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ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत-से लोगों को जानते होंगे, जो ईष्र्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर । इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है, और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो विश्व-कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। अगर जरा उनके अपने इतिहास को देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है, तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय वे शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहाँ होता ?(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।(स)⦁    ईर्ष्या का काम क्या है ? वह सबसे पहले किसे जलाती है ?⦁    ईष्र्यालु व्यक्ति के चरित्र का अध्ययन करने पर क्या निष्कर्ष निकलता है ?⦁    उपर्युक्त गद्यांश में ईर्ष्यालु व्यक्ति की  मनोदशा कैसी बताई गयी है ?[ श्रोता = सुनने वाला। सुकर्म = अच्छा कर्म, यहाँ पर लक्षणा (शब्द-शक्ति) से दुष्कर्म। अपव्यय = निरर्थक व्यय।]

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(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित एवं श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा लिखित ‘ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से’ नामक मनोवैज्ञानिक निबन्ध से उद्धृत है। अथवा अग्रवत् लिखिए पाठ का नाम-ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से। लेखक का नाम-श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’।

(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–लेखक का कथन है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी सुनने वाले के मिलते ही ग्रामोफोन के रिकॉर्ड की भाँति बजने लगते हैं और किसी अन्य के प्रति अपने हृदय की ईष्र्या के गुबार को निकालना शुरू कर देते हैं। बड़ी चतुरता के साथ वे अपनी कथा को विभिन्न अध्यायों में विभक्त कर प्रत्येक अध्याय की कथा को इस प्रकार सुनाते हैं, मानो वे यह कार्य विश्व-कल्याण की भावना से कर रहे हों और इसके अतिरिक्त उनका कोई अन्य उद्देश्य ही न हो।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक ने ऐसे व्यक्तियों को दयनीय समझते हुए कहा है कि यदि ऐसे व्यक्तियों पर ध्यान दें और उनके सन्दर्भ में यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करें कि जब से उन्होंने ईष्र्या में जलना प्रारम्भ किया है तब से वे स्वयं कितना आगे बढ़े हैं तो हमें ज्ञात होगा कि उनकी अवनति ही हुई है। यदि वे निन्दा-कार्य में समय नष्ट न करके स्वयं उन्नति के मार्ग पर बढ़ते तो निश्चित ही प्रगति कर गये होते। लेखक का मत है कि ऐसे लोग अपनी शक्ति का अपव्यय कर अपनी ही हानि करते हैं।

(स)
⦁    ईर्ष्या का काम है जलाना। ईर्ष्या सबसे पहले उस व्यक्ति को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति किसी सुनने वाले के मिलते ही; जिस व्यक्ति से वह ईर्ष्या करता है; उसकी किसी अच्छी बात को भी बुराई के दृष्टिकोण से विस्तारपूर्वक सुनाने लगता है।
⦁    ईष्र्यालु व्यक्ति के चरित्र का अध्ययन करने पर  यह निष्कर्ष निकलता है कि जब से उसने ईष्र्या में जलना शुरू किया है तब से उसकी प्रगति पूर्णतया अवरुद्ध हो गयी है।
⦁    प्रस्तुत गद्यांश में ईष्र्यालु व्यक्ति की मनोदशा के सम्बन्ध में बताया गया है कि वह सदैव इस बात का अवसर हूँढ़ता रहता है कि श्रोता मिलते ही वह उस व्यक्ति की बुराई करना शुरू कर दे, जिससे वह ईर्ष्या करता है।



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