InterviewSolution
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डॉ० राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित ‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य का कथानक संक्षेप में लिखिए।या‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य का सारांश लिखिए।या‘मुक्ति-दूत’ की कथावस्तु या कथासार अपने शब्दों में लिखिए।या‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य का कथानक संक्षेप में लिखिए।या‘मुक्ति-दूत’ खण्डकाव्य के प्रतिपाद्य विषय (उद्देश्य) को समझाइए। |
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Answer» डॉ० राजेन्द्र मिश्र द्वारा रचित ‘मुक्ति-दूत’ नामक खण्डकाव्य गाँधीजी के जीवन-दर्शन का एक पक्ष चित्रांकित करता है। इस कथानक की घटनाएँ सत्य एवं ऐतिहासिक हैं। कवि ने इसके कथानक को पाँच सर्गों में विभक्त किया है। प्रथम सर्ग में कवि ने महात्मा गाँधी के अलौकिक एवं मानवीय स्वरूप की विवेचना की है। पराधीनता के कारण उस समय भारत की दशा अत्यधिक दयनीय थी। आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक सभी परिस्थितियों में भारत का शोषण हो रहा था। अवतारवाद की धारणा से प्रभावित होकर कवि कहता है कि जब संसार में पाप और अत्याचार बढ़ जाता है, तब ईश्वर किसी महापुरुष के रूप में जन्म लेता है। अन्यायी रावण से मानवता को मुक्ति दिलाने के लिए राम का और अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए श्रीकृष्ण का अवतार हुआ। इसी क्रम में भारत-भूमि के परित्राण के लिए काठियावाड़ प्रदेश में पोरबन्दर नामक स्थान पर करमचन्द के यहाँ मोहनदास के नाम से एक महान् विभूति का जन्म हुआ था। महात्मा गाँधी के दुर्बल शरीर में महान् आत्मिक बल था। भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए उन्होंने तीस वर्षों तक भारत का जैसा नेतृत्व किया, वह भारतीय इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। इनके अथक प्रयासों के फलस्वरूप ही भारतवर्ष को स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकी। ‘मुक्ति-दूत’ के द्वितीय सर्ग में गाँधीजी की मनोदशा का चित्रण किया गया है। उनका हृदय यहाँ के निवासियों की दयनीय दशा को देखकर व्यथित और उनके उद्धार के लिए चिन्तित था। जो बिगुल बजाया है तुमने, दक्षिण अफ्रीका में प्रियवर। ‘तृतीय सर्ग में अंग्रेजों की दमन-नीति के प्रति गाँधीजी का विरोध व्यक्त हुआ है। देश में अंग्रेजों का शासन था और उनके अत्याचार चरम-सीमा पर थे। भारतीय बेबसी और अपमान की जिन्दगी जी रहे थे। केवल वही लोग सुखी थे, जो अंग्रेजों की चाटुकारिता करते थे। जब उनकी नीति से अंग्रेजों का हृदय नहीं बदला, तब उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध ‘सविनय सत्याग्रह’ के रूप में संघर्ष छेड़ दिया। गाँधीजी ने प्रथम विश्वयुद्ध के समय देशवासियों से अंग्रेों की सहायता करने का आह्वान किया, परन्तु युद्ध में विजय पाने के बाद अंग्रेजों ने ‘रॉलेट ऐक्ट’ पास करकेचना अत्याचारी शिकंजा और अधिक कड़ा कर दिया। गाँधीजी ने अंग्रेजों के इस काले कानून का उग्र विरोध किया। उनके साथ जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, पटेल आदि नेता संघर्ष में सम्मिलित हो गये। इन्हीं दिनों जलियाँवाला बाग की अमानवीय घटना घटित हुई। यह दृश्य देखकर गाँधीजी का हृदय दहल उठा और उनकी आँखों में खून उतर आया। इस युग-पुरुष ने क्रोध का जहर पीकर सभी को अमृतमय आशा प्रदान की और यह निश्चय कर लिया कि अंग्रेजों को अब भारत में अधिक दिनों तक नहीं रहने देंगे। चतुर्थ सर्ग में भारत की स्वतन्त्रता के लिए गाँधीजी द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलनों का वर्णन है। जलियाँवाला बाग की नृशंस घटना हो जाने पर गाँधीजी ने अगस्त, सन् 1920 ई० में देश की जनता का ‘असहयोग आन्दोलन’ के लिए आह्वान किया। लोगों ने सरकारी उपाधियाँ लौटा दीं, विदेशी सामान का बहिष्कार किया। छात्रों ने विद्यालय, वकीलों ने कचहरियाँ और सरकारी कर्मचारियों ने नौकरियाँ छोड़ दीं। इस आन्दोलन से सरकार महान् संकट और निराशा के भंवर में फंस गयी। असहयोग आन्दोलन को देखकर अंग्रेजों को निराशा हुई। उन्होंने भारतीयों पर ‘साइमन कमीशन’ थोप दिया। ‘साइमन कमीशन के आने पर गाँधीजी के नेतृत्व में सारे भारत में इसका विरोध हुआ। परिणामस्वरूप सरकार हिंसा पर उतर आयी। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय पर निर्मम लाठी-प्रहार हुआ, जिसके फलस्वरूप देश भर में हिंसक क्रान्ति फैल गयी। गाँधीजी देशवासियों को समझा-बुझाकर मुश्किल से अहिंसा के मार्ग पर ला सके। गाँधीजी ने 79 व्यक्तियों को साथ लेकर नमक कानून तोड़ने के लिए डाण्ड़ी की पैदल यात्रा की। अंग्रेजों ने गाँधीजी को बन्दी बनाया तो प्रतिक्रियास्वरूप देश भर में सत्याग्रह छिड़ गया। मुक्ति-दूत के पञ्चम सर्ग में स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक की प्रमुख घटनाओं का वर्णन है। कारागार में गाँधीजी के अस्वस्थ होने के कारण सरकार ने उन्हें मुक्त कर दिया। इंग्लैण्ड के चुनावों में मजदूर दल की सरकार बनी। फरवरी, सन् 1947 ई० में प्रधानमन्त्री एटली ने जून, 1947 ई० से पूर्व अंग्रेजों के भारत छोड़ने की घोषणा की। भारत में हर्षोल्लास छा गया। मुहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान बनाने की अपनी मांग पर अड़े रहे। 15 अगस्त, सन् 1947 ई० को भारत स्वतन्त्र हो गया और देश की बागडोर जवाहरलाल नेहरू के हाथों में आ गयी। गाँधीजी ने अनुभव किया कि उनका स्वतन्त्रता का लक्ष्य पूर्ण हो गया; अतः वे संघर्षपूर्ण राजनीति से अलग हो गये। खण्डकाव्य के अन्त में गाँधीजी भारतवर्ष के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं और इसी के साथ खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है। |
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