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1.

अर्थशास्त्र में विनिमय से आप क्या समझते हैं ? विनिमय से होने वाले लाभों एवं हानियों का विवेचन कीजिए।

Answer»

प्रो० मार्शल के अनुसार, “दो पक्षों के बीच होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं।”
प्रो० जेवेन्स के अनुसार, “कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं की अदल-बदल को ही विनिमय कहते हैं।”
ऐ० ई० वाघ के अनुसार, “हम एक-दूसरे के पक्ष में स्वामित्व के दो ऐच्छिक हस्तान्तरणों को विनिमय के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।’
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वस्तुओं के आदान-प्रदान को विनिमय कहते हैं, परन्तु वस्तुओं के सभी आदान-प्रदान को विनिमय नहीं कहा जा सकता। अर्थशास्त्र में केवल वही आदान-प्रदान विनिमय कहलाता है जो पारस्परिक, ऐच्छिक एवं वैधानिक हो।

विनिमय से लाभ
विनिमय क्रिया से प्राप्त लाभ निम्नवत् हैं

1. आवश्यकता की वस्तुओं की प्राप्ति – आवश्यकताओं में वृद्धि के कारण ही विनिमय का जन्म हुआ। आज व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की वस्तुएँ स्वयं उत्पादित नहीं कर सकता। आवश्यकताओं की वृद्धि के कारण पारस्परिक निर्भरता बढ़ गयी है। विनिमय के माध्यम से व्यक्ति अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त कर सकता है। विनिमय के कारण ही आयात-निर्यात होता है।

2. प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन – ज्ञान व सभ्यता के विकास के साथ-साथ आवश्यकताओं में भी तीव्र गति से वृद्धि हुई है तथा वस्तुओं की माँग बढ़ी है। इसीलिए वस्तुओं के . अधिक उत्पादन की आवश्यकता हुई। अधिक उत्पादन संसाधनों के कुशलतम दोहन पर ही निर्भर करता है। विनिमय के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया जाता है।

3. बड़े पैमाने पर उत्पादन – वर्तमान प्रतियोगिता व फैशन के युग में वस्तुओं का उत्पादन केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं, वरन् देश-विदेश के व्यक्तियों की माँग को भी ध्यान में रखकर बड़े पैमाने पर मशीनों द्वारा किया जाता है, जिससे वस्तुओं की बढ़ती हुई माँग को पूरा किया जा सके।

4. बाजार का विस्तार – विनिमय के कारण ही वस्तुओं का आयात-निर्यात सम्भव हो सका है। विनिमय के क्षेत्र में वृद्धि के साथ-साथ वस्तुओं का बाजार भी विस्तृत होता जाता है। बड़े पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन होने से बढ़े हुए उत्पादन को निर्यात करके बाजार का क्षेत्र विस्तृत किया जा सकता है।

5. जीवन – स्तर में सुधार विनिमय द्वारा आवश्यकता की वस्तुएँ सरलतापूर्वक कम कीमत पर उपलब्ध हो जाने से लोगों के जीवन-स्तर में सुधार होता है। अपने देश में अप्राप्त वस्तुएँ विदेशों से मँगाई जा सकती हैं। अत: विनिमय के माध्यम से लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा होता है।

6. कार्य-कुशलता में वृद्धि – विनिमय द्वारा लोगों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इसका मुख्य कारण आवश्यक वस्तुओं का सरलता से मिलना तथा उन वस्तुओं का उत्पादन करना है, जिनमें कोई व्यक्ति या राष्ट्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। एक कार्य को निरन्तर करने से कार्य-निपुणता में वृद्धि होती है।

7. ज्ञान में वृद्धि – विनिमय द्वारा मनुष्यों का परस्पर सम्पर्क बढ़ता है। फलस्वरूप व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के धर्म, रहन-सहन, भाषा, रीति-रिवाजों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार विनिमय द्वारा ज्ञान व सभ्यता में वृद्धि होती है।

8. राष्ट्रों में पारस्परिक मैत्री व सद्भावना – विनिमय के कारण ही वस्तुओं का आयात-निर्यात सम्भव हो सका है; फलस्वरूप विश्व के विभिन्न राष्ट्र परस्पर निकट आये हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर वस्तुओं की प्राप्ति हेतु निर्भर हो गया है। परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों में मित्रता व सद्भावना बलवती हुई है।

9. विपत्तिकाल में सहायता –  विनिमय द्वारा प्राकृतिक प्रकोप; जैसे – अकाल, बाढ़, भूकम्प, सूखा आदि के समय एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सहायता करता है। इस प्रकार विनिमय के कारण परस्पर पास आये राष्ट्र विपत्तिकाल में सहायक सिद्ध होते हैं।

10. विनिमय से दोनों पक्षों को लाभ – विनिमय द्वारा दोनों पक्षों को कम आवश्यक वस्तुओं के स्थान पर अधिक आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार विनिमय से दो व्यक्तियों या दो राष्ट्रों को लाभ मिलता है।

विनिमय से हानियाँ
1. आत्मनिर्भरता की समाप्ति – विनिमय के कारण व्यक्ति एवं राष्ट्र परस्पर निर्भर हो गये हैं, जिसके कारण आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी है। युद्ध या अन्य संकट के समय एक राष्ट्र अन्य राष्ट्र को वस्तुएँ देना बन्द कर देता है। इस स्थिति में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

2. राजनीतिक पराधीनता – विनिमय के कारण विस्तारवादी नीति का प्रसार होता है। औद्योगिक दृष्टि से सबल राष्ट्र, निर्बल राष्ट्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं। उदाहरणस्वरूप-इंग्लैण्ड भारत में विनिमय (व्यापार) करने के लिए आया था, लेकिन उसने धीरे-धीरे भारत पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार विनिमय से राजनीतिक दासता की भय बना रहता है।

3. प्राकृतिक साधनों का अनुचित उपयोग – विनिमय के कारण विनिमय क्रिया बलवती होती जाती है। आयात-निर्यात अधिक मात्रा में होने लगते हैं। शक्तिशाली राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग अपने हित में करना प्रारम्भ कर देते हैं, जिससे उनका विकास अवरुद्ध होता जाता है।

4. अनुचित प्रतियोगिता – विनिमय के कारण प्रत्येक राष्ट्र अपनी अतिरिक्त वस्तुओं को विश्व के बाजार में बेचना चाहता है। प्रत्येक राष्ट्र अपने निर्यात में वृद्धि कर अधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार एक अनुचित व हानिकारक प्रतियोगिता प्रारम्भ हो जाती है और निर्बल राष्ट्रों को अधिक आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।

5. युद्ध की सम्भावना – शक्तिशाली राष्ट्र अपनी आर्थिक उन्नति हेतु बाजार की प्राप्ति तथा कच्चे माल की आपूर्ति हेतु संघर्ष करता है, जिसके कारण युद्ध की सम्भावना बनी रहती है।

6. असन्तुलित आर्थिक विकास – विनिमय के कारण प्रत्येक देश उन वस्तुओं का अधिक उत्पादन करता है, जिनकी विदेशों में अधिक माँग होती है। इस प्रकार देश का आर्थिक विकास असन्तुलित रूप में होने लगता है। यह आर्थिक संकट में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न कर देता है जिससे क्षेत्रीय विषमताएँ भी बढ़ने लगती हैं। पर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि विनिमय में दोषों की अपेक्षा गुण अधिक हैं। विनिमय प्रक्रिया में जो दोष दृष्टिगत होते हैं वे मात्र गलत आर्थिक नीतियों के कारण हैं। यदि आर्थिक नीति विश्व-हित को ध्यान में रखकर निर्मित की जाए तो उक्त दोष दूर किये जा सकते हैं। विनिमय एक आवश्यक प्रक्रिया भी है, जिसके अभाव में विश्व की सम्पूर्ण प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती।

2.

प्रत्यक्ष एवं परोक्ष विनिमय के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।यावस्तु विनिमय तथा क्रय-विक्रय में अन्तर बताइए।

Answer»

विनिमय के दो रूप होते हैं 

1) प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय या अल-बदल प्रणाली। 

(2) अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली।

1. प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय प्रणाली – “जब दो व्यक्ति परस्पर अपनी वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार की क्रिया को हम अर्थशास्त्र में वस्तु विनिमय (Barter) कहते हैं।” वस्तु विनिमय = वस्तु → वस्तु। उदाहरण के लिए–भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी अनाज देकर सब्जी प्राप्त की जाती है तथा नाई, धोबी, बढ़ई आदि को उनकी सेवाओं के बदले में अनाज दिया जाता है।

2. अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली – जब विनिमय का कार्य मुद्रा (द्रव्य) के माध्यम द्वारा किया जाता है तो इस प्रणाली को क्रय-विक्रय अथवा अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति मुद्रा देकर किसी वस्तु या सेवा को क्रय करता है या किसी वस्तु या सेवा को देकर मुद्रा प्राप्त की जाती है, तब इस क्रिया को अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली कहते हैं।
अप्रत्यक्ष विनिमय = वस्तु → मुद्रा → वस्तु।
विनिमय के इन दोनों प्रकार के अन्तर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

क्र०सं०प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय प्रणालीअप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय प्रणाली
1.जब कोई व्यक्ति अपनी किसी वस्तु या सेवा के बदले किसी अन्य व्यक्ति से अपनी आवश्यकता की कोई वस्तु या सेवा प्राप्त करता है तो उसे प्रत्यक्ष विनिमय या वस्तु विनिमय कहते हैं।जब वस्तुओं एवं सेवाओं का मुद्रा (द्रव्य) के माध्यम से विनिमय होता है तब इसे अप्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं।
2.प्रत्यक्ष विनिमय, विनिमय की एक पूर्ण प्रक्रिया है। इस प्रणाली में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को वस्तुएँ या सेवाएँ देता है तथा बदले में उसी समय वस्तुएँ या सेवाएँ प्राप्त करता है।अप्रत्यक्ष विनिमय में विनिमय प्रक्रिया दो उपविभागों-क्रय तथा विक्रय–में विभक्त की जा सकती है। विक्रय तथा क्रय के पश्चात् ही विनिमय प्रक्रिया पूर्ण होती है।
3.प्रत्यक्ष विनिमय में द्रव्य का प्रयोग नहीं होता है।अप्रत्यक्ष विनिमय में द्रव्य का प्रयोग किया जाता है।
4.प्रत्यक्ष विनिमय में आवश्यकता से अतिरिक्त वस्तुओं एवं सेवाओं के बदले आवश्यकता की वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं।अप्रत्यक्ष विनिमय में वस्तु या सेवा के बदले पहले द्रव्य प्राप्त किया जाता है तथा फिर द्रव्य के बदले आवश्यकता की वस्तुएँ या सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं।
5.वस्तु विनिमय प्रणाली को उपयोग केवल सीमित क्षेत्र में ही सम्भव होता है।अप्रत्यक्ष विनिमय का उपयोग विस्तृत क्षेत्र में किया जा सकता है।
6.वस्तु विनिमय का प्रचलन प्रायः उस अवस्था में होता है, जब कि मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत कम, सरल तथा सीमित होती हैं।मनुष्य की आवश्यकताओं की वृद्धि के कारण ही अप्रत्यक्ष विनिमय के द्वारा अधिकाधिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।
7.वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तु की अदल-बदल एक व्यक्ति के साथ अर्थात् जिसे आप अपनी वस्तु वस्तु देते हैं, बदले में आप उसकी वस्तु को प्राप्त करते हैं, की जाती है।अप्रत्यक्ष विनिमय में वस्तुओं का क्रय-विक्रय एक ही व्यक्ति के साथ नहीं करना पड़ता है। वस्तु का क्रय एक व्यक्ति से तथा विक्रय अन्य व्यक्ति को किया जाता है।
8.वस्तु विनिमय को प्रचलन केवल ऐसे समाज में होता है जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा होता है अथवा जिसमें द्रव्य का चलन नहीं होता है।अप्रत्यक्ष विनिमय सभ्य व विकसित समाज में प्रचलित होता है।

3.

वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसके गुण व दोषों का वर्णन कीजिए। यावस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसकी कठिनाइयों का उल्लेख कीजिए।याविनिमय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। यावस्तु विनिमय प्रणाली क्या है? वस्तु विनिमय प्रणाली के लाभों (गुणों) का वर्णन कीजिए।यासंक्षेप में विनिमय में लाभ एवं हानियों का वर्णन कीजिए।

Answer»

आवश्यकता आविष्कारों की जननी है। अतः मनुष्य की आवश्यकताओं में वृद्धि के कारण ही ‘विनिमय’ का आविष्कार (जन्म) हुआ। यह विनिमय अब तक दो रूपों में प्रचलित है
⦁     प्रत्यक्ष विनिमय अथवा वस्तु विनिमय तथा
⦁    परोक्ष विनिमय अथवा क्रय-विक्रय प्रणाली।
वस्तु विनिमय प्रणाली वस्तु विनिमय प्रणाली को अदला-बदली की प्रणाली भी कहते हैं जो कि विनिमय की प्राचीन पद्धति है। इस प्रणाली में वस्तुओं तथा सेवाओं को प्रत्यक्ष रूप से आदान-प्रदान किया जाता है अर्थात् जब कोई व्यक्ति अपनी किसी वस्तु या सेवा के बदले किसी अन्य व्यक्ति से अपनी आवश्यकता की कोई वस्तु या सेवा प्राप्त करता है तो इस क्रिया को अदल-बदल या वस्तु विनिमय या प्रत्यक्ष विनिमय कहते हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत मुद्रा (द्रव्य) का प्रयोग नहीं होता बल्कि वस्तुओं तथा सेवाओं का आदान-प्रदान होता है। भारत के ग्रामों में आज भी अनाज के बदले सब्जी ली जाती है या ग्रामों में नाई, बढ़ई, धोबी आदि को उनकी सेवाओं के बदले अनाज दिया जाता है।

वस्तु विनिमय की परिभाषा
प्रो० थॉमस के अनुसार-“एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमय को ही वस्तु विनिमय कहते हैं।”
प्रो० जेवेन्स के अनुसार, “अपेक्षाकृत कम आवश्यक वस्तु से अधिक आवश्यक वस्तुओं का आदान-प्रदान ही वस्तु विनिमय है।”

वस्तु विनिमय प्रणाली के गुण/लाभ
वस्तु विनिमय प्रणाली में निम्नलिखित गुण (लाभ) विद्यमान हैं

1. सरलता – वस्तु विनिमय प्रणाली एक सरल प्रक्रिया है, क्योंकि इसमें वस्तु के बदले वस्तु का लेन-देन होता है। एक व्यक्ति अपनी अतिरिक्त वस्तु दूसरे जरूरतमन्द व्यक्ति को देकर उसके बदले अपनी आवश्यकता की वस्तु उस व्यक्ति से प्राप्त कर लेता है।

2. पारस्परिक सहयोग – वस्तु विनिमय प्रणाली से आपसी सहयोग में वृद्धि होती है, क्योंकि मनुष्य अपनी अतिरिक्त वस्तुओं को अपने समीप के व्यक्ति को देकर उससे अपनी आवश्यकता की वस्तु प्राप्त कर लेता है, जिससे उनमें पारस्परिक सहयोग की भावना बलवती होती है।

3. धन का विकेन्द्रीकरण – वस्तु विनिमय प्रणाली में मुद्रा पद्धति के अभाव के कारण धन का केन्द्रीकरण कुछ ही हाथों में न होकर समाज के सीमित क्षेत्र के लोगों में बँट जाता है। वस्तुओं के शीघ्र नष्ट होने के भय के कारण वे वस्तुओं का संग्रहण अधिक मात्रा में नहीं कर पाते हैं। अत: वस्तु विनिमय प्रणाली में सभी पारस्परिक सहयोग की भावना से मानव-हित को सर्वोपरि मानकर कार्य करते हैं।

4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए उपयुक्त – विभिन्न देशों की मुद्राओं में भिन्नता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के भुगतान की समस्या बनी रहती है, जबकि
वस्तुओं के माध्यम से भुगतान सरलता से हो जाता है। वस्तु विनिमय द्वारा इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकती है।

5. मौद्रिक पद्धति के दोषों से मुक्ति – वस्तु विनिमय प्रणाली मुद्रा-प्रसार व मुद्रा-संकुचन के दोषों से मुक्त है, क्योंकि इसमें वस्तुएँ मुद्रा से नहीं बल्कि वस्तुओं के पारस्परिक आदान-प्रदान से ही प्राप्त की जाती हैं। इससे वस्तुओं के सस्ते या महँगे होने का भय नहीं रहता। परिणामस्वरूप मुद्रा की मात्रा की वस्तुओं के मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

6. दोनों पक्षों को उपयोगिता का लाभ – वस्तु-विनिमय की क्रिया उन्हीं व्यक्तियों द्वारा की जाती है, जिनके पास वस्तुओं का आधिक्य होता है, जबकि सम्बन्धित वस्तु की उपयोगिता उस व्यक्ति के लिए अपेक्षाकृत कम होती है। यह सर्वमान्य है कि व्यक्ति कम उपयोगी वस्तु को देकर अधिक उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार वस्तु विनिमय की क्रिया में दोनों पक्षों को ही उपयोगिता का लाभ प्राप्त होता है।

वस्तु विनिमय की असुविधाएँ या कठिनाइयाँ या दोष
वस्तु विनिमय प्रणाली की प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नवत् हैं

1. दोहरे संयोग का अभाव – वस्तु विनिमय प्रणाली की सबसे बड़ी कठिनाई दोहरे संयोग का अभाव है। इस प्रणाली के अन्तर्गत मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ऐसे व्यक्ति की खोज में भटकना पड़ता है जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तु हो और वह व्यक्ति अपनी वस्तु देने के लिए तत्पर हो तथा वह बदले में स्वयं की उस मनुष्य की वस्तु लेने के लिए तत्पर हो। उदाहरण के लिए-योगेश के पास गेहूँ हैं और वह गेहूं के बदले चावल प्राप्त करना चाहता है, तो योगेश को ऐसा व्यक्ति खोजना पड़ेगा जिसके पास चावल हों और साथ-ही-साथ वह बदले में गेहूं लेने के लिए तैयार हो। इस प्रकार दो पक्षों का ऐसा पारस्परिक संयोग, जो एक-दूसरे की आवश्यकता की वस्तुएँ प्रदान कर सके, मिलना कठिन हो जाता है।
2. मूल्य के सर्वमान्य माप का अभाव – इस प्रणाली में मूल्य का कोई ऐसा सर्वमान्य माप नहीं होता जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तु के मूल्य को विभिन्न वस्तुओं के सापेक्ष निश्चित किया जा सके। इस स्थिति में दो वस्तुओं के बीच विनिमय दर निर्धारित करना कठिन होता है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी वस्तु को अधिक मूल्य ऑकते हैं तथा वस्तु विनिमय कार्य में कठिनाई होती है।
3. वस्तु के विभाजन की कठिनाई – कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता; जैसे – गाय, बैल, भेड़, बकरी, कुर्सी, मेज आदि। वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की अविभाज्यता भी बहुधा कठिनाई का कारण बन जाती है। उदाहरण के लिए-यदि योगेश के पास एक गाय है और वह इसके बदले में खाद्यान्न, कपड़े तथा रेडियो चाहता है, तो इस स्थिति में योगेश को अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ प्राप्त करना कठिन हो जाएगा। वह ऐसे व्यक्ति को शायद ही खोज पाएगा जो उससे गाय लेकर उसकी सभी आवश्यक वस्तुएँ दे सके। साथ ही योगेश के लिए गाय का विभाजन करना भी असम्भव है, क्योंकि विभाजन करने से गाय का मूल्य या तो बहुत ही कम हो जाएगा या कुछ भी नहीं रह जाएगा।
4. मूल्य संचय की असुविधा – वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं को अधिक समय तक संचित करके नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वस्तुएँ नाशवान् होती हैं। वस्तुओं के मूल्य भी स्थिर नहीं रहते हैं; अतः वस्तुओं को धन के रूप में संचित करना कठिन होता है।
5. मूल्य हस्तान्तरण की असुविधा – वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत वस्तु के मूल्य को हस्तान्तरित करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए-योगेश के पास मेरठ में एक मकान है। यदि वह अब अपने गाँव में रहना चाहता है तो वस्तु विनिमय प्रणाली की स्थिति में वह अपने मकान को न तो बेचकर धन प्राप्त कर सकता है और न ही उस मकान को अपने साथ जहाँ चाहे ले जा सकता है। इस प्रकार उसके सामने बहुत बड़ी असुविधा उत्पन्न हो जाती है।
6. स्थगित भुगतानों में कठिनाई – वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तु के मूल्य स्थिर नहीं होते हैं। तथा वस्तुएँ कुछ समय के पश्चात् नष्ट होनी प्रारम्भ हो जाती हैं। इस कारण उधार लेन-देन में असुविधा रहती है। यदि वस्तुओं के मूल्य का भुगतान तुरन्त न करके कुछ समय के बाद किया जाता है तब सर्वमान्य मूल्य-मापक के अभाव के कारण बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो जाती है।

4.

मौद्रिक विनिमय के दो लाभ बताइए।

Answer»

(1) मूल्य का सर्वमान्य मापन तथा
(2) मूल्य संचय की सुविधा।

5.

विनिमय के दो प्रमुख लक्षण बताइए।

Answer»

(1) दो पक्षों का होना तथा
(2) वस्तुओं तथा सेवाओं का ऐच्छिक हस्तान्तरण।

6.

वस्तु विनिमय प्रणाली की दो आवश्यक दशाएँ लिखिए।

Answer»

(1) सीमित आवश्यकताएँ तथा
(2) अविकसित अर्थव्यवस्था तथा पिछड़ा समाज।

7.

आधुनिक युग में वस्तु विनिमय प्रणाली क्यों सम्भव नहीं है ? दो कारण लिखिए।

Answer»

(1) आवश्यकताओं में तीव्र गति से वृद्धि तथा
(2) मुद्रा का प्रचलन।

8.

वस्तु विनिमय से आप क्या समझते हैं ?

Answer»

“कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं की अदल-बदल को ही वस्तु विनिमय कहते हैं।”

9.

विनिमय की आवश्यकता क्यों हुई ?

Answer»

मनुष्य की निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकता के कारण उनमें पारस्परिक निर्भरता बढ़ने के फलस्वरूप विनिमय सम्बन्धी क्रियाओं का विकास होता चला गया।

10.

विनिमय के दो प्रकारों को लिखिए।

Answer»

(1) वस्तु विनिमय या प्रत्यक्ष विनिमय तथा
(2) अप्रत्यक्ष विनिमय या क्रय-विक्रय।

11.

“कम आवश्यक वस्तुओं से अधिक आवश्यक वस्तुओं की अदल-बदल को ही विनिमय कहते हैं।” यह कथन है(क) प्रो० मार्शल का(ख) एडम स्मिथ का(ग) जेवेन्स का(घ) रॉबिन्स को

Answer»

सही विकल्प है  (ग) जेवेन्स का।

12.

एक वस्तु को दूसरी वस्तु से बदलने की प्रणाली ” कहलाती है।

Answer»

एक वस्तु को दूसरी वस्तु से बदलने की प्रणाली  वस्तु विनिमय कहलाती है।

13.

“दो पक्षों के मध्य होने वाले धन के ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक हस्तान्तरण को ही विनिमय कहते हैं।” यह कथन किसका है ?(क) जेवेन्स का(ख) मार्शल का(ग) वाघ का(घ) टॉमस का

Answer»

सही विकल्प है  (ख) मार्शल का।