूर्व अग्रलिखित प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है –

(1) प्रथम वाचन – साधारण विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने के लिए एक माह पूर्व सूचना देनी पड़ती है। मंत्री द्वारा विधेयक के प्रस्तुतीकरण करने की तिथि अध्यक्ष द्वारा निश्चित की जाती है। निश्चित तिथि पर अध्यक्ष मंत्री को बुलाता है तथा मंत्री विधेयक के सम्बन्ध में समस्त जानकारी सदन के समक्ष प्रस्तुत करता है। इस वाचन के अन्तर्गत विधेयक पर किसी प्रकार का कोई वाद-विवाद नहीं होता, अपितु केवल यह निर्णय किया जाता है कि विधेयक पर आगे की कार्यवाही की जाए या नहीं। सदन में स्वीकृत हो जाने पर विधेयक पर आगे की कार्यवाही की जाती है। विधेयक को प्रस्तुत करने व उसे विचारार्थ आगे प्रेषित करने की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रथम वाचन कहा जाता है।
(2) द्वितीय वाचन – प्रथम वाचन के अन्तर्गत प्रस्ताव के विचारार्थ स्वीकार होने के पश्चात् विधेयक की एक-एक प्रति सदन के सदस्यों में बाँट दी जाती है। साधारणतया प्रथम वाचन में प्रस्तुतीकरण के दो दिन पश्चात् विधेयक पर द्वितीय वाचन प्रारम्भ होता है जिसमें विधेयक के मूल सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है। कुछ विशेष विधेयकों के अतिरिक्त शेष सभी विधेयक विचारार्थ प्रवर समिति को सौंप दिये जाते हैं।
प्रवर समिति – गहन विचार-विमर्श हेतु सदन द्वारा एक प्रवर समिति की नियुक्ति की जाती है, जो सदन के कुछ सदस्यों का एक संगठन होता है। प्रवर समिति में विधेयक के प्रत्येक पक्ष पर विचार करने के पश्चात् विधेयक से सम्बन्धित रिपोर्ट सदन को प्रस्तुत की जाती है। समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट सभापति के द्वारा अनुमोदित होती है।
प्रतिवेदन स्तर – प्रवर समिति द्वारा प्रेषित प्रतिवेदन पर सदन द्वारा गहन विचार-विमर्श किया जाता है। इस स्तर पर विधेयक को या तो उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाता है जिस रूप में उसे प्रवर समिति सदन को प्रेषित करती है या फिर सदन द्वारा उसमें आवश्यक संशोधन किये जा सकते हैं। इस प्रकार द्वितीय वाचन में विधेयक के प्रत्येक पक्ष पर विचार करने तथा उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने के पश्चात् द्वितीय वाचन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।

(3) तृतीय वाचन – प्रवर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् विधेयक के तृतीय वाचन की तिथि निश्चित कर दी जाती है। यह वाचन विधेयक को अन्तिम चरण होता है। इस वाचने में प्रस्तावक द्वारा विधेयक को पारित करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है। इस वाचन में विधेयक के सामान्य सिद्धान्तों पर बहस कर उसकी भाषा को अधिक-से-अधिक स्पष्ट व सरल बनाने का प्रयत्न किया जाता है। वास्तव में, विधेयक पर तृतीय वाचन की अवस्था मात्र औपचारिकता पूर्ण करने की होती है। इस अवस्था में विधेयक को रद्द करने की सम्भावनाएँ बहुत कम होती हैं।
दूसरा सदन – प्रथम सदन में पारित हो जाने के पश्चात् विधेयक द्वितीय सदन को प्रेषित कर दिया जाता है। यदि द्वितीय सदन भी विधेयक को अपने बहुमत से पास कर देता है तो विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए भेज दिया जाता है, परन्तु यदि द्वितीय सदन द्वारा विधेयक को अस्वीकार कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति संसद की संयुक्त बैठक बुलाकर बहुमत से विवाद का समाधान करता है।
राष्ट्रपति की स्वीकृति – दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पास हो जाने के पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हेतु प्रस्तुत किया जाता है। यदि राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर देता है तो विधेयक कानून का रूप धारण कर लेता है, परन्तु यदि राष्ट्रपति विधेयक के सम्बन्ध में संशोधन हेतु कोई सुझाव देकर विधेयक को वापस भेज देता है तो ऐसी स्थिति में संसद विधेयक पर पुनर्विचार करती है। यदि पुनः संसद द्वारा विधेयक पारित कर दिया जाता है। तो विधेयक पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।

इस प्रकार कोई भी अवित्तीय विधेयक अन्ततः कानून का रूप धारण कर लेता है।

वित्त विधेयक
वित्त विधेयक वंह हे जिसका सम्बन्ध राजस्व अथवा व्यय से होता है। संविधान द्वारा वित्त विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया को साधारण विधेयकों से पृथक् रखा गया है। संवैधानिक प्रावधान के अनुसार वित्त विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुमति से केवल लोकसभा में ही प्रस्तावित किया जा सकता है तथा किसी भी विधेयक के सम्बन्ध में यह विवाद उत्पन्न होने पर कि वह वित्त विधेयक है अथवा नहीं, निर्णय लोकसभा अध्यक्ष द्वारा लिया जाता है। लोकसभा में प्रस्तावित धन विधेयक के लोकसभा द्वारा पास किये जाने के पश्चात् विधेयक राज्यसभा के विचारार्थ भेजा जाता है। इस सम्बन्ध में राज्यसभा को प्राप्त शक्तियाँ अत्यन्त सीमित हैं। राज्यसभा किसी भी धन विधेयक को अपनी अस्वीकृति व्यक्त करने हेतु केवल 14 दिन तक रोक सकती है। 14 दिन की समयावधि के अन्दर या तो वह इस विधेयक के सम्बन्ध में संशोधन-सम्बन्धी कुछ सुझाव देकर लोकसभा को प्रेषित कर देती है अन्यथा 14 दिन के पश्चात् वित्त विधेयक राज्यसभा की स्वीकृति के बिना भी पारित समझा जाता है। धन विधेयक पर दिये जाने वाले राज्यसभा के परामर्शों को स्वीकार करना या न करना लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है। दोनों सदनों द्वारा बहुमत से पारित होने के पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून का रूप धारण कर लेता है।

वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं –

⦁    धन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् ही लोकसभा में प्रस्तुत किये जाते हैं।
⦁    धन विधेयकों को संसद के दोनों सदनों की संयुक्त समिति को नहीं सौंपा जाता।
⦁    धन विधेयकों के सम्बन्ध में एक विशेष तथ्य यह है कि साधारण विधेयकों की भाँति इन विधेयकों को राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए सदन को नहीं लौटाया जा सकता।

13.

संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?

Answer»

कानून-निर्माण संसद का काम है और प्रत्येक सदन अपनी समितियों की सहायता से उसे निभाता है। प्रायः बिलों को विस्तृत विचार के लिए किसी समिति को सौंपा जाता है और सदन उस समिति की सिफारिशों के आधार पर उस पर विचार करके उसे पास या अस्वीकृत करता है। अधिकतर मामलों में सदन समिति की सिफारिशों के आधार पर ही उसका निर्णय करता है और इसी आधार पर लोगों का मत है कि इससे संसद की कानून बनाने की शक्ति कुप्रभावित हुई है।

परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। संसद के पास इतना समय नहीं होता कि वह प्रत्येक बिल पर, उसकी प्रत्येक धारा पर विचार कर सके और उस पर प्रत्येक दृष्टिकोण से विश्लेषण कर सके। अत: बिल की विस्तृत समीक्षा समिति अवस्था में ही हो जाती है जो सदन को उस पर विस्तार से विचार करने और निर्णय करने में सहायक होती है। यह आवश्यक नहीं है कि संसद प्रत्येक बिल पर समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करे। सदन में समिति की रिपोर्ट पर विचार करते समय यदि सदन अनुभव करे कि बिल पर भली-भाँति विचार नहीं हुआ है या उस पर पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट दी गई है तो वह उसे उसी समिति या किसी नई समिति को भेज सकता है, समिति की रिपोर्ट को स्वीकार न करके अपना स्वतन्त्र निर्णय भी ले सकता है।

14.

राज्यसभा व लोकसभा किन क्षेत्रों में बराबर की शक्तियाँ रखती हैं?

Answer»

राज्यसभा व लोकसभा के कार्यों की अगर हम तुलना करें तो स्पष्ट होता है कि कुछ क्षेत्रों में लोकसभा, राज्यसभा के मुकाबले अधिक शक्तिशाली है। कुछ क्षेत्रों में राज्यसभा की अपनी विशेष शक्तियाँ हैं परन्तु कुछ क्षेत्रों में लोकसभा व राज्यसभा की बराबर की शक्तियाँ हैं। ये क्षेत्र निम्नलिखित हैं।

⦁    विचार-विमर्श, विभिन्न विषयों पर चर्चा व जनमत-निर्माण में लोकसभा व राज्यसभा की बराबर की शक्तियाँ हैं।
⦁    संविधान संशोधन के क्षेत्र में भी दोनों सदनों की बराबर की शक्तियाँ हैं। जब तक संविधान संशोधन बिल दोनों सदनों से अलग-अलग पास नहीं हो जाता तब तक संविधान संशोधन लागू नहीं हो सकता।
⦁    चुनाव के क्षेत्र में दोनों सदनों की बराबर की शक्तियाँ हैं। राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति के चुनाव में दोनों सदन भाग लेते हैं।
⦁    न्यायिक क्षेत्र में दोनों सदनों की शक्तियाँ समान हैं।

15.

लोकसभा में कितने सदस्य नामित (मनोनीत) किए जा सकते हैं?

Answer»

लोकसभा में दो एंग्लो-इण्डियन सदस्य नामित किए जा सकते हैं।

16.

भारतीय संसद में कितने सदन हैं?(क) दो(ख) तीन(ग) चार(घ) एक

Answer»

सही विकल्प है (क) दो।

17.

लोकसभा राज्यसभा से शक्तिशाली क्यों है?

Answer»

लोकसभा निम्नलिखित कारणों से राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है –

⦁    लोकसभा में वित्त विधेयक पहले प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जबकि राज्यसभा में ऐसा नहीं होता है।
⦁    साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में दोनों सदनों की शक्ति समान है, परन्तु दोनों सदनों में मतभेद होने पर उनके संयुक्त अधिवेशन में निर्णय लिया जाता है। लोकसभा की सदस्य संख्या राज्यसभा की सदस्य संख्या से अधिक होने के कारण अन्तिम निर्णय लोकसभा के पक्ष में ही होता है।
⦁    लोकसभा केंद्रीय मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर उसे अपदस्थ कर सकती है, जबकि राज्यसभा को यह अधिकार प्राप्त नहीं है।

18.

दल-बदल क्या है? इसे रोकने के क्या उपाय किए गए हैं?

Answer»

भारतीय राजनीति में सर्वाधिक प्रचलित राजनीतिक खेल का नाम है-दल-बदल। इसे पक्ष परिवर्तन, एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाना, सदन में सरकारी दल छोड़कर विरोधी दल में मिल जाना, खेमा बदल लेना कुछ भी कह सकते हैं। दल-बदल रोकने के लिए सन् 1985 में संविधान का 52वाँ संशोधन किया गया। इसे दल-बदल निरोधक कानून’ कहते हैं। इसे बाद में 91वें संविधान संशोधन द्वारा पुनः संशोधित किया गया।

19.

राज्यसभा किस प्रकार एक स्थायी सदन है?

Answer»

राज्यसभा भारतीय संसद का उच्च सदन है। इसके सदस्य राज्यों की विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं। यह स्थायी सदन है जिसका अस्तित्व निरन्तर बना रहता है। इसका स्थायी सदन होना निम्नलिखित तथ्यों द्वारा पुष्ट होता है –

⦁    राज्यसभा को राष्ट्रपति विघटित नहीं कर सकता। इसके सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद सेवानिवृत्त होते हैं।
⦁    राज्यसभा के सभी सदस्यों का चुनाव एक साथ नहीं होता और न ही वे एक साथ अपने पद का त्याग करते हैं।
⦁    इसके एक-तिहाई सदस्य हर दो वर्ष पश्चात् सेवानिवृत्त हो जाते हैं जिसका अर्थ है कि प्रत्येक 2 वर्ष पश्चात् इसके 1/3 स्थानों पर ही पुनः चुनाव होता है।
⦁    इस प्रकार इसके कम-से-कम 2/3 सदस्य हर समय पद पर रहते हैं और 1/3 पद भी केवल कुछ समय के लिए रिक्त रह सकते हैं।
⦁    इसमें हर समय 1/3 सदस्य चार वर्ष के अनुभव वाले और 1/3 सदस्य 2 वर्ष के अनुभव वाले होते हैं।

20.

राज्यसभा के संगठन तथा शक्तियों की विवेचना कीजिए।याराज्यसभा के कार्यों एवं शक्तियों को स्पष्ट कीजिए।याराज्यसभा के संगठन तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।याराज्यसभा के संगठन तथा कार्यों की समीक्षा कीजिए। सिद्ध कीजिए कि लोकसभा की तुलना में राज्यसभा एक कमजोर एवं शक्तिहीन सदन है?

Answer»

राज्यसभा – संसद के तीन घटक होते हैं-(1) राष्ट्रपति, (2) लोकसभा तथा (3) राज्यसभा। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और दोनों सदनों को मिलाकर बनेगी, जिनके नाम राज्यसभा और लोकसभा होंगे। इससे स्पष्ट है कि भारत में व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। उच्च सदन को राज्यसभा और निम्न सदन को लोकसभा के नाम से पुकारा जाता है। लोकसभा समस्त भारत का प्रतिनिधित्व करती है और राज्यसभा राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती है। दोनों सदनों को सम्मिलित रूप से संसद कहा जाता है। राज्यसभा के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन इस प्रकार है –

राज्यसभा की संरचना – राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसका कभी विघटन नहीं होता। राज्यसभा में संघ के इकाई राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 80 में स्पष्ट लिखा है कि राज्यसभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य होंगे जिनमें अधिक-से-अधिक 238 सदस्य राज्यों की ओर से निर्वाचित होंगे और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करेगा। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 12 सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला, समाज-सेवा या सहकारिता के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या अनुभव तथा ख्याति प्राप्त व्यक्ति होंगे। इस समय राज्यसभा में कुल सदस्य 245 हैं, जिनमें से 233 राज्यों तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये गये हैं।
चुनाव – राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रीति से होता है। इस निर्वाचन की दृष्टि से भारतीय संघ के राज्य दो श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं – (1) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ हैं तथा (2) वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, वरन् वे केन्द्र द्वारा शासित हैं। जिन राज्यों में विधानसभाएँ हैं, वहाँ विधानसभाओं के सदस्य अपने राज्य के प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। यह चुनाव आनुपातिक पद्धति से एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के द्वारा होता है। वे राज्य जिनमें विधानसभाएँ नहीं हैं, उनमें प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने का ढंग संसद कानून द्वारा निर्धारित करती
सदस्यों की योग्यताएँ –
⦁    वह भारत का नागरिक हो।
⦁    वह 30 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
⦁    वह वे सभी योग्यताएँ रखता हो जो संसद द्वारा निश्चित की गयी हों।
⦁    वह उस राज्य का निवासी हो जहाँ से वह निर्वाचित होना चाहता है।
कार्यकाल – राज्यसभा एक स्थायी सदन है, परन्तु उसके सदस्यों में से एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद अवकाश ग्रहण करते रहते हैं। इस प्रकार सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है।
गणपूर्ति या कोरम – राज्यसभा की गणपूर्ति या कोरम, समस्त सदस्य-संख्या का 10वाँ भाग होता है। किसी भी कार्यवाही के लिए कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 भाग सदन में उपस्थित होना आवश्यक
राज्यसभा का सभापति – भारत का ‘उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। राज्यसभा अपने सदस्यों में से किसी एक को उपसभापति चुनती है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति राज्यसभा की बैठकों का सभापतित्व करता है और सभापति के कर्तव्यों का पालन करता है। सभापति तथा उपसभापति के वेतन, भत्ते संसद द्वारा निश्चित किये जाते हैं। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति ही सभापति का आसन ग्रहण करता है। राज्यसभा का सभापति सदन की बैठकों का सभापतित्व करता है, सभा में व्यवस्था बनाये रखता है, प्रश्नों पर अपना निर्णय देता है तथा मतदान की। निर्णय घोषित करना आदि कार्य सम्पन्न करता है। वर्तमान समय में राज्यसभा के सभापति श्री एम० वेंकैया नायडू हैं और उपसभापति प्रो० पी० जे० कुरियन हैं।

राज्यसभा के कार्य एवं अधिकार

राज्यसभा के अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में स्पष्ट किया जा सकता है –
(1) विधायिनी अधिकार – राज्यसभा में धन सम्बन्धी विधेयक को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार का विधेयक लोकसभा से पहले भी प्रस्तुत किया जा सकता है। धन सम्बन्धी विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। कोई भी प्रस्ताव संसद द्वारा तब तक पारित नहीं समझा जा सकता और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए तब तक नहीं भेजा जा सकता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् पारित न हो जाए। यदि किसी प्रस्ताव पर दोनों सदनों में मतभेद पैदा हो जाए तो राष्ट्रपति दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का अधिकार रखता है और उसे प्रस्ताव को उसके सामने रखा जाता है। संयुक्त बैठक में प्रस्ताव पर हुआ निर्णय दोनों सदनों का सामूहिक निर्णय समझा जाता है और यदि वह पारित हो जाए तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है।
(2) वित्तीय अधिकार – जैसा पहले ही बताया जा चुका है कि धन सम्बन्धी विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। राज्यसभा की वित्तीय शक्तियाँ लोकसभा की अपेक्षा बहुत कम हैं। वित्तीय विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में आते हैं। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को 14 दिन तक पारित होने से रोक सकती है। राज्यसभा वित्तीय विधेयक को चाहे रद्द कर दे, या उसमें परिवर्तन कर दे, या 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, इन दशाओं में वह विधेयक राज्यसभा से पारित समझा जाएगा। यह लोकसभा की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह राज्यसभा की संस्तुतियों को माने या न माने। जिस रूप में लोकसभा ने विधेयक पारित किया था वह विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है।
(3) शासकीय अधिकार – राज्यसभा की कार्यकारी शक्तियाँ बहुत सीमित हैं। यद्यपि राज्यसभा के सदस्य भी मंत्रिमण्डल में शामिल किये जाते हैं फिर भी मंत्रिमण्डल अपने सभी कार्यों के लिए केवल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है, राज्यसभा के सदस्य प्रश्नों, काम रोको प्रस्तावों और वाद-विवादों के द्वारा मंत्रिमण्डल पर अपना नियन्त्रण रखते हैं, परन्तु इस सबके बावजूद भी कार्यपालिका पर राज्यसभा का वास्तविक नियन्त्रण नहीं है। राज्यसभा को मंत्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे हटाने का कोई अधिकार नहीं है।
(4) संविधान संशोधन सम्बन्धी अधिकार – राज्यसभा को संविधान में संशोधन करने का अधिकार लोकसभा की तरह ही प्राप्त है। संविधान संशोधन सम्बन्धी विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत हो सकता है, अर्थात् संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव राज्यसभा में भी प्रस्तावित किया जा सकता है। संशोधन प्रस्ताव उस समय तक पारित नहीं समझा जाता जब तक कि वह दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् बहुमत से पारित न हो जाए। इस प्रकार संशोधन प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में मतभेद होने पर वह पारित नहीं हो पाएगा।
(5) विविध अधिकार –
⦁    राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं, किन्तु मनोनीत सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त नहीं होता।
⦁    राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग लगाने और उसकी जाँच करने तथा उसके बारे में निर्णय देने का अधिकार राज्यसभा को है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस मामले में राज्यसभा को उतने ही अधिकार हैं जितने कि लोकसभा को।
⦁    उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को उसी समय पदच्युत किया जा सकता है, जब लोकसभा की तरह राज्यसभा भी उनको हटाये जाने के लिए प्रस्ताव पारित करे।
⦁    राज्यसभा राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व को घोषित करके संसद को इस पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
⦁    राष्ट्रपति द्वारा समय-समय पर निकाली गयी घोषणा को जारी करने के लिए लोकसभा की तरह राज्यसभा को भी अर्थात् दोनों सदनों के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।

निष्कर्ष – राज्यसभा की शक्तियों और कार्यों से यह स्पष्ट है कि लोकसभा की अपेक्षा राज्यसभा शक्तिहीन सदन सिद्ध होता है, परन्तु फिर भी इस सदन के पास इतनी शक्तियाँ हैं कि यह एक आदर्श सदन कहीं जा सकता है। इसकी अपनी पृथक् गरिमा है। लोकसभा के भंग होने की स्थिति में तो यह सदन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगाता है। इसे किसी भी प्रकार अनावश्यक सदन नहीं कहा जा सकता। राज्यसभा की उपयोगिता के विषय में श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने कहा था, “संविधान-निर्माताओं का राज्यसभा की रचना का उद्देश्य यह था कि यह सदन महत्त्वपूर्ण विषयों पर वाद-विवाद करे और उन विधेयकों को पारित करने में देरी करे जो लोकसभा में शीघ्रता से पारित कर दिये जाते हैं।”

21.

संसदीय समितियों की क्या उपयोगिता है?

Answer»

वर्तमाने में प्रायः समस्त देशों में विधानमण्डल अपने कार्यों को अधिक कुशलता तथा शीघ्रता से करने के लिए अनेक समितियों का प्रयोग करते हैं। इन समितियों की निम्नलिखित उपयोगिता है –

(1) वर्तमान में विधि-निर्माण का कार्य अत्यन्त जटिल एवं तकनीकी (Technical) हो गया है। विधानमण्डलों के सभी सदस्य इस कार्य में निपुण नहीं होते हैं। अतः विशेषज्ञों की समितियों द्वारा विधि-निर्माण कार्य अधिक सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
(2) वर्तमान में विधानमण्डल के कार्य बहुत विस्तृत एवं व्यापक हो गए हैं। उसके पास इतना समय नहीं है कि प्रत्येक विधेयकों पर सूक्ष्मता से विचार कर सके। इस कार्य को वर्तमान में समितियाँ ही सम्पादित करती हैं।
(3) समितियाँ विभिन्न विधेयकों पर विस्तृत वाद-विवाद कर सकती हैं। वे सभी प्रकार के रिकॉर्डो को मँगवा सकती हैं, गवाहों को बुलवा सकती हैं और आवश्यक बातों की छानबीन भी कर सकती हैं। ये कार्य सदन में सम्भव नहीं हैं।

22.

राज्यसभा में अधिक-से-अधिक कितने सदस्य हो सकते हैं?

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राज्यसभा में अधिक-से-अधिक 250 सदस्य हो सकते हैं।

23.

भारतीय संसद की स्थिति और भूमिका का परीक्षण कीजिए।

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भारतीय संसद की स्थिति और भूमिका

भारतीय संसद ब्रिटिश संसद के समान सम्प्रभु नहीं है। नॉर्मन डी० पामर के अनुसार, “भारतीय संसद विस्तृत शक्तियों का प्रयोग करती है तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती है, तथापि इसके कार्यों पर अनेक प्रतिबन्ध हैं। संघीय प्रणाली तथा संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करने से इसकी शक्तियाँ सीमित हो गई हैं।”

वास्तव में, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता तथा न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया ने संसद पर सीमाएँ अवश्य लगाई हैं, परन्तु संसद देश की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है, उसे संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संसद की स्थिति ‘संसदीय सम्प्रभुता’ तथा ‘न्यायिक सर्वोच्चता के बीच की है।

भारत में संसद की प्रभावी भूमिका के सम्बन्ध में समय-समय पर सारगर्भित आलोचनाएँ की जाती रही हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल का संसद पर सदा दबाव बना रहा है। प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल जो भी निर्णय लेते हैं, संसद उनका अनुमोदन कर देती है। डॉ० लक्ष्मीलाल सिंघवी के अनुसार, “यह सत्य है कि कानून बनाने की तथा कर व शुल्क लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है, किन्तु वास्तविकता यह है कि अधिनियमों का बीजारोपण और अभ्युदय मंत्रालयों में होता है, संसद में केवल मंत्रोच्चारण के साथ उपनयन संस्कार होता है और उन्हें औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता है। इस कथन से स्पष्ट होता है कि मंत्रिमण्डल के प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा उसके दल के संसद में बहुमत होने से संसद के अधिकार प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल ने ग्रहण कर लिए हैं। शक्तिशाली विपक्ष के अभाव में संसद; प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल की इच्छानुसार ही कार्य करती है। पिछले कुछ वर्षों में लोकसभा के स्तर में जो अभूतपूर्व गिरावट देखने को मिली है, वह लोकतन्त्र के लिए चिन्ता का विषय है। सांसदों के आचरण को देखकर हीरेन मुकर्जी ने कहा है, भारतीय संसद स्वर्ण युग प्राप्त किए बिना ही पतन की ओर अग्रसर हो रही है।”

भारतीय संसद के पराभव के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं –

⦁    संसद सदस्य पारस्परिक वाद-विवाद तथा आरोप-प्रत्यारोपों के कारण अपना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते हैं, जिससे वे कानून सम्बन्धी मामलों पर गम्भीरता से विचार नहीं कर पाते।
⦁    वर्तमान में राज्य के कार्य इतने अधिक विस्तृत हो गए हैं कि प्रत्येक विषय पर विचार करने के लिए न तो संसद के पास समय है और न ही सदस्यों को तकनीकी जानकारी है। अत: संसद को नौकरशाही द्वारा की गई सूचनाओं पर निर्भर रहना पड़ता है जिनकी प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध होती है।
⦁    संसद में साधारणतया सरकारी विधेयक ही पारित हो पाते हैं। दलीय अनुशासन के कारण सदन के सदस्यों को इनका समर्थन करना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यवहार में विधि-निर्माण कार्य संसद का न होकर मंत्रिमण्डल का हो गया है।
⦁    संसद की वित्तीय शक्तियाँ मात्र औपचारिक हैं, क्योंकि जिस दल को लोकसभा में बहुमत होता है, वही सत्ताधारी होती है और इसके लिए वित्त विधेयक पारित करवाना कठिन कार्य नहीं होता है।
⦁    राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। इन अध्यादेशों को वही मान्यता प्राप्त होती है, जो संसद द्वारा पारित कानूनों को प्राप्त होती है।
भारतीय संसद की अनेक कमियों के बावजूद भी इसने देश की राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। आज संसद की गरिमा को ऊँचा उठाने के लिए इसमें सुधार की आवश्यकता है।

24.

क्या अनुशासनहीनता एवं अव्यवस्था के होते हुए भी भारतीय संसद को राष्ट्र की प्रतिनिधि सभा कहा जा सकता है?

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संसद में अनुशासनहीनता एवं अव्यवस्था की घटनाओं के बाद भी भारतीय संसद राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। ये घटनाएँ संसद की अस्थायी घटनाएँ हैं, स्थायी विशेषताएँ नहीं। भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतन्त्रात्मक देश है और विगत 70 वर्षों से निरन्तर सफलता की ऊँचाइयों की ओर अग्रसर है। अब तक संसद के 14 आम चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं और स्वतन्त्र व निष्पक्ष रूप से हुए हैं। इनके कारण संसद के सदस्य समाज के सभी क्षेत्रों, वर्गों, धर्मों और समुदायों से चुने जाते हैं और संसद में अपना स्थान ग्रहण करते हैं और विचाराधीन विषयों पर विचार प्रकट करते हैं। संसद ही जनता का प्रतिनिधित्व करती है और राष्ट्र की प्रतिनिधि सभा कहलाने का अधिकार रखती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि संसद के सदस्य अपने आचरण से राष्ट्र का समय नष्ट करते हैं, जनता के धन का अपव्यय करते हैं और राष्ट्र तथा विश्व के समक्ष गलत आदर्श प्रस्तुत करते हैं, परन्तु यह भी लोकतन्त्र की एक विशेषता है और इसके द्वारा विपक्ष बहुमत की तानाशाही स्थापित नहीं होने देता और संसद कार्यपालिका पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है।

अनुशासन और अव्यवस्था की घटनाएँ हर रोज नहीं घटतीं और कभी-कभी की घटनाओं के आधार पर संसद के पूर्ण अस्तित्व को ही आलोचना का केन्द्र बनाना उचित नहीं है। संसद राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है, वह सरकार के तीनों अंगों में अधिक शक्तिशाली स्थिति अपनाए हुए है। यह राष्ट्रीय विकास में गति देने की भूमिका का भी निर्वाह करती है।

25.

भारतीय संसद के सदनों के नाम लिखिए।

Answer»

भारतीय संसद में दो सदन हैं –

⦁    उच्च सदन – राज्यसभा तथा
⦁    निम्न सदन – लोकसभा।

26.

विधायिका का कार्य नहीं है –(क) कानून बनाना(ख) बजट पास करना(ग) कार्यपालिका पर नियन्त्रण रेखना(घ) बजट बनाना

Answer»

सही विकल्प है (घ) बजट बनाना।

27.

राज्यसभा में केवल एक सीट किस राज्य को दी गई है?(क) मध्य प्रदेश(ख) उत्तर प्रदेश(ग) सिक्किम(घ) झारखण्ड

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सही विकल्प है (ग) सिक्किम।

28.

आधुनिक राज्य में विधायिका के प्रमुख कार्य समझाइए।

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वर्तमान कल्याणकारी राज्यों में सरकार के कार्य, जिम्मेदारियाँ व चुनौतियाँ अत्यधिक बढ़ गई हैं जिसे पूरा करने का वैधानिक आधार विधायिका प्रदान करती है। इसके कार्यों को हम निम्नलिखित रूपों में बाँट सकते हैं –

⦁    विचार-विमर्श, चर्चा व वाद-विवाद का मंच।
⦁    जनमत-निर्माण का कार्य करना।
⦁    कानून-निर्माण का कार्य करना।
⦁    बजट पास करना और बजट पर नियन्त्रण।
⦁    सरकार पर नियन्त्रण करना।
⦁    विभिन्न पदों के लिए चुनाव कार्य करना।
⦁    संविधान संशोधन का कार्य करना।
⦁    न्यायिक कार्य करना।
⦁    आपातकाल में कार्य करना।
⦁    विविध कार्य।

29.

जर्मनी की द्वि-सदनात्मक विधायिका को क्या कहा जाता है?

Answer»

जर्मनी में द्वि-सदनात्मक विधायिका है। दोनों सदनों को बुन्देस्टैग (फेडरल एसेम्बली) और बुन्देसरैट (फेडरल कौन्सिल) कहते हैं।

30.

निम्नलिखित राज्यों में से किसमें द्वि-सदनात्मक व्यवस्था है?(क) मध्य प्रदेश(ख) आन्ध्र प्रदेश(ग) छत्तीसगढ़(घ) उत्तर प्रदेश

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सही विकल्प है (घ) उत्तर प्रदेश।

31.

भारत के किन राज्यों में द्वि-सदनात्मक विधायिका है?

Answer»

बिहार, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश एवं आन्ध्र प्रदेश में द्वि-सदनात्मक विधायिका है।

32.

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण एवं दोषों (पक्ष एवं विपक्ष) का वर्णन कीजिए।याव्यवस्थापिका के द्वितीय सदन की उपयोगिता पर एक निबन्ध लिखिए।

Answer»

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण/उपयोगिता (पक्ष में तर्क) द्वि-सदनात्मकं या द्वि-सदनीय व्यवस्थापिका के पक्ष में जो तर्क दिये जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं –

1. उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर पुनर्विचार – द्वितीय सदन का प्रमुख कार्य प्रथम सदन के उतावलेपन से उत्पन्न भूलों पर विचार करना है। प्रथम सदन में नवयुवक तथा जोशीले सदस्यों की प्रधानता रहती है। वे आवेश में आकर ऐसे कानूनों का निर्माण कर डालते हैं जो जनहित में नहीं होते। द्वितीय सदन में, जिसमें अधिकांश अनुभवी तथा गम्भीर व्यक्ति होते हैं, प्रथम सदन द्वारा पारित कानूनों का पुनरावलोकन करके उत्पन्न भूलों को दूर कर देते हैं। ब्लंटशली ने ठीक ही लिखा है-“दो आँखों की अपेक्षा चार आँखें सदा अच्छा देखती हैं, विशेषतया जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करना आवश्यक हो।” लॉस्की के अनुसार, “नियन्त्रण संशोधन तथा रुकावट डालने में जो काम द्वितीय सदन करता है, उससे उसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध है।”
2. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक – एक-सदनात्मक व्यवस्था में उसके निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है, किन्तु द्वि-सदनात्मक व्यवस्था में इस प्रकार की सम्भावना का अन्त हो जाता है। बाइस का कहना है, “दो सदनों की आवश्यकता इस विश्वास पर आधारित है कि एक सदन की स्वाभाविक प्रवृत्ति घृणापूर्ण, अत्याचारी तथा भ्रष्ट बन जाने की ओर होती है, जिसे रोकने के लिए एकसमान सत्ताधारी द्वितीय सदन का अस्तित्व आवश्यक है। इस प्रकार द्वितीय सदन की विद्यमान स्वतन्त्रता की गारण्टी व कुछ सीमा तक अत्याचार से सुरक्षा भी है।
3. स्वतन्त्रता की रक्षा का उत्तम साधन – लॉर्ड एक्टन का कहना है-“स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए द्वितीय सदन अत्यन्त आवश्यक है। यह नीतियों में सन्तुलन स्थापित करता है तथा अल्पसंख्यकों की रक्षा और प्रथम सदन के दोषों को दूर करता है।”
4. प्रथम सदन के कार्य-भार में कमी – द्वितीय सदन विवादास्पद कार्यों को अपने हाथ में लेकर प्रथम सदन का कार्यभार हल्का कर देता है और उसे अधिक सुचारु रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करता है। आधुनिक प्रगतिशील देशों में एक-सदनात्मक व्यवस्थापिका अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रूप से निभाने में असमर्थ होती है; अतः द्वितीय सदन की आवश्यकता है।
5. कार्यपालिका की स्वतन्त्रता में वृद्धि – द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदन एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते हैं। फलतः कार्यपालिका व्यवस्थापिका की कठपुतली होने से बच जाती है। और उसे कार्य करने में काफी स्वतन्त्रता मिल जाती है। गैटिल ने ठीक ही कहा है-“दोनों सदन एक-दूसरे पर रुकावट का कार्य करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं और अन्त में इससे दोनों विभागों के सर्वोत्कृष्ट हितों की अभिवृद्धि होती है।”
6. अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को प्रतिनिधित्व – व्यवस्थापिका में द्वितीय सदन के होने से अल्पसंख्यकों और विशिष्ट हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
7. संघीय राज्यों के लिए विशेष उपयोगी – संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन विशेष रूप से उपयोगी होता है। प्रथम. सदन साधारण नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है, जब कि द्वितीय सदन संघ राज्यों की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। अनेक संघीय राज्यों के द्वितीय सदन में संघ की इकाइयों को समान् प्रतिनिधित्व दिया जाता है।
8. सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति – प्रायः योग्य और अनुभवी व्यक्ति दलबन्दी और निर्वाचन से दूर रहते हैं और वे प्रथम सदन के निर्वाचन में भाग नहीं लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों को द्वितीय सदन में मनोनीत कर दिया जाता है। इस प्रकार देश को सुयोग्य व्यक्तियों की सेवाओं की प्राप्ति हो जाती है।
9. नीति में स्थायित्व – द्वितीय सदन के सदस्य प्रथम सदन के सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं, साथ ही उनकी संख्या भी कम होती है। यह एक स्थायी सदन होता है। इसके निर्णयों में विचारशीलता और गम्भीरता रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि द्वितीय सदन की नीतियों में अधिक स्थायित्व आ जाती है।
10. प्रथम सदन का सहयोगी – द्वितीय सदन प्रथम सदन का सहयोगी होता है। इस सम्बन्ध में हेनरीमैन ने लिखा है-“बिल्कुल न होने से किसी भी सरकार का द्वितीय सदन अच्छा है, क्योंकि एक व्यवस्थित द्वितीय सदन प्रथम का शत्रु नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए आवश्यक अंग है।” द्वि-सदनात्मक प्रणाली में दोनों सदन एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं।
11. जनमत जानने का अच्छा साधन – जब कोई विधेयक प्रथम सदन से पारित होकर दूसरे सदन में विचारार्थ भेजा जाता है, तब जनता को इस बीच के समय में उस पर अपना विचार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ पर विधेयक पर विचार करने में कुछ समय अवश्य लग जाता है। इस सम्बन्ध में लॉर्ड ब्राइस ने लिखा है-“द्वितीय सदन का मुख्य कार्य केवल इतना विलम्ब करना होना चाहिए जिससे जनता को निम्न सदन द्वारा प्रस्तुत ऐसे विधेयकों पर अपना मत व्यक्त करने का अवसर मिल सके जिनके सम्बन्ध में शासन के पास पहले से जनता का कोई आदेश नहीं है।”

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के दोष (विपक्ष में तर्क)

द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका के विपक्ष में निम्नलिखिते तर्क दिये जाते हैं –

1. रूढ़िवादिता – द्वितीय सदन रूढ़िवादी होता है, क्योंकि उसके अधिकांश सदस्य धनी एवं अनुदार प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिए वे प्रगतिशील एवं सुधारात्मक विधेयकों के पारित होने में बाधक सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में लॉस्की ने लिखा है-“अत्यन्त उपयोगी सुधारों में द्वितीय सदन को विलम्ब लगाने की शक्ति देना सम्भवतः कालान्तर में विनाश को जन्म देना है और जन-क्रान्ति का मार्ग निर्मित करना है।”
2. अनावश्यक या हानिकारक – प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक ऐबेसेयीज का कहना है-“कानून जनता की इच्छा है। जनता की एक ही समय में तथा एक ही विषय पर दो विभिन्न इच्छाएँ नहीं हो सकतीं। अतएव जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली परिषद् आवश्यक रूप से एक ही होनी चाहिए। जहाँ कहीं दो सदन होंगे, मतभेद तथा विरोध अवश्यम्भावी होंगे तथा जनता की इच्छा अकर्मण्यता का शिकार बन जाएगी।” वह पुनः कहता है कि यदि द्वितीय सदन का प्रथम सदन से मतभेद हो तो यह उसकी शैतानी है और यदि वह उससे सहमत है तो उसका अस्तित्व अनावश्यक है। चूंकि वह या तो सहमत होगा या असहमत; अतएव उसका अस्तित्व किसी दिशा में भी लाभदायक नहीं है।
3. उत्तरदायित्व का अभाव – आलोचकों का कहना है कि द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका में प्रथम सदन अपने उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन हो जाता है।
4. संगठन की कठिनाई – द्वितीय सदन के संगठन के सम्बन्ध में कोई आदर्श प्रणाली नहीं है। यदि द्वितीय सदन सामान्य मताधिकार के आधार पर निर्वाचित है तो वह निम्न सदन की पुनरावृत्ति मात्र रह जाता है और यदि उसका निर्वाचन उच्च सम्पत्तिगत योग्यता के आधार पर हुआ है तो वह रूढ़िवादी तथा प्रतिक्रियावादी होगा। यदि द्वितीय सदन वंशानुगत है तो वह निम्न सदन के हितों एवं उनकी आकांक्षाओं का विरोधी होगा। यदि वह अंशत: निर्वाचित तथा अंशतः मनोनीत है तो स्वयं अपने विपरीत विभाजित होने के कारण किसी भी रचनात्मक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होगा और यदि वह कार्यपालिका अथवा निम्न सदन द्वारा नियुक्त है तो नियुक्त करने वाली सत्ता के अतिरिक्त यह और किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा।
5. धन का अपव्यय – द्वि-सदनात्मक प्रणाली में धन के अपव्यय में अधिक वृद्धि हो जाती है तथा इससे अनावश्यक विलम्ब भी होता है, क्योंकि दूसरे सदन में विचारार्थ कोई विधेयक भेजना केवल देरी करना ही है। फिर इस अपव्यय का भार जनता को अतिरिक्त करों के रूप में वहन करना पड़ता है। यह धन द्वितीय सदन की अपेक्षा जनहित के कार्यों में उचित रूप से लगाया जा सकता है।
6. प्रजातन्त्रीय प्रणाली का विरोध-आयंगर का कहना है – “यद्यपि द्वि-सदनात्मक शासन| प्रणाली जनतन्त्र के अन्दर एक प्राचीन परम्परा है, किन्तु यह प्रणाली जनतन्त्र पर विश्वास करने में हिचकिचाती है और अल्पसंख्यकों को ही सन्तुष्ट करने का प्रयास करती है। कभी-कभी द्वितीय सदन हारे हुए नेताओं का सुरक्षित भण्डार सिद्ध हो सकता है।”
7. भूल-सुधार का महत्वहीन दावा – यह कहना कि प्रथम सदन आवेश में आकर जनहित विरोधी कानूनों का निर्माण कर सकता है, उचित नहीं है; क्योंकि प्रथम सदन प्रत्येक विधेयक पर तीन बार विचार करता है। इस प्रकार उसमें किसी प्रकार की भूल रह जाने की बहुत कम सम्भावना रह जाती है। द्वितीय सदन में केवल विधेयक पर प्रथम सदन के तर्क वितर्क ही दोहराये जाते हैं। इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लॉस्की ने लिखा है, “आधुनिक युग में व्यवस्थापन एकाएक कानून की पुस्तक पर नहीं आ जाता, प्रायः प्रत्येक विधेयक विचार एवं विश्लेषण की एक लम्बी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कानून बना है। अतः जल्दबाजी के व्यवस्थापन को रोकने की दृष्टि से दूसरे सदन का महत्त्व राजनीति की वर्तमान दशा में अत्यन्त कम हो गया है।”
8. संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना – जहाँ द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका होती है वहाँ संघर्ष तथा मतभेद की सम्भावना बनी रहती है। इससे शासन-व्यवस्था में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है। फ्रेंकलिन के शब्दों में, “द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका एक ऐसी गाड़ी के समान है जिसके दोनों सिरों पर एक-एक घोड़ा हो और वे दोनों घोड़ा-गाड़ी को अपनी-अपनी ओर खींच रहे हों।”
9. अल्पमतों को प्रतिनिधित्व देने हेतु अन्य सन्तोषजनक प्रबन्ध सम्भव – द्वितीय सदन के आलोचकों का मत है कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की व्यवस्था आवश्यक नहीं है। अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए संविधान में दूसरे उपाय किये जा सकते हैं, जिस तरह भारतीय संविधान में आंग्ल-भारतीय समुदाय, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं।
10. संघीय व्यवस्था के लिए अनावश्यक – दलबन्दी के उदय हो जाने के बाद संघीय शासन व्यवस्था में द्वितीय सदन का होना आवश्यक नहीं रह गया है, क्योकि द्वितीय सदन के प्रतिनिधि राज्यों के हितों और आवश्यकताओं को दृष्टि में न रखकर अपने दलों के स्वार्थों का ही ध्यान रखते हैं। इस प्रकार वे राज्यों के प्रतिनिधि न बनकर वास्तविक रूप में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बनकर रह जाते हैं। इस सम्बन्ध में रॉबर्टसन ने लिखा है, “संघ राज्यों की विशेष परिस्थितियों को छोड़कर द्वितीय सदन के पक्ष में कोई मान्य सैद्धान्तिक तर्क नहीं है और उसके विरुद्ध उठाये गये सैद्धान्तिक तर्को को अभी समुचित उत्तर नहीं दिया गया है।

उपर्युक्त तर्को में सत्य का अंश है, फिर भी अधिकांश देशों में द्वि-सदनात्मक व्यवस्थापिका की स्थापना की गयी है। शायद इसका कारण यह है कि उच्च सदन के निर्माण से बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि द्वितीय सदन पूर्ण जागरूकता के साथ प्रथम सदन द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर पुनर्विचार करे तो लोकप्रिय सदन की जल्दबाजी और मनमानी पर उपयोगी एवं आवश्यक प्रतिबन्ध लग सकता है, इसके अतिरिक्त विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिये जाने पर कानून-निर्माण का कार्य अधिक पूर्णता के साथ किये जाने की आशा की जा सकती है। रैम्जे म्योर के अनुसार, द्वितीय सदन का महत्त्वपूर्ण उपयोग यह है कि उसमें राष्ट्रीय नीति के सामान्य प्रश्नों पर ठण्डे वातावरण में शान्ति के साथ विचार होता है जैसा कि निम्न सदन में असम्भव है।” क्रिन्तु यह आवश्यक है कि द्वितीय सदन की रचना में कुछ सुधार हो। जे०एस० मिल के शब्दों में, “यदि एक सदन जनता की सभा हो तो दूसरा सदन राजनीतिज्ञों की सभा हो।”

33.

लोकसभा के सदस्यों के विशेषाधिकारों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।

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लोकसभा के सदस्यों को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्राप्त हैं –

⦁    भाषण की स्वतन्त्रता – लोकसभा के प्रत्येक सदस्य को स्वतन्त्रतापूर्वक भाषण देने का अधिकार प्राप्त है। उसके भाषण के विरुद्ध न्यायालय में किसी भी प्रकारे का अभियोग नहीं लगाया जा सकता।
⦁    भाषण और विचारों को प्रकाशित करने का अधिकार – लोकसभा में दिए गए भाषण, तर्क-वितर्क अथवा रिपोर्ट को वह स्वयं प्रकाशित कर सकता है।
⦁    गिरफ्तारी से मुक्ति – अधिवेशन के दिनों में तथा अधिवेशन के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक किसी दीवानी मुकदमे के कारण किसी सदस्य को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
आपराधिक अभियोजना के सम्बन्ध में ऐसी गिरफ्तारियों से सम्बन्धित निर्णय लोकसभा अध्यक्ष का होता है।

34.

साधारण विधेयक तथा धन विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया के प्रमुख अन्तर लिखिए।

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जिन विधेयकों का सम्बन्ध धन से होता है, उन्हें धन विधेयक कहा जाता है तथा जिन विधेयकों का सम्बन्ध धन से नहीं होता है, उन्हें साधारण विधेयक कहा जाता है। धन विधेयक, साधारण विधेयकों से अनेक बातों में भिन्न है; जैसे –

⦁    धन विधेयकों का लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित होना आवश्यक है, जबकि साधारण विधेयकों के लिए यह आवश्यक नहीं है।
⦁    धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व-अनुमति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किए जा सकते, जबकि साधारण विधेयकों के लिए यह आवश्यक नहीं है।
⦁    धन विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किए जाते हैं, जबकि साधारण विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
⦁    राज्यसभा धन विधेयक को अस्वीकृत नहीं करती है, वह उसे केवल 14 दिनों तक अपने पास रोक सकती है, जबकि साधारण विधेयक के बारे में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं होती है।